नई दिल्लीः क्रांति धरा का नाम लेने पर सहसा ही मेरठ का नाम ध्यान आता है और फिर सिलसिलेवार ढंग से मेरठ का काली पल्टन मंदिर का इतिहास सामने तैर जाता है. इतिहास में दर्ज है कि काली पल्टन के आंगन में बैठकर कितनी ही सारी क्रांतिकारी गतिविधियों की योजना बनाई गई थी.


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लेकिन मेरठ से लगभग 700 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर महानगर की भी क्रांतिगाथा में कम भूमिका नहीं रही है. यहां का तरकुलहा देवी मंदिर और माता के परम भक्त शहीद बंधू सिंह की कथा अमर है. 


तरकुलही माई की कथा
नवरात्र के इस मौके पर जिस देवी मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं उसका इतिहास बड़ा ही गौरवान्वित करने वाला है. इस मंदिर का नाम है तरकुलही देवी मंदिर. साथ ही यह मंदिर देश का ऐसा इकलौता मंदिर है जहां प्रसाद के रूप में आज भी मटन दिया जाता है. इसकी दीवारों पर क्रांतिकारियों का लहू तिलक लगा है और आंगन उनके कई गाथाओं का साक्षी है. 



गोरखपुर शहर से कुछ ही दूर थाना एरिया है गगहा. यह इलाका कभी दुर्गम जंगल था. 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम से पहले यहां पर अंग्रेजों की बलि चढ़ाई जाती थी. जंगल के बीच से यहां गुर्रा नदी होकर गुजरती थी. आज गुर्रा नदी अतिसीमित क्षेत्र में बहती है और विकास की बाढ़ में जंगल से किनारे होकर सिमट गई है.  


बंधू सिंह करते थे मां की पूजा
इसी बीहड़ जंगल में डुमरी रियासत के बाबू बंधू सिंह रहा करते थे. नदी के तट पर तरकुल (ताड़) के पेड़ के नीचे पिंडियां स्थापित कर वह देवी की उपासना किया करते थे. देवी चंडी बाबू बंधू सिंह कि इष्ट देवी थी. बंधू सिंह गुरिल्ला लड़ाई में माहिर थे, इसलिए जब भी कोई अंग्रेज उस जंगल से गुजरता, 



बंधू सिंह उसको मार कर उसका सर काटकर देवी मां के चरणों में समर्पित कर देते थे. तरकुल के पेड़ के नीचे विराजित देवी तरकुलहा थान या तरकुलही माई कहलाने लगीं. 


मां ने दिखाया चमत्कार
लगातार मुंह की खाने वाले अंग्रेजों ने छल से बंधू सिंह को पकड़ लिया. अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया जहां उन्हें फांसी की सजा सुनाई गयी, 12 अगस्त 1857 को गोरखपुर में अली नगर चौराहा पर सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटकाया गया. 



बताया जाता है कि इससे पहले अंग्रेजों ने उन्हें 7 बार फांसी पर चढ़ाने की कोशिश की लेकिन वे सफल नहीं हुए. हर बार ऐसा चमत्कार होता कि कभी रस्सी टूट जाती, तो कई बार अंग्रेज पेड़ की डाल पर फांसी चढ़ाते तो डाल टूट जाती थी. 


बना है शहीद बंधू सिंह स्मारक
कहते हैं कि इसके बाद बंधू सिंह ने स्वयं देवी मां का ध्यान करते हुए मन्नत मांगी कि मां, मुझे अपनी शरण में लो, बंधू सिंह की प्रार्थना पर देवी ने आठवीं शक्ति नहीं दिखाई तब अंग्रेज उन्हें फांसी पर चढ़ाने में सफल हो गए. अमर शहीद बंधू सिंह को सम्मानित करने के लिए यहाँ एक स्मारक भी बना हैं. 


मिलता है मटन का प्रसाद
यह देश का इकलौता मंदिर है जहाँ प्रसाद के रूप में मटन दिया जाता हैं. बंधू सिंह ने अंग्रेजो के सिर चढ़ा के जो बली कि परम्परा शुरू करी थी वो आज भी यहां हैं.॰ अब यहां पर बकरे कि बलि चढ़ाई जाती है उसके बाद बकरे के मांस को मिट्टी के बरतनों में पका कर प्रसाद के रूप में बाटा जाता हैं साथ में बाटी भी दी जाती हैं. 


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