राष्ट्रकवि दिनकर, जो राज्यसभा में भी कर देते थे नेहरू सरकार की खिंचाई, पढ़िए उनकी कविताएं
रामधारी सिंह दिनकर 1952 से लेकर 1964 तक 12 साल कांग्रेस के कोटे से राज्यसभा के सदस्य भी मनोनीत हुए. राज्यसभा में भी कविताओं के माध्यम से दिनकर जी नेहरू सरकार की खुली व स्वस्थ आलोचना कर दिया करते थे.
नई दिल्लीः राष्ट्र आज राष्ट्रकवि की जयंती मना रहा है. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर, 1908 को बिहार के बेगूसराय के सिमरिया में हुआ था. दिनकर की लेखनी जब चली तो उनकी कविताओं का श्रृंगार और लालित्य भी राष्ट्र की पुकार बन गया.
फिर चाहे वह परशुराम की प्रतीक्षा काव्य में बंधी झुंझलाहट हो, कृष्ण की चेतावनी कविता में क्रोध और भक्ति का सामंजस्य हो, कलम आज उनकी जय बोल की वीरता हो या फिर, सिंहासन खाली करो कि... मांग में समय की पुकार हो, दिनकर की लेखनी हर जगह चली और सटीक चली.
कविता के केंद्र में हमेशा रहा सत्ता और संघर्ष का भाव
उनकी कविता के केंद्र में हमेशा ही सत्ता और आम आदमी का संघर्ष पटकथा की तरह मजबूती से बना रहा, या यूं कहिए कि दिनकर ने बनाए रखा. मदमत्त दुर्योधन को जब श्रीकृष्ण क्रोध में भरकर समझाने का यत्न कर रहे हैं तो परब्रह्म होने की पूरी शक्तियां बताते हुए भी वह एक विद्रोही से लगते हैं,
जो सत्ता को आखिरी बार चुनौती दे रहा है कि गुमान न कर, मेरे होने से ही तेरी सत्ता है. वास्तव में दिनकर अपनी कविताओं के ओज से यह तेज हर भारतवासी के अंदर भरना चाहते थे.
पंडित नेहरू ने दिनकर को बताया था राष्ट्रकवि
देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पहली बार रामधारी सिंह दिनकर को राष्ट्रकवि कहकर बुलाया था. ऐसा कहा जाता है. दोनों के बीच घनिष्ठ संबंध थे. लेकिन दिनकर ने कभी भी अपने व्यक्तित्व को प्रधानमंत्री की अनुकंपा के नीचे नहीं दबने दिया. व्यक्तिगत संबंधों से परे दिनकर और नेहरू के संबंध अनूठे माने जाते हैं.
रामधारी सिंह दिनकर 1952 से लेकर 1964 तक 12 साल कांग्रेस के कोटे से राज्यसभा के सदस्य भी मनोनीत हुए. राज्यसभा में भी कविताओं के माध्यम से दिनकर जी नेहरू सरकार की खुली व स्वस्थ आलोचना कर दिया करते थे. भारत चीन युद्ध के बाद तो दिनकर नेहरू के पूरी तरह खिलाफ हो चुके थे. लेकिन संबंधों की शालीनता बनी रही.
आज भी सूक्तियों की तरह प्रयोग होती हैं दिनकर की कविताएं
दिनकर की कविताओं में लिखी कई पंक्तियां आज के दौर में भी सूत्र और सूक्ति की तरह प्रयोग की जाती हैं. बल्कि कई कविताओं ने तो क्रांति के दौर में नारों का रूप ले लिया.
इनमें सिंहासन खाली करो कि जनता आती है, से कौन अपरिचित है. वहीं जो तटस्थ है समय लिखेगा उनके भी अपराध. समर शेष है कि इस आखिरी पंक्ति का प्रयोग तो धड़ल्ले से राजनीतिक गलियारों में जब तब देखा जाता है.
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कुछ पंक्तियों पर नजर डालिए
झेलेगा यह बलिदान ? भूख की घनी चोट सह पाएगा ?
आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा ?
है बड़ी बात आजादी का पाना ही नहीं, जुगाना भी,
बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी. (कविता रोटी और स्वाधीनता का अंश)
मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का
चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं
पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी
समा जिसमें चुका सौ बार हूँ मैं. (कविता परिचय का अंश)
जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल. (कविता कलम आज उनकी जय बोल)
हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ.
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा। (श्रीकृष्ण की चेतावनी)
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से शृँगार सजाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है. (सिंहासन खाली करो कि जनता आती है)
है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके वीर नर के मग में?
खम ठोंक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़.
मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है. (सच है विपत्ति जब आती है)
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