उज्जैन: देवाधिदेव महादेव भगवान शंकर की नगरी कही जाने वाली अवंतिका नगरी या उज्जैन  अपने आप में बहुत अद्भुत है. शिप्रा नदी के किनारे बसे और मंदिरों से सजी इस नगरी को सदियों से महाकाल की नगरी के तौर पर जाना जाता है.


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हालांकि हजारों साल के कालखंड में उज्जैन नगरी को अवंतिका, कनकश्रृंगा, कुशस्थली, भोगस्थली, अमरावती जैसे कई  नामों से जाना गया. 


आकाश के धरती के मध्य में स्थित है उज्जैन


महाकाल की भूमि उज्जैन को लेकर तमाम रहस्य हैं. कहा जाता है कि उज्जैन पूरे आकाश का मध्य स्थान है.  यानी यहीं आकाश का केंद्र है. साथ ही उज्जैन पृथ्वी का भी केंद्र भी है.  यानी यहीं वो जगह है जहां से पूरे ब्रह्माण्ड का समय निर्धारित होता है. इसी जगह से ब्रह्माण्ड की कालगणना होती है. समय का केंद्र मानी जाने वाली इस धरती को इसीलिए महाकाल की धरती कहा जाता है.



महाकाल पृथ्वी लोक के अधिपति हैं, तीनों लोकों के और सम्पूर्ण जगत के अधिष्ठाता है. कई दिव्य शास्त्रों और पुराणों में उनका ज़िक्र किया गया है और कहा गया है उनसे ही कालखंड, काल सीमा और काल विभाजन जन्म लेता है और उन्हीं से इसका निर्धारण भी होता है. यानी उज्जैन से ही समय का चक्र चलता है. पूरे ब्रह्माण्ड में सभी चक्र यहीं से चलते हैं. चाहे पृथ्वी का अपनी धुरी पर घूमना हो, चंद्रमा का पृथ्वी का चक्कर लगाना, पृथ्वी का सूर्य का चक्कर लगाना हो या फिर आसमान में किसी प्रकार का चक्र हो यह सब क्रियाएं महाकाल को साक्षी मानकर होती हैं.


महाकाल करते हैं भस्म से स्नान
भस्म से स्नान करनेवाले महाकाल की विशिष्ट आराधना यहीं होती है. आदिदेव शंकर को भस्म रमाना बेहद पसंद है. इसके पीछे का राज़ भी बेहद गहरा है. पुराणों में मोक्ष देनेवाली यानी जीवन और मृत्यु के चक्र से छुटकारा दिलानेवाली सप्तनगरी का ज़िक्र है और उन सात शहरों में एक नाम उज्जैन का भी है. दूसरी तरफ महादेव का वो आयाम है जिसे महाकाल कहते हैं, जो मुक्ति की ओर ले जाता है. यहां उज्जैन में कालभैरव हैं, गढ़कालिका हैं.  जिसमें काल का ज़िक्र आता है और काल यानी समय, जो उस समय के भी स्वामी हैं वो है महाकाल. 



महाकाल रूप में अगर शिव समय के स्वामी हैं तो काल भैरव के रूप में वो समय के विनाशक हैं.  इन्ही सब के इर्द गिर्द वो रहस्य छिपा है जिसमें पता चलता है कि महादेव को राख या भस्म क्यों पसंद है, क्यों उनकी आराधना में भस्म का स्नान या भस्म का तिलक इस्तेमाल होता है. महाकाल की ऐसी आराधना कहीं और देखने को नहीं मिलती. भस्म और महादेव का क्या नाता है? हालांकि ये रहस्य आज भी रहस्य है लेकिन भस्म को लेकर कुछ सिद्धांत ज़रूर दिए गए हैं.


सती से शिव के प्रेम का प्रतीक है भस्म
उज्जैन नगरी हिन्दू धर्म के तमाम पंथों का प्रेरणास्रोत है. उन्ही में से एक संप्रदाय है जो मच्छेन्द्र नाथ और गोरखनाथ से होते हुए नवनाथ के रूप में प्रचलित हुआ. इस संप्रदाय के साधु भी अक्सर भस्म रमाये मिलते हैं. शिव का पसंदीदा भस्म साधु सन्यासियों के लिए प्रसाद है और वो अपनी जटाओं से लेकर पूरे शरीर में धुणे की भस्म लगाए मिलते हैं.



इनसे अलग शिव के बारे में एक मान्यता ये है कि भगवान शंकर की पहली पत्नी सती के पिता ने भगवान शंकर का अपमान किया जिससे आहत होकर सती यज्ञ के हवनकुंड में कूद गईं, और शिव क्रोध में आ गए. शिव सती के मृत शरीर को लेकर पूरे ब्रह्माण्ड में घूमने लगे. ऐसा लगा कि शिव के क्रोध से ब्रह्माण्ड का अस्तित्व खतरे में है. श्री हरि ने शिव को शांत करने के लिए सती को भस्म में बदल दिया और शिव ने अपनी पत्नी को हमेशा अपने साथ रमा लेने के लिए उस भस्म को अपने तन पर मल लिया.



महादेव की पहली पत्नी सती को लेकर एक अलग मान्यता भी है. इसके अनुसार श्री हरि ने देवी सती के शरीर को भस्म में नहीं बदला बल्कि उसे छिन्न भिन्न कर दिया. कहते हैं पृथ्वी पर 51 जगहों पर उनके अंग गिरे, जहां शक्तिपीठों की स्थापना हुई. जिसमें से एक शक्तिपीठ उज्जैन में भी है. जिसे वर्तमान काल में हरिसिद्धी माता के मंदिर के नाम से जाना जाता है. 


अब बात ये है कि अगर ये पौराणिक कथा सत्य है फिर देवाधिदेव शिव के भस्म रमाने का रहस्य क्या है? क्यों भोलेनाथ के महाकाल स्वरूप को भस्म का स्नान कराया जाता है?


मोह-माया से विरक्ति के लिए भस्म का श्रृंगार
एक मान्यता ये है कि शिव अपने शरीर पर चिता की राख मलते हैं और संदेश देते हैं कि आखिर में सब कुछ राख हो जाना है, ऐसे में सांसारिक चीज़ों को लेकर मोह-माया के वश में ना रहें और भस्म की तरह बनकर स्वयं को प्रभु को समर्पित कर दें.


भस्म विध्वंस का भी प्रतीक है. क्योंकि ब्रह्मा अगर सृष्टि के निर्माणकर्ता हैं और विष्णु पालनकर्ता तो महेश को सृष्टि का विनाशक माना जाता है. जब सृष्टि में नकारात्मकता बहुत ज़्यादा बढ़ जाती है तो शिव संहारक के रूप में आते हैं और सब कुछ विध्वंस कर डालते हैं. तो मान्यता ये भी है कि भस्म उस विध्वंस का प्रतीक है जिसकी याद शिव सबको दिलाते हैं कि सभी सद्कर्म करें अन्यथा अंत में वो सब राख कर देंगे.



भस्म से शिव का ये रिश्ता सिर्फ मान्यताओं में है, हालांकि इसका रहस्य आज भी बरकरार है, हालांकि महाकाल को उज्जैन नगरी का राजा मानते हैं और इसे भी लेकर एक ऐसा राज़ है जिसे आज भी अवंतिका के लोग महसूस करते हैं.


उज्जैन के एकमात्र राजा हैं महाकाल 
भारतीय जनश्रुतियों में सबसे प्रचलित कथा साहित्य विक्रम- बेताल और सिंहासन बत्तीसी की कहानियां है. उज्जैन के राजा विक्रमादित्य से जुड़े ऐसे कई रहस्यों को इस नगरी ने समेट रखा है. कहा जाता है कि राजा विक्रमादित्य ने जब से 32 बोलनेवाली पुतलियों से जड़े हुए अपने सिंहासन को छोड़ा, तो उनके शासन के बाद से यहां कोई भी राजा रात में रुक नहीं सकता.



उज्जैन के एक ही राजा हैं और वो हैं कालों के काल महाकाल. पौराणिक तथा और सिंहासन बत्तीसी की कथा के मुताबिक राजा भोज के काल से ही यहां कोई राजा नहीं रुकता है. यहां तक कि आज के समय में यहां पर ना तो सीएम, पीएम, राष्ट्रपति या कोई जनप्रतिनिधि यहां रात में रुक नहीं सकता.


कहते हैं कि देश के चौथे प्रधानमन्त्री मोरार जी देसाई उज्जैन में एक रात रुके थे, अगले ही दिन उनकी सरकार चली गई. कर्नाटक में मुख्यमंत्री येदियुरप्पा उज्जैन में एक रात रुके और 20 दिन बाद ही येदियुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा.


इस मान्यता का राज़ क्या है किसी को नहीं पता. लेकिन ऐसी घटनाएं विवश कर देती हैं कि राजनीति और राजपरिवार से जुड़े लोग महाकाल की नगर सीमा में रात को बिल्कुल नहीं रुकते.



देश भर में भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग हैं उनमें से एक उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर में महाकाल के रूप में विराजमान है, ये दुनिया का इकलौता ज्योतिर्लिंग है जो दक्षिणमुखी है. माना जाता है कि दक्षिण दिशा मृत्यु यानी काल की दिशा है और काल को वश में करने वाले महाकाल हैं.


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