नई दिल्लीः Haridwar Mahakumbh 2021 के जिस पवित्र अमृत में हम आध्यात्म की डुबकी लगा रहे हैं. उसकी परंपरा इतनी आसान नहीं थी. इसके पीछे था एक ऋषि की श्राप जो आज वरदान बनकर हमारे सामने है. देवलोक से निकली इस परंपरा की धारा में मानवता के पुण्य का वरदान तो है ही, साथ ही यह नीति और नैतिकता की शिक्षा का आधार भी है. 


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ऐसे शुरू हुई कथा
स्वर्गलोक की राजधानी अमरावती में चारों ओर शांति छाई थी. पुष्पों में मादक सुगंध थी और देवनदी गंगा की लहरें भी कल-कल बहकर वातावरण को सुरम्य बना रही थीं.  कामदेव और उनकी पत्नी रति के अंश भंवरा-तितली हर ओर नईं रंगत भर देते तो और हर दिशा में नया संगीत. इन सबका संयोजन इतना खूबसूरत होता कि कई बार गंधर्व अपनी तानों का गान छोड़कर उनका संगीत सुनने लग जाते थे. 



देवताओं के तो पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे और उनके अधिपति इंद्र तो राग रंग में ऐसे डूबे थे कि अब उन्हें ज्ञात ही नहीं था कि संसार के प्रति भी उनका कुछ दायित्व है. राग भैरव सुनकर उनकी पलकें खुलतीं, भीमपलासी से वह दोपहर का शृंगार करते और रात में राग राजेश्वरी के भारी आलाप-तान से उनकी आंखें बोझिल होने लगतीं. रही-सही कसर वारुणि के पेय पूरी कर देते. एक बारगी तो यह सब सुख के चिह्न थे, लेकिन असल में यह आने वाली विपत्ति का शोर था. 


देवराज भूल बैठे थे अपना कर्तव्य
इन सबके पीछे का कारण था देव-दानवों का वह युद्ध, जिसमें देवराज इंद्र ने विजय पाई थी. हालांकि उन्हें विजय त्रिदेवों (ब्रह्नमा-विष्णु-महेश) के कारण मिली थी, लेकिन विजय का अभिमान ऐसा हो गया कि वह अब सोच बैठे थे कि अब कोई आक्रमण होगा ही नहीं. देवगुरु बृहस्पति की चिंता भी यही थी. वह भविष्य की आशंका से कम चिंतित थे, लेकिन वर्तमान में संकट यह था कि राग-रंग में डूबे देवराज ने कई पक्षों से ग्रहमंडल की बैठक ही नहीं की थी.



सप्तऋषियों ने इसके लिए चिंता जताई थी, लेकिन अभी हुए युद्ध के कारण वह भी इस शांति को भंग नहीं होने देना चाहते थे. लेकिन कई पक्ष बीत जाने के बाद अब उन्हें चिंता होने लगी थी. ग्रहमंडल की बैठक नहीं हुई तो नक्षत्रों का सारा विधान रुक सकता था. संतुलन बिगड़ सकता था. इस चिंता को दूर करने ही देवराज इंद्र से बैठक बुलाने का अनुरोध करने ही ऋषि दुर्वासा सप्तऋषियों के प्रतिनिधि बनकर देवलोक की ओर बढ़े. 


इंद्र को समझाने चले ऋषि दुर्वासा
ऋषि दुर्वासा को इंद्र के अभिमान का अंदाजा तो था, लेकिन फिर भी वह सोच रहे थे संकट को समझाने पर वह इस स्थिति को जरूर समझ लेंगे. फिर उन्होंने अपनी प्रिय बैजयंती पुष्पों की माला भी साथ ले ली. इसकी सुगंध तीनों लोकों तक फैलती थी और दिव्य ऐसी कि पहनने वाले को सम्मोहित जैसा कर दे.



ऋषि ने सोचा कि इंद्र अगर उनकी बात न भी समझें तो भी इस दुर्लभ उपहार से उन पर उनकी बात सुनने का एक दबाव जरूर पड़ेगा. इन्हीं बातों को सोचते-गुनते ऋषि देवलोक की पहुंच गए. 


इंद्र ने ऋषि का कर दिया अपमान
देवलोक पहंचे दुर्वासा को प्रारंभ से ही अनिष्ट की आशंका लगने लगी. वह इंद्र के मन में जगे अभिमान को समझ गए थे. द्वारपाल के सूचना दिए जाने के बाद भी वह अभी तक उन्हें स्वागत सहित सभा में ले जाने नहीं पहुंचे थे. खैर, ऋषि ने इस बात को तुच्छ मानकर विचारों से झटक दिया. सभा मंडल में पहुंचे तो वहां चारों ओर सर्फ मदिरा के कारण भ्रम का ही वातावरण बना हुआ था. देवराज ने दुर्वासा ऋषि को औपचारिकता वश प्रणाम ही किया. फिर भी ऋषि ने आशीष में हाथ उठाया और अपनी लाई पुष्पमाला उतारकर भेंटस्वरूप दे दी.



इंद्र मुस्कुराए. उसे महकते हुए कहा- क्या ऋषिवर को यहां सुगंध की कुछ कमी लगी. ऐसा कहकर इन्द्र ने अभिमानवश उस पुष्पमाला को ऐरावत के गले में डाल दिया और ऐरावत ने उसे गले से उतारकर अपने पैरों तले रौंद डाला. अपनी भेंट का अपमान देखकर महर्षि दुर्वासा को बहुत क्रोध आया. उन्होंने इन्द्र को लक्ष्मीहीन होने का श्राप दे दिया. 


इसलिए लगता है Mahakumbh
 महर्षि दुर्वासा के श्राप के प्रभाव से लक्ष्मीहीन इन्द्र दैत्यों के राजा बलि से युद्ध में हार गए. इसके साथ ही संसार से भी लक्ष्मी समेत सारे वैभव और औषधि लुप्त हो गई. राजा बलि ने तीनों लोकों पर अपना अधिकार कर लिया. हताश देवताओं को अपनी भूल का अहसास हुआ और वे श्रीहरि के पास पहुंचे.



तब श्रीहरि ने उन्हें समुद्र मंथन का मार्ग बताया. इसी मंथन से अमृत निकला, जिसकी छीनाझपटी में वह देश के चार तीर्थस्थानों पर गिरा. हरिद्वार इनमें से एक है, जहां यह Mahakumbh आयोजित होता है. 


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