नई दिल्लीः अस्ताचल गामी सूर्य विदा ले रहा था. सागर तट के एक ओर जहां पृथ्वी और आकाश के छोर मिलकर एक हो जाते हैं सूर्यदेव रुके और एक बार फिर पृथ्वी की ओर देखा. देवी संध्या भी अपना आंचल पसारकर और तारों के श्रृंगार से सुसज्जित द्वार पर खड़े होकर भगवान भुवन भास्कर की प्रतीक्षा कर रही थीं.


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सहसा सूर्यदेव ने देखा धरती पर किसी माता ने तुलसी के समीप एक दीपक जला दिया और उन्हें प्रणाम किया. अस्ताचल गामी सूर्य को किया गया प्रणाम देवी आदिशक्ति  तक पहुंचने का माध्यम बना. 


सूर्य-चंद्र हैं प्रत्यक्ष देवता
सृष्टि व्यवस्था की शुरुआत से सूर्य-चंद्र समस्त संसार के सामने जागृत देव की भूमिका में रहे हैं. यह दोनों दिखाई भी देते हैं और परमात्मा की जिस असीम शक्तियों का वर्णन किया जाता है उसका प्रतिनिधित्व भी सूर्य व चंद्र की रश्मियां करती हैं.



जहां एक और सूर्य देव अक्षय प्रकाश औऱ ऊर्जा के स्त्रोत हैं वहीं चंद्र देव की ओस कण में भीगी रश्मियां अमृत तुल्य हैं. सूर्य देव को दिया गया अर्घ्य भगवान विष्णु को प्राप्त होता है. इस तरह श्रद्धालु को जगतपिता की कृपा भी प्राप्त होती है. 


सूर्य षष्ठी व्रत और छठ माता
भगवान को अत्यंत प्रिय कार्तिक मास में ही सूर्य षष्ठी व्रत का उत्सव बड़े ही धूमधाम से उत्तर प्रदेश-बिहार व अब उत्तर भारत के कई हिस्सों में मनाया जाने लगा है. लोक भाषा में छठ पूजा के नाम से प्रसिद्ध यह पर्व सूर्य देव, छठ माता, नदी माता, देवी अन्नपूर्णा और प्रकृति के रूप में वसुधा (धरती) की पूजा के लिए जाना जाता है. 



यह प्रकृति के उसके अक्षय भंडार से मानव समाज को पोषित करने के लिए उनका आभार जताने का सात्विक दिन है. प्रकृति का स्वरूप और त्याग की पराकाष्ठा एक मां के समान है इसलिए लोक व्यवहार में सूर्यषष्ठी व्रत छठी माता की पूजा का दिन है. 


छठ पूजा के दौरान ऐसे कई गीत कानों में मिश्री घोलते हैं जो छठ माता को संबोधित किए जाते हैं.


काच ही बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए,
चल$ छठ माई के दुअरिया, बहंगी लचकत जाए. 


वास्तव में कौन हैं छठ माता
हरि अनंत हरि कथा अनंता. प्रभु के जितने स्वरूप उतनी कथाएं. देवी आदिशक्ति जो कि त्रिभुवन सुंदरी हैं, उनकी भी महिमा ऐसी ही है. देवी भागवत के अनुसार, त्रिदेव देवी आदिशक्ति की ही प्रेरणा हैं. नवरात्र में हम देवी के जिन नवस्वरूपों का पूजन करते हैं, उनमें से छठवां स्वरूप देवी कात्यायनी का है.



ऋषि कात्यायन के घर जन्म लेकर असुरों का संहार करने वाली देवी कात्यायनी कहलाईं. यही कात्यायनी माता छठी मइया कहलाती हैं. मानव समाज व समस्त सृष्टि उनकी संतान है, और छठ माता के रूप में वह इनका पोषण करती हैं. देवी शताक्षी और शाकुंभरी इन्हीं की शक्तियां हैं जो रस, जल और शाक-सब्जियों से पोषण देती हैं. 


सूर्य देव की बहन देती हैं आरोग्य का वरदान
इसके अलावा सविता देव सूर्य की बहन को पुराणों में देवसेना कहा गया है. यह देवसेना विजय की देवी भी हैं. इनके ही कारण देवताओं का समस्त बल है. जो उन्हें आरोग्य प्रदान करता है और युद्ध में विजय दिलवाता है.



माताएं सूर्य देव की आराधना करके अपनी संतान के लिए देवसेना माता की ही कृपा मांगती हैं. प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इस देवी का एक प्रचलित नाम षष्‍ठी है. भगवान सूर्य को यह तिथि प्रिय है. पुराणों के अनुसार, ये देवी सभी बालकों-संतानों की रक्षा करती हैं और उन्‍हें लंबी आयु प्रदान करती हैं. आज भी ग्रामीण समाज में बच्‍चों के जन्‍म के छठे दिन षष्‍ठी पूजा या छठी पूजा का प्रचलन है. 


ब्रह्मवैवर्त पुराण में है वर्णन
ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खंड में बताया गया है कि सृष्‍ट‍ि की अधिष्‍ठात्री प्रकृति देवी के एक प्रमुख अंश को ‘देवसेना’ कहा गया है. षष्‍ठी देवी को ‘ब्रह्मा की मानसपुत्री’ भी कहा जाता है. 
एक श्लोक में कहा गया है. 
'षष्‍ठांशा प्रकृतेर्या च सा च षष्‍ठी प्रकीर्तिता।
बालकाधिष्‍ठातृदेवी विष्‍णुमाया च बालदा।।
आयु:प्रदा च बालानां धात्री रक्षणकारिणी।|
सततं शिशुपार्श्‍वस्‍था योगेन सिद्ध‍ियोगिनी।।"


कार्तिकेय के जन्म से जुड़ी कथा
महादेव और पार्वती के पुत्र की कथा भी छठ व्रत से जुड़ती है. महादेव और पार्वती के तेज अंश को सुरक्षित करने के लोभ में देवता उसे उठा तो लाए, लेकिन उस तेज को सह न सके. इस क्रम में उन्होंने इसे पृथ्वी को दिया, पृथ्वी ने इसे गंगा को दिया.



गंगा भी इस तेज को न संभाल सकीं और उनके हाथ से छूटकर तेजपुंज एक सरकंडे पर गिरा और छह भागों में बंट गया. वहीं पास में देवलोक की छह कृत्तिकाएं स्नान कर रही थीं. उन्होंने तेज चमक के आकर्षण में उन पुंजों को हाथ में लिया तो वह छह बालक बन गए. 


कृत्तिकाओं ने उन छह बालकों दुलार किया, दूध पिलाया और एक साथ रखा तो वह एक बालक बन गया. कृत्तिकाओं के पालन के कारण यह बालक कार्तिकेय कहलाया. आज भी उन्हीं कृत्तिका माताओं की स्मृति में माताएं-बहनें अपनी संतान के लिए छठी माता का व्रत रखती हैं. 


व्रत की हो चुकी है शुरुआत
18 नवंबर को नहाइल-खाइल से व्रत की शुरुआत हो चुकी है. यह उत्सव संपूर्ण परिवार की समृद्धि का उत्सव है. इसमें सभी का कुछ न कुछ योगदान होना आवश्यक होता है. धन से श्रम से श्रद्धा से, सात्विकता से इस व्रत का पालन करने की परंपरा रही है. प्रकृति के महत्व को जीवित रखने की प्रेरणा देने वाला यह व्रत शुभफल दायी बने, यही कामना है. 


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