चौरी-चौरा शताब्दी समारोह: चौरी-चौरा कांड के बाद क्या हुआ?
4 फरवरी 1922 को चौरी-चौरा में घटना हो जाने के बाद सबसे पहली प्रतिक्रिया महात्मा गांधी की ओर से हुई. उन्होंने अपना असहयोग आंदोवन वापस ले लिया और कहा, अब असहयोग का रास्ता भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कारने के योग्य नहीं रहा. महात्मा गांधी के इस फैसले को लेकर क्रांतिकारियों का एक दल नाराज हो गया था.
नई दिल्लीः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज गुरुवार को चौरी-चौरा शताब्दी समारोह की शुरुआत करेंगे. PM Modi वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए इस समारोह की शुरुआत करेंगे. इसके अलावा एक विशेष डाक टिकट भी जारी किया जाएगा. उत्तर प्रदेश के सीएम योगी का भी एजेंडे में शताब्दी समारोह को लेकर कई प्लान है. जिला प्रशासन वीडियो अपलोड के माध्यम से वन्दे मातरम गीत की पहली पंक्ति को एक साथ गाकर गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड बनाने के लिये पूरी तरह से तैयार है. इसके अलावा राज्य सरकार साल भर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करेगी.
चौरी-चौरा शताब्दी समारोह
यह शताब्दी समारोह 100 साल पुरानी उस ऐतिहासिक घटना की स्मृति है जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की राह में एक मील का पत्थर है. इसके साथ ही यह घटना आज की राजनीति के बीच 100 साल पहले ही खींची गई रेखा भी है, जिसके दोनों ओर के लोग अपनी-अपनी दिशा से सही और गलत दिखाई देते हैं.
4 फरवरी 1922 को चौरी-चौरा में हुई यह घटना कई कारणों से ऐतिहासिक बन गई. घटना को ऐतिहासिक बनाते हैं 3 तथ्य, पहला, वह वजह, जिसके कारण घटना हुई, दूसरा, घटना में क्या हुआ और तीसरा घटना घट जाने के बाद क्या प्रभाव पड़े. इतिहास में चौरी-चौरा कांड क्या था, यह तो खूब दर्ज है, लेकिन इसके बाद क्या-क्या हुआ यह ऐतिहासिक विषय नहीं बल्कि बहस का मुद्दा रह गया.
यह हुआ घटना के बाद
4 फरवरी 1922 को चौरी-चौरा में घटना हो जाने के बाद सबसे पहली प्रतिक्रिया महात्मा गांधी की ओर से हुई. उन्होंने अपना असहयोग आंदोवन वापस ले लिया और कहा, अब असहयोग का रास्ता भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कारने के योग्य नहीं रहा. महात्मा गांधी के इस फैसले को लेकर क्रांतिकारियों का एक दल नाराज़ हो गया था. 16 फरवरी 1922 को गांधीजी ने अपने लेख 'चौरी चौरा का अपराध' में लिखा कि अगर ये आंदोलन वापस नहीं लिया जाता तो दूसरी जगहों पर भी ऐसी घटनाएं होतीं.
इसके पहले सितम्बर 1920 में कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन (Congress Session, Calcutta) में गांधीजी ने पंजाब में किए गए अत्याचार के विरोध में सरकार के साथ असहयोग का प्रस्ताव रखा. उनका प्रस्ताव बहुमत से पारित हो गया था. असहयोग आंदोलन को बीच में इस तरह से स्थगित किया जाना कई लोगों के मन को भेद गया.
डरे हुए अंग्रेजों ने लिया दमनकारी फैसला
उधर, अंग्रेजों के लिए यह मौका भयंकर डर, शर्म और सदमे से भरा था. दरअसल यह दूसरा मौका था जब उन्हें इतने भयानक आक्रोश का सामना करना पड़ा था. इसके पहले 1857 की क्रांति को झेल चुके और उसका सफलता पूर्वक दमन कर चुके थे. इस चौरी-चौरा क्रांति ने उन्हें फिर से अपनी नीतियों पर सोचने को मजबूर कर दिया. यह घटना इतनी बड़ी हो गई थी कि ब्रिटेन के हाउस आफ कॉमन तक में इसकी चीख सुनाई दी थी.
वहां अफरा-तफरी का माहौल हो गया था. सचिव मांटेग्यू की नीतियों के खिलाफ 14 फरवरी 1922 को निंदा प्रस्ताव लाया गया तो अगले दिन इस पर बड़ी और तीखी बहस भी हुई. इधर अंग्रेज फिर से यह सोचने को मजबूर हो गए कि भारत में स्वतंत्रता आंदोलन की चिंगारी दोबार न भड़क न जाए, इसके लिए इस गदर को कैसे भी दबाना होगा.
114 क्रांतिकारियों को दिया गया मृत्युदंड
यहां से शुरू हुआ अंग्रेजों की बड़ी अमानवीयता का सिलसिला. एक बड़ा धरपकड़ अभियान चलाकर 4 फरवरी की घटना में शामिल लोगों की खोजबीन की गई. इसमें जो मिला, जिसको बन पड़ा उसकी गिरफ्तारी की गई. हिंसा में अंग्रेजों ने 114 लोगों को आरोपी बनाया. साल भर यह अभियान चला और इसके बाद 4 फरवरी 1923 को अंग्रेजी सरकार ने क्षेत्र के 114 क्रांतिकारियों को मृत्युदंड और दर्जनों लोगों को काले पानी की सजा सुनाई.
यह तेजी में लिया गया फैसला था. इसमें इस बात से कोई मतलब नहीं था कि सजा किसे मिल रही है. पूरा जोर इस बात पर था कि लोगों में दहशत कायम हो. तब आगे आए बाबा राघव दास. इतिहास कार बताते हैं कि बाबा राघव दास ने 11 फरवरी 1923 को इस फैसले के विरोध में चौरीचौरा में सभा की. उन्होंने लोगों से शांति बनाए रखने के लिए अपील की और जोर देकर कहा कि सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ेगा.
बाबा राघव दास ने दिया क्रांतिकारियों का साथ
अब जरूरत थी कि अंग्रेजों के कानून को कानूनी दांव पेंच से ही हराया जाए. इसके लिए चाहिए था एक ऐसा कानून विशेषज्ञ जो क्रांतिकारियों का केस भी लड़े और उनके पक्ष को समझे भी. अंग्रेज वकीलों से इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती थी. इस ऊहापोह की स्थिति से बाहर निकालने आए महामना पं. मदन मोहन मालवीय. मालवीय इलाहाबाद में प्रैक्टिस कर रहे थे.
अंग्रेजों की वकालत के आगे उनका बड़ा नाम हो चुका था. बाबा राघवदास ने उनसे ही अदालत में क्रांतिकारियों का पक्ष रखने की अपील की. मालवीय ने अदालत में क्रांतिकारियों का केस लड़ा और यह उनके जीवन के सफलतम केस में से एक बन गया. उन्होंने मृत्युदंड की सजा पाए 114 लोगों में से 95 लोगों की सजा माफ कराई. हालांकि 19 क्रांतिकारियों की फांसी की सजा बरकरार रही.
महामना मालवीय ने लड़ा था केस
फांसी की सजा पाए 19 क्रांतिकारियों की तरफ से दया याचिका दायर की गई, लेकिन 1 जुलाई 1923 को दया याचिका अस्वीकार कर दी गई. चौरी चौरा काण्ड के आरोप में देश की अलग-अलग जेलों में बंद 19 क्रांतिकारियों को 2 जुलाई 1923 को फांसी दी गई. यह फांसी भी अंग्रेजों का अमानवीय चेहरा ही दिखाती है. अंग्रेजों ने सभी क्रांतिकारियों को फांसी देकर जेल में शव जिला दिए और मुस्लिम क्रांतिकारियों को जेल में ही दफना दिया. परिवार वालों को न तो उनके चेहरे को देखने को मिले न ही उनके सामान लौटाए गए.
एक खास तथ्य, सरकार हटाएगी कांड शब्द
गोरखपुर और इसके आस पास रहने वाले लोग चौरी-चौरा के नाम को भी खूब समझते हैं. हालांकि इतिहास की किताबों और यहां तक दुनियाभर में चौरी-चौरा एक ही स्थान के तौर पर मशहूर हो गया है. असल सच यह है कि 1922 में चौरी-चौरा दो गांव थे. 1885 में यहां रेलवे स्टेशन बनाया गया था.
यहां एक मालगोदाम का नाम चौरी-चौरा था, क्योंकि यह दोनों के बीच में था. मालगोदाम बनने के बाद यहां चौरा गांव की ओर बाजार लगना शुरू हो गया था. 1857 की क्रांति के बाद यहां चौरा गांव में तृतीय श्रेणी का थाना बनाया गया था. इसी थाने में 4 फरवरी 1922 को आग लगा दी गई थी. जिसके बाद चौरी-चौरा के साथ कांड शब्द जुड़ गया. हालांकि अब सरकार का कहना है कि वह इस कांड शब्द को हटाएगी.
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