सनातन धर्म का पालन करिए, आपका भला स्वयं ही हो जाएगा
धर्मो रक्षति रक्षित: यानी आप धर्म की रक्षा करें, धर्म आपकी रक्षा करेगा. ये हम सबने कभी ना कभी जरुर सुना होगा. दरअसल धार्मिक नियमों की स्थापना ही मनुष्य मात्र के भले के लिए की गई है. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. जब आप धर्म के सनातन नियमों का पालन करते हैं, तो स्वयं ही लाभान्वित होने लगते हैं.
हमने देखा है कि सनातन धर्म का पालन करने वाले बुद्धिमान व्यक्ति स्वयं को प्रयत्नपूर्वक विभिन्न प्रकार के नियमों में खुद को बांधते हैं. समय पर ध्यान, पूजा, उपासना, व्रत आदि आदि.. अक्सर तथाकथित आधुनिक जीवन पद्धति के हिमायती इसका मजाक उड़ाते हुए दिखाई देते हैं. उन्हें लगता है स्वच्छंदता ही सुख है. लेकिन ऐसा है नहीं.
कोई और हमारे लिए नियम बनाए इससे बेहतर हैं कि हम ही अपने लिए नियम तय कर लें
दरअसल धार्मिक नियमों के पालन के पीछे उद्देश्य का है, अपने जीवन को संयमित करते हुए जीवन के लक्ष्य तथा वास्तविक सुख के साधन को प्राप्त करना. वास्तविक सुख का साधन तो धर्म-कर्म और अध्यात्म से ही प्राप्त होता है. क्योंकि यह मनुष्य को सभी सुखों के आधार ईश्वर से जोड़ता है.
सिर्फ सुखों के पीछे भागने से सुख की प्राप्ति नही होती. बल्कि कई बार घोर दुख का भी सामना करना पड़ता है. लेकिन सनातन धर्म के नियम हमारा स्वतः उपकार करते हैं.
धर्मनिष्ठ व्यक्ति का स्वतः उपकार कुछ इस तरह होता है.
जीवन को सुव्यवस्थित करना ही साधना है. जहाँ कहीं अव्यवस्था पाएं तय मानिए वहां साधना नहीं है. बस कामचलाऊ व्यवस्था में लोग दिन काट रहे हैं. साधना से मन सधता है और सधा मन सधे हुए कार्य करता है. क्योंकि मन को साधना ही सुख का आधार है. यही शांति और सुख के मार्ग की शुरुआत है. सुख और दुख मन से ही संचालित होते हैं.
धर्म को धारण करने से सुख का मार्ग खुलता है
जिन नियमों को हम धारण करते हैं वही धर्म है. जो नियमों को पालन नहीं करता और जिस व्यक्ति में टालमटोल का रोग लग गया जीवन में उसके सब काम अधूरे पड़े रह जाते हैं. यद्यपि ऐसे लोग हर समय व्यस्त रहते दिखाई पड़ते हैं, फिर भी अपना काम पूरा नहीं कर पाते. कामों का बोझ उनके सिर पर लदा रहता है और वे उससे डरते हुए कामों को आगे धकेलने की कोशिश करते रहते हैं. ऐसे लोगों के कल्याण का एक ही रास्ता है उन्हें नियमों में बांधकर संतुलित करो. उन्हें व्यवस्थित करने के लिए उन्हें धार्मिक नियमों के बंधन में बांध दिया जाए. जैसे ही जीवन में व्यवस्था आएगी, उन्नति का मार्ग स्वयं ही प्रशस्त हो जाएगा.
खुद ही आपका उपकार कर देता है धर्म
धर्मनिष्ठ व्यक्ति तो स्वतः संतुलित नियमों में बंधा होता है. उसे इसके लिए अतिरिक्त प्रयत्न की ज़रूरत ही नहीं. उसका स्वतः उपकार होता रहेगा.
धर्मनिष्ठ व्यक्ति का स्व अनुशासन ही उसका मार्ग प्रशस्त करते चला जाता है. उसे किसी बाहरी बंधन की आवश्यकता नहीं होती.
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