राम मंदिर विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का क्या है नजरिया, यहां जानें
राम मंदिर फैसले पर आपने पहले बहुत सी कथा-कहानी कहीं न कहीं पढ़ी ही होगी, लेकिन इस मामले पर फैसले के बाद अब यह साफ करने का समय है कि आस्था और विश्वास से परे सुप्रीम कोर्ट ने पूरे केस के बारे में क्या और कैसे डील किया.
नई दिल्ली: अयोध्या राम मंदिर फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने पूरा फैसला सुना दिया है. मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने 5 बेंच की संवैधानिक पीठ को लीड करते हुए पूरा फैसला सुनाया. 1045 पेज के अपनी रिपोर्ट में सुप्रीम कोर्ट ने पूरे मामले की जानकारी देते हुए हर पक्ष की बात को रखा है. क्या था हर पक्ष का दावा सुप्रीम कोर्ट की नजर में इसकी जानकारी भी लेनी जरूरी है.
क्या कहना था हिंदू पक्ष का ?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह दो समुदायों के बीच का विवाद था जो जमीन पर मालिकाना हक से संबंधित है. हिंदु पक्ष का कहना था कि विवादित जमीन भगवान राम की जन्मभूमि है जो भगवान विष्णु के अवतार थे. जबकि मुस्लिम पक्ष का कहना था कि यह पहले मुगल शासक बाबर की बनाई गई मस्जिद की जगह है जिसे ढ़ाह दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने आगे इसका जिक्र करते हुए लिखा है कि हमारे देश पर पहले बहुत से आक्रांताओं ने आक्रमण किया है और ऐतिहासिक विरासतों को क्षति भी पहुंचाई गई है. लेकिन कानूनी तौर पर किस पक्ष का तर्क और प्रमाण सही है, फैसला उसी तर्ज पर हुआ है. सुप्रीम कोर्ट ने आगे लिखा है कि अदालत के सामने जो केस रखा गया उसमें मुगल काल, अंग्रेजी हुकूमत और समकालीन संवैधानिक हालात के साथ परोसा गया है. इसलिए कोर्ट ने पूरे मामले पर किसी भी फैसले से पहले सुनवाई के लिए 41 दिन लिए जिसमें तमाम मुद्दों और समीकरणों पर बहस-मुबाहिसें चली. इस विवाद पर 1950-89 के बीच चार अलग-अलग सूट पर अपील की गई. इससे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट के भारी-भरकम प्रमाण जो कागजी भी थे और बोले गए आधार पर भी, उस 4,304 पेज में 3 पक्षों में फैसले सुनाए गए.
गोपाल सिंह विशारद की क्या है भूमिका ?
विवादित जमीन पर 6 दिसंबर 1992 के पहले एक पुरानी मस्जिद थी. लेकिन हिंदु उसे रामजन्मभूमि मानते हैं जो भगवान राम का जन्मस्थान है. उनका मानना है कि उस जमीन पर मुगल बादशाह बाबर ने मंदिर तोड़ मस्जिद का निर्माण करा दिया था. जबकि मुस्लिम पक्ष का मानना है कि बाबरी मस्जिद का निर्माण खाली जमीन पर किया गया था. 1950 की एक सूट में हिंदू भक्त गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद के एक सिविल जज के समक्ष कहा कि यह आस्था और विश्वास से जुड़ा मामला है. वह मंदिर के मूर्तियों के पास पूजा करने के हकदार हैं. उसी वक्त निर्मोही अखाड़ा जो हिन्दुओं के ही एक धार्मिक पंथ रामनंदी बैरागी के उपासक हैं, उन्होंने भी पक्ष रखा कि 29 दिसंबर 1949 के पहले विवादित जमीन पर मंदिर थी. निर्मोही अखाड़ा शैव परंपरा के उपासक हैं जो भक्तों की सेवा करने का काम करते थे.
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सुन्नी वक्फ बोर्ड की क्या थी याचिका ?
तीसरा पक्ष उत्तर प्रदेश के सुन्नी वक्फ बोर्ड का भी है जो 1961 की याचिका में दावा किया कि मुगल शासक बाबर के कमांडर मीर बाकी ने बादशाह के आदेश पर मस्जिद का निर्माण कराया था जो खाली जमीन पर बनाया गया था. उनका कहना था कि 23 दिसंबर 1949 के पहले तक वहां नमाज पढ़ा जाता था. उन्होंने अपने पक्ष में लिखा कि इसके बाद वहां हिंदुओं के कुछ समूह ने मूर्तियां रख पूजा करनी शुरू कर दी जिसका मुख्य उद्देश्य इस्लामिक समुदाय के ढांचे को नष्ट करना था.
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तीनों ही याचिकाओं के अलावा हिंदु भक्त गोपाल सिंह विशारद की याचिका इलाहाबाद हाईकोर्ट में पहुंची जिसपर 30 सितंबर 2010 को कोर्ट के फुल बेंच ने फैसला सुनाया. उस फैसले में निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के दावे को खारिज कर दिया गया था. हाईकोर्ट ने 2:1 का अधिकार हिंदु और मुस्लिम पक्ष को दे दिया था, जिसमें सभी को एक तिहाई हिस्सा मिला था. इस फैसले से नाखुश तीनों पक्षों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और मामला फिर तनातनी का हो गया था. जिसपर 9 नवंबर की ऐतिहासिक सुबह सुप्रीम कोर्ट की 5 संवैधानिक पीठ ने रामजन्मभूमि न्यास को विवादित जमीन सौंप दी. पीठ ने 5-0 की सर्वसम्मति से यह फैसला सुनाया.