लौंगी भुइयां की कहानी, अकेले दम पर 30 साल काटा पहाड़, बनाई 3 किमी लंबी नहर

खुद इस आधुनिक भगीरथ के भी गालों पर झुर्रियों की एक रेख आ गई. बाल कपासी हो गए, लेकिन नहीं रुका तो वह थे इस आदमी के हाथ और इनमें थमा हुआ फावड़ा. का, बाबा, का, करत हवss हो, (बाबा क्या कर रहे हो) देखत नाही हवे, पहान तोड़ित हईं.( देख नहीं रहे, पहाड़ तोड़ रहा.) इस लंबी अनवरत चली साधना का फल मिलने में 30 साल लगे

Written by - Zee Hindustan Web Team | Last Updated : Sep 15, 2020, 08:50 PM IST
    • लौंगी भुइयां को उम्मीद, अब शायद न हो पलायन
    • तीन गांव के लोग उठा रहे हैं नहर का लाभ
    • नहर तो बना ली, लेकिन अब गिरने लगा है लौंगी भुइयां का घर
    • मेडल नहीं ट्रैक्टर की दरकार, ताकि खेती कर सकें
लौंगी भुइयां की कहानी, अकेले दम पर 30 साल काटा पहाड़, बनाई 3 किमी लंबी नहर

नई दिल्लीः बिहार, बुद्ध की शांति देने वाली धरती से लेकर तमाम राजाओं के शौर्य तक का परिचय देने वाली भूमि. आज कल राज्य में सुशासन की बात कही जाती है. चुनावी माहौल है तो कोरोना काल में भी खूब चहल-पहल है. लोग इधर-उधर आ जा रहे हैं तो राजनीतिक दलों में लोगों का पार्टी छोड़कर आने-जाने का सिलसिला चल रहा है. 

कई सालों तक अकेले चला फांवड़ा
खैर, यह सब तो अभी शुरू हुआ है, लेकिन इस शोर-शराबे और चहल-पहल से अलग राजधानी पटना से तकरीबन 200 किमी दूर एक पहाड़ के नीचे लगातार फावड़े की थक-फट्ट आवाज गूंजती रही है. इस आवाज का सिलसिला कोई एक-दो दिन या महीने या चार-पांच साल नहीं चला.

बल्कि इतना लंबा सिलसिला चला कि उसी पहाड़ के पास खेलते हुए बच्चे कई बच्चों के बाप बन गए. 

30 साल में मिला मेहनत का फल
खुद इस आधुनिक भगीरथ के भी गालों पर झुर्रियों की एक रेख आ गई. बाल कपासी हो गए, लेकिन नहीं रुका तो वह थे इस आदमी के हाथ और इनमें थमा हुआ फावड़ा. का, बाबा, का, करत हवss हो, (बाबा क्या कर रहे हो) देखत नाही हवे, पहान तोड़ित हईं.( देख नहीं रहे, पहाड़ तोड़ रहा.) इस लंबी अनवरत चली साधना का फल मिलने में 30 साल लगे. 

इसी साल अगस्त में पूरा हुआ काम
आज लौंगी भुइयां (70 वर्ष) जब खेतों को लहलहाते देखते हैं तो उनके गालों में पड़ी झुर्रियों के बीच हंसी-मुस्कान वैसे ही भर जाती है, जैसे उनकी बनाई नहर में पानी भरा है. वह भी लबालब. यह बाबा लौंगी भुइयां का यह काम इसी साल अगस्त में पूरा हुआ है.

जिस जगह यह भगीरथ प्रयाय सफल हुआ है उसका नाम है बांके बाजार प्रखंड. गया में पितरों को पानी देने हर साल लाखों पुण्यात्मा पहुंचते हैं. लेकिन इसी जिले में पानी के लिए तरस रहे इस प्रखंड में सुशासन-प्रशासन का सूरज कभी नहीं पहुंच सका. 

गांव में नहीं था सिंचाई का साधन
बांकेबाज़ार प्रखंड में कोठिलवा गांव के लोगों के पास करने के लिए सिर्फ एक ही काम, वह थी कृषि. लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी लोग धान-गेहूं नहीं बो पाते थे. वजह, इतनी कि पानी बरसता तो था, लेकिन टिकता नहीं था. इसके अलावा सिंचाई का कोई साधन नहीं था.

 

फिर वही हुआ जो अमूमन हर गांव में होता है, जवानी की दहलीज पर पहुंचे लड़कों ने दूर-दराज के शहरों में काम-धंधा तलाशा और एक दिन लौंगी भुइयां के बेटे भी इसी राह निकल लिए. रह गए तो अकेले लौंगी भुइयां. 

और एक दिन लौंगी भुइयां को आया विचार
छोटे-मोटे काम में लौंगी भुइयां का जीवन चल जाता था, लेकिन संतुष्टि नहीं थी. पास ही खड़ा है बंगेठा पहाड़. भुइयां यहां बकरियां चराने आते थे. एक दुपहरी यूं ही सुस्ताते-आराम फरमाते सोच रहे थे कि गांव में पानी आ जाए तो खेती सही हो जाए, लेकिन पानी आए कैसे?

, क्या हो सकता है, लौंगी को इसका अंदाजा नहीं था. इसी उधेड़बुन में एक दिन लौंगी भुइयां निकले और पूरा पहाड़ घूम-घूम कर देखा. जहां पानी भरता था, वहां से गांव तक उसे रास्ता देने का अंदाजा लगाया, एक खाका तैयार किया और फिर अगले दिन लोगों ने देखा कि एक 40-42 साल का आदमी बड़े ही जुनून से पहाड़ पर फावड़ा चलाए जा रहा है. 

गांव के तालाब से जोड़ दी नहर
बदलाव लाने वाला और लीक से हटकर चलने वाला हर आदमी थोड़ा फिरा हुआ मान ही लिया जाता है. लौंगी के साथ भी ऐसा हुआ लेकिन उन्होंने सिर्फ सुनी तो अपने मन की और दूसरी अपने फावड़े की आवाज. दोनों में लंबी पारी तक के लिए साझेदारी हो गई और फिर शुरू हुआ जो सिलसिला तो 30 साल तक लगातार चलता ही रहा है. लौंगी भुइयां अकेले जुटे रहे. 

फिर आई 2020 में अगस्त की एक सुबह, जब लोगों ने देखा कि गांव का तालाब बड़े ही साफ पानी से भर रहा है. अथक परिश्रम करके लौंगी भुइयां ने पहाड़ के पानी को गांव के तालाब तक पहुंचा दिया. अकेले फावड़ा चलाकर तीन किलोमीटर लंबी, 5 फ़ीट चौड़ी और तीन फ़ीट गहरी नहर बना दी थी. आज यह नहर लबालब भरी है और गांव वालों के काम आ रही है. 

तीन गांव के किसान ले रहे हैं फायदा
लौंगी भुइयां कहते हैं कि आज यह देखकर अच्छा लग रहा है कि मेरा किया हुआ काम गांव वालों के लिए फायदेमंद साबित हो रहा है. आसपास के तीन गांव के किसान इस नहर के पानी के इस्तेमाल करते हैं. लोगों ने इस बार धान की फ़सल भी उगाई है.

वह बताते हैं कि एक बार ठान लिया था तो इसे पूरा करना ही था. काम से जब-जब फुर्सत मिलती तो मैं पहुंच जाता और पहाड़ काटने पहुंच जाता. पत्नी कहती थी कि रहने दीजिए, नहीं हो पाएगा, लेकिन मुझे लगता था कि हो जाएगा.

शायद अब बच्चे लौट आएंगेः लौंगी भुइयां
मेरे दिमाग़ में केवल इतना ही था कि पानी आ जाएगा तो खेती होने लगेगी. बाल बच्चे बाहर नहीं जाएंगे. अनाज होगा तो कम से कम पेट भरने के लिए तो हो जाएगा. लौंगी भुइयां को लगता है कि अब कम से कम उनके बेटे घर लौट आएंगे. उनके गांव वालों को पानी आने की खुशी तो है, लेकिन रोष भी है कि कई बार मदद मांगने के बावजूद भी प्रशासन से कोई मदद नहीं मिली.

मुझे मेडल नहीं ट्रैक्टर चाहिए
लौंगी मीडिया बातचीत में कहते हैं कि जरूरत के वक्त कोई नहीं आया, अब भी लोग सिर्फ वादे करके ही जा रहे हैं. मेरा काम तो पूरा हो गया, मुझे अब कुछ नहीं चाहिए, लेकिन मैं चाहता हूं कि मेरे परिवार को एक घर और एक शौचालय मिल जाए.

मेरा घर मिट्टी का है, अब ढह रहा है, मैंने अगर पहाड़ काटने का काम नहीं किया होता तो अबतक घर बना लेता. मुझे मेडल नहीं चाहिए एक ट्रैक्टर दे दीजिए, ताकि खेती कर सकूं. बस. 

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