नई दिल्ली: भारत के प्राचीन गौरव (Pride of India) की गाथाएं सिर्फ दंतकथाएं नहीं हैं. प्राचीन भारतीय साहित्य (Ancient indian litrature) के अलावा दुनिया के दूसरे देशों में भी इसके दस्तावेजी सबूत मौजूद हैं, लेकिन अफसोस ये है कि प्राचीन भारत के गौरव का बखान करने वाले इन बातों को वामपंथी इतिहासकारों (leftist historians) ने जानबूझकर इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं होने दिया.


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देश के गौरवशाली अतीत पर कुठाराघात
इतिहास से छेड़छाड़ का देश के वर्तमान पर इसका बहुत गहरा असर पड़ा है. ऊपरी तौर पर ये नजर नहीं आएगा लेकिन अगर आप गहराई से इसका विश्लेषण करेंगे तो साजिशन छुपाई गई सच्चाई सामने आ जाएगी. सच्चाई तो ये है कि गलत इतिहास लेखन की वजह से हमारी कई पीढ़ियां हीन भावना की शिकार हो गईं. दरअसल आजादी के बाद इस देश के इतिहासलेखन पर वामपंथी इतिहासकार कुंडली मार कर बैठ गए और इतिहास लेखन के नाम पर अपनी विचारधारा को थोपने के सिवा और कुछ नहीं किया. 


मूर्खता की हद तक जाकर वामपंथियों ने किया भारतीय ज्ञान का विरोध
प्राचीन हिन्दुस्तान का ज्ञान-विज्ञान किसी भी सूरत में वामपंथियों को हजम होने वाला नहीं था लिहाजा वामपंथी इतिहासकारों ने ना सिर्फ इसको सिरे से नजरअंदाज कर दिया बल्कि गौरवशाली ऐतिहासिक तथ्यों की खिल्ली उड़ानी शुरू कर दी. आपको ये जानकर हैरानी होगी प्राचीन भारत में चिकित्सा विज्ञान इतना विकसित था कि यहां प्लास्टिक सर्जरी होती थी, यहां तक कि कटे हुए अंगों को जोड़ भी  दिया जाता था. ब्रिटेन के अर्काइव्स (British archives) में इस बात के प्रमाण मौजूद हैं.



इरफान हबीब जैसे वामपंथी इतिहासकार कई मौकों पर 2600 साल पहले लिखी गई सुश्रुत संहिता की खिल्ली उड़ा चुके हैं. इरफान हबीब ने तो एक बार एक सुश्रुत संहिता का मजाक उड़ाते हुए कहा था- 'वो कहते हैं कि यहां प्लास्टिक सर्जरी होती थी, जो कि हो नहीं सकती.'


विदेश में मौजूद हैं  साक्ष्य
अब इरफान हबीब (Irfaan habib) जैसे इतिहासकार आखिर किस आधार पर और किस मजबूरी में देश के गौरवशाली अतीत को विचारधारा के गोबर से लीपने की कोशिश करते हैं ये जानना तो मुश्किल है लेकिन प्राचीन भारत का मेडिकल साइंस दुनिया भर में सबसे आधुनिक था. इसके सबूत ब्रिटेन से लेकर अमेरिका (USA) तक की आर्काइव्स में अक्षुण्ण हैं. ब्रिटिश लाइब्रेरी की एक डिजिटल वेबसाइस है साइंस ब्लॉग. साइंस ब्लॉग की रिसर्च सर्विसेज टीम की साइंस, टेक्नोलॉजी और मेडिसिन से जुड़े ग्रुप ने 21 अक्टूबर 2016 को Britain's first nose job हेडर के साथ एक आर्टिकल पब्लिश किया. इस आर्टिकल में नाक की प्लास्टिक सर्जरी के इतिहास की जानकारी पुख्ता प्रमाणों के साथ दी गई है. इस आर्टिकल में लिखा गया है-


"22 अक्टूबर 1814 को जोसेफ कॉन्सटेंनटाइन कॉर्प्यू ने ब्रिटेन में पहली प्लास्टिक सर्जरी की थी. इस सर्जरी में उन्होंने एक आर्मी ऑफिसर की नाक का रिकंस्ट्रक्शन किया था. ये ऑपरेशन कुल 15 मिनट चला जिसमें किसी एनेस्थेसिया का इस्तेमाल नहीं किया गया. 3 दिन बाद मरीज की बैंडेज पट्टी हटा दी गई. पट्टी हटाने के बाद जब मरीज के दोस्त ने उसे देखा तो खुशी से आह्लादित होकर बोला- हे भगवान ये नाक तो वापस आ गई."



उम्मीद है कि भारत में प्लास्टिक सर्जरी के प्राचीन इतिहास का मजाक उड़ाने वाले वामपंथी इतिहासकार ब्रिटिश लाइब्रेरी के साइंस ब्लॉग में छपे इस लेख को सही मानेंगे. क्योंकि फिरंगियों के दावों पर उन्हें खुद से भी ज्यादा भरोसा रहता है. इस लेख के हिसाब से ब्रिटेन में पहली प्लास्टिक सर्जरी  22 अक्टूबर 1814 को हुई थी. 


ब्रिटिश डॉक्टरों को भारत से मिली प्लास्टिक सर्जरी की प्रेरणा 
अब ब्रिटिश लाइब्रेरी के साइंस ब्लॉग में छपे इसी लेख में आगे क्या लिखा है उसे भी देख लेते हैं- "जोसेफ कॉन्सटेंनटाइन कॉर्प्यू को इस ऑपरेशन की प्रेरणा तब मिली जब उन्होंने भारत में नाक के कई सफल रिकंस्ट्रक्शन की रिपोर्ट पढ़ी. उस रिपोर्ट में गाल और ललाट से स्किन प्लैप निकालकर नाक की प्लास्टिक सर्जरी का ब्यौरा दिया गया था. उनमें से सबसे मशहूर 1794 वाली रिपोर्ट थी जो Gentleman’s Magazine में प्रकाशित हुई थी. इसमें कवासजी नाम के व्यक्ति की नाक के रिकंस्ट्रक्शन की पूरी जानकारी दी गई थी. ब्रिटिश इंडिया आर्मी बैलगाड़ी हांकने का काम करने वाले कवासजी को तीसरे एंग्लो-मैसूर युद्ध में टीपू सुल्तान की सेना ने क्षत-विक्षत कर दिया था. 



ब्रिटिश लाइब्रेरी की साइंस ब्लॉग की इस रिपोर्ट से साफ है कि ब्रिटेन से पहले भारत में प्लास्टिक सर्जरी की तकनीक मौजूद थी और भारत के सर्जन्स से प्रेरणा लेकर ही ब्रिटेन में पहली प्लास्टिक सर्जरी की गई. हमने  Gentleman’s Magazine की वो रिपोर्ट भी ढूंढ़ निकाली है जिसमें कवासजी की तस्वीर के साथ पूरी खबर छपी थी.  


हठधर्मी की हद तक जाकर वामपंथियों ने किया भारत विरोध 
वामपंथी इतिहासकारों का असली चेहरा तब और उजागर हो जाएगा जब आप ये जानेंगे कि प्राचीन हिन्दुस्तान की गौरवशाली गाथाओं पर उन्होंने गुनाह की हद तक जाकर पर्दा डाला है. ऐसा नहीं है कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी के जो दस्तावेज ब्रिटिश आर्काइव्स में मौजूद हैं उसकी जानकारी इन इतिहासकारों को नहीं है लेकिन भारत का गौरव गान उन्हें फूटी आंख भी नहीं सुहाता है. इसलिए उनपर साजिश का पर्दा डालने के लिए वो पूरी रणनीति के साथ उन कामयाबियों को गल्प बताकर मजाक बनाते हैं ताकि बुद्धिजीवी उस ओर से ध्यान हटा लें और सच्चाई दबी रहे.



भारत के महान गांधीवादी, विचारक, इतिहासकार और दार्शनिक धर्मपाल ने काफी मेहनत करके ब्रिटेन की आर्काइव्स से प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों से जुड़े दस्तावेज निकाले थे. इतिहासकार धर्मपाल उसके बाद तमाम वामपंथी इतिहासकारों से ये बताते रहे कि हमारे पास ये दस्तावेज मौजूद हैं और इसे भारत की इतिहास की किताबों में शामिल किया जाए लेकिन वामपंथी इतिहासकार ने उनकी बात नहीं सुनी.


साक्ष्यों पर वापमंथी साजिश का पर्दा
यह बेहद शर्मनाक है कि प्राचीन भारत के विकसित मेडिकल साइंस का इतिहास भारत की हिस्ट्री बुक से नदारद है लेकिन दुनिया भर की किताबों में, आर्काइव्स में, उन्हें सहेजकर रखा गया है.
हाल ही में कोलंबिया विश्वविद्यालय के इरविंग चिकित्सा केंद्र के सर्जरी विभाग ने हिस्ट्री ऑफ मेडिसीन में नाम से एक लेख लिखा है.  इस लेख के साथ एक तस्वीर लगाई गई है जिसपर साफ-साफ लिखा है कि 600 साल ईसा पूर्व भारत के सर्जन नाक का रिकंस्ट्रक्शन और स्किन ग्राफ्टिंग का काम करते थे. इस लेख में क्या लिखा है उसे भी देख लेते हैं-


"भारत में प्राचीन काल में प्लास्टिक सर्जरी की जाती थी. सुश्रुत ने चिकित्सा और शल्य चिकित्सा की दुनिया की पहली पुस्तक लिखी थी। उसमें तीन प्रकार की स्किन ग्राफ्टिंग और नाक को फिर से बनाने की विधि का भी वर्णन है. आज प्लास्टिक सर्जरी की जो तकनीकें प्रयोग की जाती हैं, आश्चर्यजनक रूप से वे सभी सुश्रुत संहिता में वर्णित हैं."


भारतीयों में हीन भावना पैदा करने की साजिश 
मतलब ये कि वामपंथी इतिहासकारों को प्राचीन भारत की जो बातें हास्यास्पद और मिथक लगती हैं वो दुनिया भर के विद्वानों के लिए प्रेरणा का स्रोत रही हैं. अफसोस ये है कि वामपंथी इतिहासकारों की लिखी किताबें पढ़कर हम भी यही मान बैठे हैं कि प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियां दंतकथाओं और गल्प से ज्यादा कुछ नहीं हैं. विज्ञान और तकनीक तो यूरोप की देन है. इस तरह का इतिहास पढ़कर अपने भीतर हम एक हीन भावना भी विकसित कर चुके हैं. लेकिन जरूरी ये है कि भारत के इतिहास को हम दुनियाभर के ईमानदार इतिहासकारों के नजरिए से जानें ताकि अपने देश के इतिहास को लेकर हमारे मन में भी गौरव का भाव पैदा हो और जो हीनभावना हमारे अंदर भीतर तक घुस चुकी है उससे बाहर निकालें.


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