Dhanteras Special: चाणक्य नीति और पंचतंत्र में बताया गया है धन-संपदा का महत्व, यहां जानिए
प्रसिद्ध लोकोत्ति है कि चोरी का माल मोरी (नाली) में जाता है. इसलिए सिर्फ शुभ कर्मों के द्वारा और ईमानदारी से पवित्र धन अर्जित करने की बात कही गई है. ऐसा ही धन संपत्ति के रूप में आगे जुटता चला जाता है.
नई दिल्लीः कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को देश धनत्रयोदशी, धनतेरस मना रहा है. भारतीय समाज में धन या अर्थ उन चार भौतिक उद्देश्यों में शामिल है, जिसके लिए मानव जन्म होता है. यह हैं धर्म, अर्थ काम और मोक्ष. बताया गया है कि धर्म तो जीवन का आधार है ही लेकिन धन ही है जो धर्म को भी संबल दिए रहता है.
वैदिक मान्यताओं में धन-संपत्ति स्वयं लक्ष्मी स्वरूपा है. लक्ष्मी धन की देवी हैं. ऐसे में धनत्रयोदशी के दिन लोग सोने-चांदी के तौर पर संपत्ति व धन अर्जित करते हैं.
कैसा होना चाहिए अर्जित धन?
लेकिन, इसका तात्पर्य यह बिल्कुल नहीं कि धन का महत्व अधिक है तो वह किसी भी तरीके से अर्जित किया जाए. चोरी-रिश्वत, लूट, या डरा-धमककार भी धन अर्जित किया जा रहा है. लोग बेईमान भी कर रहे हैं. लेकिन ऐसे धन का पूरी तरह निषेध बताया गया है.
प्रसिद्ध लोकोत्ति है कि चोरी का माल मोरी (नाली) में जाता है. इसलिए सिर्फ शुभ कर्मों के द्वारा और ईमानदारी से पवित्र धन अर्जित करने की बात कही गई है. ऐसा ही धन संपत्ति के रूप में आगे जुटता चला जाता है.
हमारे वेद-पुराण विशेषज्ञ और नीतिवान विद्वानों ने हालांकि कभी भी धन को सर्वोपरि नहीं माना है, लेकिन कुछ ऊपर तो माना ही है. उन्होंने सामाजिक में जरूरी और धन के महत्व को समझाने के लिए अपनी कई रचनाओं में इसकी उक्ति की है. संस्कृत भाषा में लिखे गए साहित्य ऐसे उदाहरणों से भरपूर हैं.
चाणक्य ने जरूरी बताया है धन
चाणक्य आचार्य ने अर्थशास्त्र का लेखन करते हुए धन के विषय में कहा है कि
यस्यार्थस्तस्य मित्राणि यस्यार्थस्तस्य बान्धवाः,
यस्यार्थः स पुमांल्लोके यस्यार्थः स च जीवति.
जिसके पास धन होता है उसी से अन्य लोग मित्रता करते हैं, अन्यथा उससे दूर रहने की कोशिश करते हैं. निर्धन से मित्रता कोई नहीं करना चाहता.
इसी प्रकार जो धनवान हो उसी के बंधु-बांधव होते हैं. नाते-रिश्तेदार धनवान से ही संबंध रखते हैं, अन्यथा उससे दूरी बनाए रहने में ही भलाई देखते हैं. जिसके पास धन हो वही पुरुष माना जाता है यानी उसी को प्रतिष्ठित, पुरुषार्थवान, कर्मठ समझा जाता है.
पंचतंत्र में भी है धन के महत्व का वर्णन
पंचतंत्र की कहानियां लिखते हुए आचार्य विष्णु शर्मा ने भी कई अलग-अलग प्रसंगों में धन के महत्व की व्याख्या की है. एक स्थान पर मित्रलाभ खंड में वह लिखते हैं कि
अनादिन्द्रियाणीव स्युःश कार्याण्यखिलान्यपि,
एतस्मात्कारणाद्वित्तं सर्वसाधनमुच्यते.
भोजन का जो संबंध इंद्रियों के पोषण से है वही संबंध धन का समस्त कार्यों के संपादन से है. इसलिए धन को सभी उद्येश्यों की प्राप्ति अथवा कर्मों को पूरा करने का साधन कहा गया है.
आचार्य विष्णु शर्मा ने एक और स्थान पर कहा है कि
अर्थार्थी जीवलोकोऽयं श्मशानमपि सेवते.
त्यक्त्वा जनयितारं स्वं निःस्वं गच्छति दूरतः
यह लोक धन का भूख होता है, अतः उसके लिए श्मशान का कार्य भी कार्य करने को तैयार रहता है. धन की प्राप्ति के लिए तो वह अपने ही जन्मदाता हो छोड़ दूर देश भी चला जाता है. बिना धन के जीवन निर्वाह नहीं हो सकता है. धनोपार्जन के लिए मनुष्य को निम्न कार्य भी करने पड़ते हैं तो कई बार देश छोड़कर ही जाना पड़ता है.
धन के महत्व की यह सूक्ति भी देखिए
इस तरह संस्कृत का एक और सूत्र श्लोक कहता है कि
इह लोके हि धनिनां परोऽपि स्वजनायते.
स्वजनोऽपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते.
इस संसार में धनिकों के लिए पराया व्यक्ति भी अपना हो जाता है. और निर्धनों के मामले में तो अपने लोग बुरे या दूरी बनाए रखने वाले हो जाते हैं. अगर आप अपनी धनसंपदा खो बैठते हैं तो आपके निकट संबंधी भी आपके नहीं रह जाते हैं.
आज के दौर में सटीक है यह श्लोक
संस्कृत में एक उक्ति है: धनेन अकुलीनाः कुलीनाः भवन्ति धनम् अर्जयध्वम् यानी कि धन के बल पर अकुलीन जन भी कुलीन हो जाते हैं. इसी तरह एक और श्लोक में कहा गया है
पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्यो९पि गम्यते,
वन्द्यते यदवन्द्योऽपि स प्रभावो धनस्य च.
धन का प्रभाव यह होता है कि जो सम्मान के अयोग्य हो उसकी भी पूजा होती है, जो पास जाने योग्य नहीं होता है उसके पास भी जाया जाता है, जो वंदना (प्रशंसा) का पात्र नहीं होता उसकी भी स्तुति की जाती है.
समाज में सामान्य अप्रतिष्ठित व्यक्ति ढेर-सी धनसंपदा जमा कर लेता है तो वह सामाजिक प्रतिष्ठा एवं सम्मान का हकदार हो जाता है. व्यक्ति जब दुर्भाग्य से अपनी संपदा खो बैठता है तो उसे सामाजिक प्रतिष्ठा भी गंवानी पड़ती है.
यह है जीवन में धन का महत्व, इसलिए धम कमाइये जरूर, लेकिन पूरी ईमानदारी से.
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