Distorted History: पुण्य सलिला सरस्वती के अस्तित्व से खतरे में वामपंथी वजूद
मानवीय सभ्यता का सूर्य सबसे पहले हिन्दुस्तान के क्षितिज पर ही उदित हुआ. हालांकि इसकी प्राचीनता और कालखंड को लेकर निश्चित रूप से इतिहासकारों में मतभेद है. इस मतभेद की सबसे बड़ी वजह औपनिवेशिक काल के यूरोपीय इतिहासकारों की साजिश है.
नई दिल्ली: जब भारत गुलाम था तब गोरी चमड़ी वाले यूरोपीय खास तौर पर अंग्रेज ये मानने को तैयार नहीं थे कि धरती पर मानवीय सभ्यता का सूर्योदय पूरब में हुआ था. हैरानी तो ये है कि आजादी के बाद के वामपंथी इतिहासकार अंग्रेजों की इस धारणा के और बड़े पोषक बन गए, क्योंकि अंग्रेजों की तरह वामपंथी इतिहासकार भी यही मानते हैं कि भारत की धरती पर जो कुछ अच्छा दिखता है वो सब बाहरी आक्रांताओं की देन है.
इसीलिए सरस्वती नदी के अस्तित्व को ही अस्वीकार कर दिया गया. क्योंकि वेदों की रचना इसी के किनारे की गई थी.
सरस्वती नदी के सत्य से परहेज क्यों?
हिन्दुस्तान में वैदिककालीन सरस्वती नदी के अस्तित्व को लेकर वामपंथी लॉबी ने खासा भ्रम फैलाया है. सरस्वती नदी को लेकर वामपंथी लॉबी को दिक्कत ये है कि अगर वे इसके अस्तित्व को मान लेते हैं तो साथ ही ये भी मानना पड़ेगा कि ऋग्वेद का रचनाकाल 5000 से 7000 साल या उससे भी ज्यादा पुराना है. क्योंकि ऋग्वेद में बहती नदी के रूप में सरस्वती का जिक्र 60 बार किया गया है और महाभारत में सरस्वती का जिक्र सूख चुकी नदी के रूप में है.
अब वामपंथी इतिहासकार अगर ये मान लें कि ऋग्वेद का रचनाकाल 5 से 7 हजार साल या उससे भी ज्यादा पुराना है तो उनके गोरे अंग्रेज आकाओं की भृकुटी तन जाएगी. क्योंकि इससे खुद को मानवीय सभ्यता के ध्वजारोहक के रूप में दुनियाभर में फैलाया गया उनका महाझूठ बेनकाब हो जाएगा.
सबसे बड़ा संकट तो बाइबिल में लिखी वो बात है जिसमें धरती पर मानवीय जीवन का आरंभ ईसा से 4004 साल पहले माना गया है. बाइबिल के मुताबिक इस हिसाब से धरती पर मानव जीवन की शुरुआत आज से कुल 6004 साल पहले हुई थी.
इसलिए तत्कालीन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के मुलाजिम फ्रेडरिक मैक्समूलर ने ऋग्वेद का रचनाकाल ईसा से 1200 साल पहले से लेकर 1000 साल पहले तक का माना है. अब वामपंथी लॉबी भी तमाम ऐतिहासिक साक्ष्य होने के बावजूद ऋग्वेद के रचनाकाल को 3500 साल से ज्यादा पुराना मानने को तैयार नहीं है और इसके लिए वो सरस्वती नदी के अस्तित्व को नकारने की हर मुमकिन कोशिश करती रही है.
साल 2004 में वामपंथी दलों के सहयोग से केंद्र में जब यूपीए की सरकार बनी तो इस सरकार ने पूर्व की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के सरस्वती नदी के अस्तित्व को तलाशने के वैज्ञानिक और पुरातात्विक प्रयासों वाली परियोजना पर पूर्ण विराम लगा दिया. यूपीए सरकार के तत्कालीन संस्कृति मंत्री एस जयपाल रेड्डी ने 6 दिसंबर 2004 को संसद में बड़े विश्वास के साथ कहा था-
"इसका कोई मूर्त प्रमाण नहीं है कि सरस्वती नदी का कभी अस्तित्व था. कोई भी अनुसंधान इस मिथकीय नदी का पता लगाने में कामयाब नहीं हो सका है."
इसमें कोई संदेह नहीं कि संसद में सरस्वती नदी के अस्तित्व को नकारने का छल सत्ता के साझीदार वामदलों के दबाव में किया गया. दरअसल वामपंथी इतिहासकार अपने अंग्रेज आकाओं का विश्वास बनाए रखने के लिए इस काम में आजादी के बाद से ही जुट गए थे. चरमपंथी मार्क्सवादी इतिहासकार, रामशरण शर्मा ने 1999 में लिखी किताब एडवेंट ऑफ दि आर्यन्स इन इण्डिया में क्या लिखा है उसे देखिए-
"ऋग्वेद में जिस सरस्वती का उल्लेख है, वो अफगानिस्तान की हेलमंद है, जिसे अवेस्ता में हरखवती कहा गया है."
वामपंथी इतिहासकार भारत की प्राचीन सभ्यता संस्कृति के प्रामाणिक इतिहास को जब झुठलाने की मुहिम छेड़ते हैं तो हाथ धोकर उसके पीछे पड़ जाते हैं. एडवेंट ऑफ दि आर्यन्स इन इण्डिया लिखने के दो साल बाद साल 2001 में त्रैमासिक आलोचना पत्रिका के अप्रैल-जून के अंक में दिए साक्षात्कार में आर एस शर्मा ने सरस्वती नदी को लेकर और बड़ा भ्रम फैलाया. इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि-
"सरस्वती किसी नदी का नाम न होकर नदियों की देवी भी हो सकती है. सरस्वती को इतना महिमा-मंडित करने के पीछे हिन्दू साम्प्रदायिक सोच है. रूढ़िवादी सांप्रदायिक कारणों से सरस्वती को सिन्धु से अधिक महान सिद्ध करना चाहते हैं. हड़प्पा के सन्दर्भ में रूढ़िवादी सोचते हैं कि देश के विभाजन के बाद सिन्धु तो मुसलमानों की हो गई और केवल सरस्वती ही हिन्दुओं के लिये बची है."
भारत के गौरवशाली प्रमाणिक ऐतिहासिक सच पर विचारधाराई साजिश की कालिख पोतते हुए वामपंथी इतिहासकार की गिरने की हद क्या हो सकती है, उसकी झलक आपको आर एस शर्मा के इस कथन में मिल जाएगी. नदी के नाम पर भी वो हिन्दू मुसलमान के बीच नफरत की लकीर खींच सकते हैं ये इस कथन से साफ हो जाता है.
झूठ फैलाने में माहिर वामपंथी गिरोह
भारत के प्राचीन गौरव के बारे में जब कोई भ्रम फैलाना होता है तो वामपंथी इतिहासकारों का पूरा गिरोह एकजुट होकर लग जाता है. धुर वामपंथी इतिहासकार इरफान हबीब ऋग्वेद के गलत अनुवाद के जरिए सरस्वती नदी के अस्तित्व को लेकर कायदे से भ्रम फैला चुके हैं. 1991-92 में भारतीय इतिहास कांग्रेस के 52वें अधिवेशन में 'भारत का ऐतिहासिक भूगोलः 1800-800 ई.पू.' विषय पर अपने विचार प्रकट करते हुए उन्होंने ऋग्वैदिक ऋचा के अर्थ का अनर्थ कर दिया. सरस्वती के संबंध में ऋग्वेद के 10वें मंडल की एक ऋचा का सन्दर्भ देते हुए इरफान हबीब ने कहा था-
"सिन्धु और सरयू के बीच बहने वाली नदी सरस्वती वास्तव में हेलमन्द है. सरस्वती नाम की तीन नदियां थीं- पहली अफगानिस्तान की हेलमंद, दूसरी सिन्धु और तीसरी हरियाणा और राजस्थान में सरस्वती नाम से जो नदी आज भी बहती है."
इरफान हबीब प्राचीन इतिहास के विशेषज्ञ नहीं हैं लेकिन अपने साथी इतिहासकारों की फर्जी धारणा को पुष्ट करने के लिए भारतीय इतिहास कांग्रेस के 52वें अधिवेशन में वो ऋग्वेद के भी विशेषज्ञ बन गए. इरफान हबीब ने ऋग्वेद की जिस ऋचा के हवाले से ये बातें कहीं पहले उस ऋचा को देखते हैं-
सरस्वती सरयुः सिन्धुरूर्मिभिर्महो महीरवसा यन्तु वक्षणी।
जाहिर है इस ऋचा का अर्थ इरफान हबीब के पल्ले पड़ने वाला नहीं था लिहाजा उन्होंने गोरी चमड़ी वाले इतिहास ग्रिफिथ के अनुवाद का सहारा लेकर ये झूठ बोला क्योंकि ग्रिफिथ का अनर्थकारी अनुवाद उन्हें सूट कर रहा था. दरअसल ग्रिफिथ ने अपने अनुवाद में नदियों का क्रम सिन्धु, सरस्वती और सरयू कर दिया है. हालांकि ऋग्वेद के दसवें मंडल की ही एक और ऋचा में सरस्वती नदी किन दो नदियों के बीच बहती है ये साफ-साफ लिखा गया है-
इमं दह्य गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्री..
इस ऋचा में साफ तौर पर सरस्वती नदी को यमुना और शुतुद्री यानी सतलुज नदी के बीच बहता हुआ बताया गया है. कमाल ये है कि प्राचीन काल में यमुना और सतलुज के बीच सरस्वती नदी के पुख्ता प्रमाण सेटेलाइट मैपिंग, भूगर्भ विज्ञान और पुरातात्विक खोजों के जरिए मिल चुके हैं. जमीन के भीतर इसकी धारा भी वही पाई गई है जो ऋग्वेद में बताई गई है.
दरअसल 10 साल के यूपीए शासन के बाद नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में 2014 में जब एनडीए की सरकार बनी तो सरस्वती नदी की विलुप्त धारा को खोजने की बड़े पैमाने पर दोबारा कोशिश शुरू हो गई. तत्कालीन केंद्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती ने प्रसिद्ध भू-गर्भ वैज्ञानिक प्रो. केएस वाल्दिया की अध्यक्षता में एक टीम गठित की, जिसने काफी मशक्कत और पड़ताल के कुछ समय बाद अपनी रिपोर्ट मंत्रालय को सौंप दी.
इस रिपोर्ट के आधार पर उमा भारती ने बयान दिया था कि "प्रमाणित हो गया है कि हिमालय के आदि-बद्री से निकलकर कच्छ के रण से होती हुई पश्चिम में हड़प्पा कालीन नगर धौलावीरा तक सरस्वती नदी बहती थी. इस चार हजार किलोमीटर लम्बाई में जमीन के भीतर एक रेखा में विशाल जलभंडार का पता चला है."
सरस्वती के प्राचीन प्रवाह मार्ग पर मिला मीठा जल स्रोत
साल 2015 में हरियाणा और राजस्थान में जब सरस्वती नदी के प्राचीन मार्ग पर खुदाई शुरू हुई तो जमीन के 7 से 8 फीट नीचे ही मीठे पानी का स्रोत मिलने लगा. आप ये जानकर हैरान रह जाएंगे कि सरस्वती के प्राचीन मार्ग के नीचे खुदाई से मीठे पानी का स्रोत मिलता है जबकि उसी इलाके में कहीं और खुदाई करने पर काफी गहराई में जाने के बाद पानी मिलता है और वो भी मीठा नहीं खारा होता है. आप इसी से समझ सकते हैं सत्ता पर काबिज पार्टी की विचारधारा का हमारे इतिहास बोध पर कितना गहरा असर पड़ सकता है.
सरस्वती नदी का अस्तित्व प्रमाणित हो जाने के बाद प्राचीन भारतीय इतिहास की वामपंथी धारणा पूरी तरह धराशायी हो गई है. क्योंकि जिस काल को ये सिंधु घाटी सभ्तया का काल बताते हैं वो काल या उससे हजारों साल पहले भी यहां सरस्वती नदी का अस्तित्व प्रमाणित हो जाता है. वामपंथी इतिहासकार तो ये बताते हैं कि वेदों की रचना आर्यों ने की जो भारत के मूल निवासी थे ही नहीं.
वामपंथी इतिहासकार तो ये भी कहते हैं कि आर्यों के आने के बाद सिंधु घाटी की सभ्यता नष्ट हो गई और फिर वैदिक सभ्यता की शुरुआत हुई. पर ऋग्वेद में जिस सरस्वती नदी का जिक्र है वो तो करीब 2000 ईसा पूर्व सूख चुकी थी. ऐसे में साफ हो जाता है कि सिंधु घाटी के तयशुदा काल से पहले ही यहां वेदों की रचना हो चुकी थी. क्योंकि ऋग्वेद में सरस्वती सम्बन्धित लगभग 60 ऋचाएं हैं. 30 ऋचाओं से अधिक में नदी के रूप में इसकी महिमा का बखान है और बाकी में इसका विभिन्न प्रकार से वर्णन किया गया है.
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