नई दिल्लीः  23 जनवरी 1897 का दिन, तब के उड़ीसा (आज ओडिषा) का कटक शहर, शहर के जाने-माने वकील जानकी नाथ बोस और प्रभावती देवी के घर आसमान से उतरा था एक बागी फरिश्ता. सुभाष अपनी माता-पिता की 14 संतानों में से 9वें थे, जन्म से ही विलक्षण. सुभाष जब 5 साल के हुए तो पिता जानकी नाथ बोस ने उन्हें प्रोटेस्टेंट यूरोपीयन स्कूल में दाखिल दिलवाया.


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उस स्कूल में ज्यादातर अंग्रेज बच्चे ही पढ़ते थे. भारतीय बच्चों को बमुश्किल ही दाखिल मिलता था. अंग्रेज बच्चों के मन में शुरू से ही भारतीय बच्चों को लेकर कमतरी या कहें घृणा का भाव था. खेल-कूद में भारतीय बच्चों को शामिल न करना, उन्हें नीचा देखना उनकी आदत थी. पर उन्हें क्या पता था कि उनकी स्कूल में आ चुका है मां भारती का सच्चा सपूत. उस नन्हीं उम्र में ही सुभाष ने बगावत का बिगूल फूंक दिया.


ऐसे सिखाया सुभाष ने सबक
स्कूल के प्लेग्राउंड में सहमे बैठे भारतीय बच्चों से उन्होंने अंग्रेजों के साथ खेलने के लिए प्रेरित किया. बच्चों की जब हिम्मत नहीं हुई तो सुभाष बाबू ने एक गेंद खुद ही उछाल दी. फिर तो नन्हे मु्न्ने भारतीय बच्चे भी दौड़-भाग करने लगे. अंग्रेज बच्चों ने जब विरोध किया था नन्हें सुभाष की अगुवाई में भारतीय बच्चों ने फिरंगी बच्चों की कायदे से धुलाई कर दी. फिर क्या था जानकीनाथ बोस के घर आ गई स्कूल के प्रिंसिपल की शिकायती चिट्ठी.



कहते हैं कि शिकायत मिलने के बाद पिता जानकीनाथ बोस ने सुभाष को समझाया था ऐसी हरकत से पूरे परिवार का नुकसान होगा, लेकिन उस तेजस्वी नन्हें नादान ने अपने पिता को दो टूक कह दिया कि फिरंगी बच्चे अगर हमें मारेंगे तो हम उनकी भी धुनाई करेंगे. 5-6 साल की उम्र में ये जज्बा था सुभाष बाबू का. यही बच्चा आगे उस ब्रिटिश साम्राज्य का सबसे बड़ा शूल बन गया जिसका सूर्य कभी अस्त नहीं होता था.  सुभाष के बागी तेवरों को देखते हुए मां-बाप ने उन्हें मामा के पास कलकत्ता भेज दिया. ये सन 1907 की बात है.


नन्हीं उम्र में फिरंगियों के खिलाफ नफरत की ज्वाला
 तब के कलकत्ता पहुंचने के बाद 10 साल के सुभाष के मन में फिरंगियों के खिलाफ नफरत और देशप्रेम की ज्वाला और ज्यादा धधकने लगी. तब 15 साल के सुशील कुमार सेन को सरे बाजार 15 बेंत मारने की सजा फिरंगी अदालत ने सुनाई थी. किशोर सुशील सेन ने एक हट्टे-कट्टे अंग्रेज सार्जेंट को पीट दिया था.



हर बेंत पर सुशील कुमार गर्जना करता था भारत माता की जय और उसका साथ दे रहे थे 10 साल के सुभाष. मामा उसी दिन सुभाष को लेकर कटक रवाना हो गए और आकर अपनी बहन को कहा संभालो अपना लाल. इस तरह कच्ची उम्र में ही सुभाष चंद्र बोस के सीने में देशभक्ति की ज्वाला धधकने लगी थी.


क्रांतिकारियों की तस्वीरें काटकर चिपकाते थे नेताजी
बोस के मामा उन्हें कलकत्ता ले गए लेकिन 3 दिनों बाद ही उन्हें वापस कटक पहुंचा दिया. कटक लौटने के बाद 10 साल के सुभाष ने अपने कमरे की दीवारों पर क्रांतिकारियों की तस्वीरें चिपकानी शुरू कर दी. वो नानासाहब, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, वासुदेव बलवंत फड़के, प्रफुल्ल चंद चाकी और खुदीराम बोस जैसे क्रांतिकारियों की तस्वीरें चिपकाते थे और नीचे लिखते थे मुझे ऐसे ही जीना है मुझे ऐसे ही मरना है.



घरवालों ने जब 10 साल के बच्चे का ये तेवर देखा तो उनके होश फाख्ता हो गए. जानकीनाथ बोस के एक करीबी पुलिस अधिकारी ने तो उन्हें चेताया भी, लेकिन सुभाष तो जैसे गुलामी की जंजीरों को काटने के लिए ही पैदा हुए थे.


सुभाष के बागी तेवर ने घरवालों की नींद उड़ा दी
घरवाले सुभाष के बागी तेवर से परेशान रहते थे पर उनके मन में तो जैसे देश को गुलामी की जंजीरों से आजाद कराने का जुनून सवार था. कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ते हुए उन्होंने एक अंग्रेज टीचर ओटन के खिलाफ मोर्चा खोला दिया. क्योंकि ओटन भारतीय छात्रों के साथ सौतेला व्यवहार करता था. उन्हें मारता-पीटता भी था.



सुभाष बाबू ने ओटन के खिलाफ प्रिसिंपल से शिकायत की और जब गोरे प्रिंसिपल ने अंग्रेज टीचर के खिलाफ कार्रवाई से इंकार किया तो सुभाष बाबू ने खुद ही उसे सबक सिखाने की ठानी. कुछ भारतीय छात्रों के साथ मिलकर ओटन की कायदे से पिटाई कर दी. फिर क्या था प्रिंसिपल ने उन्हें कॉलेज से निकाल दिया.


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