नवरात्रि विशेषः देवी कुष्मांडा, भगवती का वह स्वरूप, जो हैं सृष्टि की रचनाकार
जब इस संसार में सिर्फ अंधकार था तब देवी कूष्मांडा ने अपने ईश्वरीय हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी. यही वजह है कि देवी को सृष्टि के रचनाकार के रूप में भी जाना जाता है. इसी के चलते इन्हें `आदिस्वरूपा` या `आदिशक्ति` कहा जाता है. नवरात्र के चौथे दिन मां कूष्मांडा के पूजन का विशेष महत्व है.
नई दिल्लीः चैत्र नवरात्र के चौथे दिन मां दुर्गा के चौथे स्वरूप माता कूष्मांडा की पूजा की जाती है. देवी का यह स्वरूप सृजन का स्वरूप है. यही देवी जगत पालक श्री विष्णु की योगमाया भी हैं, जो उनकी निद्राकाल में उनके नेत्रों में निवास करती हैं. इस दौरान वह स्वयं सृष्टि का संचालन करती हैं.
जब इस संसार में सिर्फ अंधकार था तब देवी कूष्मांडा ने अपने ईश्वरीय हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी. यही वजह है कि देवी को सृष्टि के रचनाकार के रूप में भी जाना जाता है.
इसी के चलते इन्हें 'आदिस्वरूपा' या 'आदिशक्ति' कहा जाता है. नवरात्र के चौथे दिन मां कूष्मांडा के पूजन का विशेष महत्व है. पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार चौथे दिन मां कूष्मांडा की पूजा से श्रद्धालुओं को आयु, यश और बल की प्राप्ति होती है.
मां के कुष्मांडा नाम का तात्पर्य
'कु' का अर्थ है 'कुछ', 'ऊष्मा' का अर्थ है 'ताप' और 'अंडा' का अर्थ है 'ब्रह्मांड'. शास्त्रों के अुनसार मां कूष्मांडा ने अपनी दिव्य मुस्कान से संसार में फैले अंधकार को दूर किया था. चेहरे पर हल्की मुस्कान लिए माता कूष्मांडा को सभी दुखों को हरने वाली मां कहा जाता है. इनका निवास स्थान सूर्य है.
यही वजह है माता कूष्मांडा के पीछे सूर्य का तेज दर्शाया जाता है. मां दुर्गा का यह इकलौता ऐसा रूप है जिन्हें सूर्यलोक में रहने की शक्ति प्राप्त है. देवी को कुम्हड़े की बलि प्रिय है.
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अष्टभुजा देवी के रूप में होती है पूजा
चेहरे पर हल्की मुस्कान लिए मां कूष्मांडा की आठ भुजाएं हैं. इसलिए इन्हें अष्टभुजा भी कहा जाता है. इनके सात हाथों में क्रमशः कमंडल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, कलश, चक्र और गदा है. आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है. देवी के हाथ में जो अमृत कलश है उससे वह अपने भक्तों को दीर्घायु और उत्तम स्वास्थ्य का वरदान देती हैं. मां कूष्मांडा सिंह की सवारी करती हैं जो धर्म का प्रतीक है.
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विन्ध्य की पहाड़ी पर है मंदिर
मिर्जापुर की विन्ध्य पर्वत श्रृंखलाओं में देवी विन्ध्यवासिनी का मंदिर है. इसी पवित्र क्षेत्र से 3 किलोमीटर दूर मां अष्टभुजी देवी का मंदिर भी है. मंदिर परिसर में एक सीता कुंड है, साथ ही इसी के पास एक पातालपुरी मंदिर है जिसे पातालदेवी मंदिर कहा जाता है. नवरात्र के अवसर देवी के इस मंदिर में भारी भीड़ होती है.
देवी का यह अष्टभुजा स्वरूप ही कुष्मांडा स्वरूप है. कहा जाता है कि, अष्टभुजा मां के मंदिर के पास ही एक झरना बहता है. इस झरने का जल इस हद तक शुद्ध और लाभकारी है, कि इसके पीने से शरीर के तमाम रोग दूर हो जाते हैं.
श्रीकृष्ण की बहन हैं देवी अष्टभुजा
अष्टभुजा मां को भगवान श्रीकृष्ण की सबसे छोटी और अंतिम बहन माना जाता है. कहा जाता है, श्रीकृष्ण के जन्म के समय ही इन मां का जन्म हुआ था. इनके जन्म की सुनकर कंस इन्हें ले आया. कंस ने जैसे ही नवजात की हत्या के लिए इन्हें पत्थर पर पटका, वे उसके हाथों से छूटकर आसमान की ओर चली गईं.
जाते-जाते मां ने घोषणा भी कि थी, कि कंस तुझे मारने वाला (भगवान श्रीकृष्ण) इस युग में धरती पर आ चुका है. दरअसल जन्म से पहले कंस को अंतिम चेतावनी देने के लिए श्रीहरि के आदेश से ही उनकी नेत्रों में रहने वाली योगमाया ने पुत्री रूप में जन्म लिया था और बाद में अष्टभुजा देवी के रूप में विख्यात हुईं.