नई दिल्ली: कुंभ मेले के समय में आपने लाखों नागा साधुओं को स्नान के लिए आते हुए देखा होगा. जो मेला समाप्त होते ही विलुप्त हो जाते हैं. ये लोग सनातन धर्म के असली योद्धा हैं. जिनकी वजह से हम अपने त्योहार और परंपराओं का पालन स्वतंत्रता पूर्वक कर पाते हैं. लेकिन अफसोस की बात है कि हम इनके बारे में कुछ भी नहीं जानते.  


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नागा संन्यासियों द्वारा लड़े गए युद्ध
- संसार प्रसिद्ध महाराणा प्रताप ने जब मुगलों के खिलाफ युद्ध छेड़ा तो उन्हें नागा संन्यासियों का साथ मिला. जिसके बाद मुगलों के छक्के छूट गए. राजस्थान में पंचमहुआ इलाके में छापली तालाब व राणाकड़ा घाट के बीच में हुए युद्ध में वहां मारे गए नागा साधुओं की समाधियां आज भी देखी जा सकती हैं. 


- औरंगजेब ने जब बनारस के विश्वनाथ मंदिर पर हमला किया तो  महानिर्वाणी दशनामी अखाड़े के संन्यासी रक्षा के लिए सामने आए. संघर्ष इतना विकट रहा कि औरंगजेब को मंदिर नष्ट करने का स्वप्न छोड़ना पड़ा. मुगल सेना को आंशिक सफलता ही मिल गाई. इन्हीं संन्यासियों ने वाराणसी शहर की रक्षा भी की. 


 


- बंगाल में अत्याचारियों के खिलाफ संन्यासी युद्ध को बहुत प्रसिद्ध है. जिसपर बंकिम चंद्र चटर्जी ने अपनी किताब 'आनंद मठ' लिखी. इसी किताब का गीत वंदे मातरम आज हमारा राष्ट्रीय गीत है. 


- अयोध्या में राम जन्मभूमि को बचाने के लिए साधुओं ने भारी बलिदान दिया. यहां संत बालानंद ने अपने गुरुभाई मानदास के साथ मिलकर मुसलमान सेना के खिलाफ लंबे समय तक मोर्चा लिया. 


- राम मंदिर के लिए चले लंबे संघर्ष के दौरान 76 बड़े युद्ध लड़े गए. जिसमें बाबा वैष्णवदास, संत बलरामाचार्य, स्वामी महेशानंद, राजगुरु पं. देवीदीन पांडेय जैसे कई संन्यासी योद्धाओं ने विधर्मियों से जूझते हुए अपने जीवन का आहूति दी. 


- 1666 में भी हरिद्वार कुंभ के मेले पर औरंगजेब के सिपाहियों ने हमला किया. तब नागा संन्यासियों ने साधु संतों को एकत्र करके युद्ध किया और विधर्मी मजहबी फौज को भगा दिया. 


- 1751 में अहमद अली बंगस ने प्रयाग पर हमला किया. तब कुंभ का मेला चल रहा था. उस समय संत राजेन्द्र गिरि के नेतृत्व में 50 हजार नागा संन्यासियों ने मोर्चा लिया और बंगस की फौज को भागने पर विवश कर दिया. 


- 1757 में अफगान लुटेरे अहमद शाह अब्दाली ने दिल्ली पर हमला किया. मुगल शासक उसका प्रतिरोध नहीं कर पाया. दिल्ली पर कब्जा करने के बाद अब्दाली की फौज कृष्ण नगरी मथुरा को  अपवित्र करने के लिए आगे बढ़ी. तब नागा संन्यासियों ने उनका सामना किया. इस युद्ध में अब्दाली की लुटेरी फौज की करारी हार हुई और उसमें हैजा फैल गया. जिससे डर कर अब्दाली की सेना भाग खड़ी हुई. 



नागा संन्यासी मौत से नहीं डरते क्योंकि वह अपने जिंदा रहते हुए अपने हाथों सेअपना श्राद्ध आदि अंतिम संस्कार कर चुके होते हैं. जब नागा साधु रणभूमि में उतरते हैं तो उनपर दुश्मन को मार देने का जुनून सवार होता है. जिसकी वजह से विधर्मी लुटेरों में उनका खौफ फैल जाता है.  लेकिन आजादी मिलने के बाद नागा संन्यासियों के संघर्ष को जानबूझकर इतिहास के पन्नों से हटा दिया गया. जिससे कि आम भारतीय शरीर में राख लपेटे इन संन्यासियों के बलिदान को जान ही न सकें. 


सेना की तरह होता है नागा साधुओं का संगठन
नागा साधु कई तरह के योग में प्रवीण होते है. जिससे उनकी संघर्ष शक्ति बेहद ज्यादा होती है.  नागा साधु एक सैन्य पंथ की तरह सुसज्जित होते है. उनकी पदावली भी सैन्य रेजीमेंट की तरह होती है. वह त्रिशूल, तलवार, भाला, गदा धारण करते हैं. 


आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए देश के चार कोनों पर संन्यासी पीठों का निर्माण किया था. ये व्यवस्था आज तक चली आ रही है. इन्हीं पीठों के अंतर्गत अखाड़े बनाए गए. जहां नागा संन्यासी शस्त्र संचालन और व्यायाम का अभ्यास करते हैं.  वर्तमान काल में भी भारत में 13 प्रमुख अखाड़े सक्रिय हैं. जिनकी शक्ति कुंभ मेले के समय दिखाई देती है. 



नागा साधुओं का वरीयता क्रम इस प्रकार होता है. अखाड़ों के संचालन के लिए कोतवाल, बड़ा कोतवाल, पुजारी, भंडारी, कोठारी, बड़ा कोठारी, महंत और सचिव जैसे प्रशासनिक पद बनाए गए हैं. 


अखाड़ों के आकार के आधार पर उनके अध्यक्षों को महंत, श्रीमहंत, जमातिया महंत, थानापति महंत, महंत, दिगंबर श्री, महामंडलेश्वर और आचार्य महामंडलेश्वर नामक पद प्रदान किए जाते हैं. 



आध्यात्मिक परंपरा में आगे बढ़ते जाने पर नागा साधुओं को चार पद प्राप्त होते हैं.  ये हैं-  
 1. कुटीचक
 2. बहूदक
 3. हंस
4. परमहंस

परमहंस पद प्राप्त होना अत्यंत दुर्लभ है. ऐसे संन्यासी बहुत कम देखे जाते हैं. 


बेहद कठिन है नागा साधु का जीवन
नागा साधुओं का जीवन बेहद कठिन होता है. जो कि इनमें संघर्ष का जुनून पैदा करता है. एक योद्धा बनने से पहले नागा संन्यासियों को कड़े प्रशिक्षण से गुजरना होता है. जिसमें महीनों तक एक पैर पर खड़ा होना, गर्मी में आग जलाकर उसके पास बैठना, सर्दियों में गले तक पानी में डूबे रहना, कांटों की शय्या पर सोना, पेड़ पर उल्टा लटककर साधना करना, बिना भोजन पानी के लंबे समय तक रहना, जमीन में गहरे गढ्ढे खोदकर उसमें समाधि लगाकर बैठ जाना जैसे कठिन कार्य किए जाते हैं. 



नागा साधु वस्त्र धारण नहीं करते हैं. लेकिन समाज में आने पर सामान्य मनुष्यों का ध्यान रखते हुए कौपीन (लंगोटी) पहन लेते हैं. नागा साधु बिस्तर पर नहीं सोते. उन्हें किसी भी मौसम में जमीन पर ही सोना होता है. वह ज्यादा से ज्यादा राख बिठा सकते हैं. जिसपर शयन करने की उन्हें अनुमति है. 


आज भी हिमालय के सुदूर इलाकों में बर्फीले पहाड़ों पर बिना वस्त्रों के नागा साधु दिखाई दे जाते हैं. शस्त्रधारी नागाओं के अलग अलग गुट हैं. जिन्हें औघड़ी, अवधूत, महंत, कापालिक, श्मशानी आदि नामों से जाना जाता है. 



नागा साधुओं ने भारत की गुलामी के दिनों में भारी संघर्ष किया है और अपने प्राणों का बलिदान दिया है. लेकिन आजादी प्राप्त होने के बाद देश को सुरक्षित हाथों में जानकर उन्होंने अपनी सैन्य क्षमता को समेट लिया है. अब नागा साधु आध्यात्मिक उन्नति की साधना में ही लीन होते हैं. इन संन्यासियों को संसार से कुछ भी नहीं चाहिए. 


लेकिन धर्म को  बचाए रखने के लिए इन नागा साधुओं के संघर्ष को जानना सभी भारतीयों के लिए बेहद आवश्यक है. क्योंकि उनकी बलिदान का गाथाएं हमें  धर्म संरक्षण हेतु संघर्ष के लिए प्रेरित करती हैं. 


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