नई दिल्ली: Soap History: हम सभ लोग नहाने, फेस वॉश करने, कपड़े धोने, बर्तन धोने या अन्य किसी तरह की सफाई करने के लिए साबुन का इस्तेमाल करते हैं. यह हमारी डेली लाइफस्टाइल का जरूरी हिस्सा बना हुआ है. किसी भी चीज को साफ करने के लिए सबसे पहले हमारे साबुन का ही आइडिया आता है, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि आखिर साबुन का सबसे पहले इस्तेमाल कब और कहां किया गया था?  


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इस सभ्यता से पुराना है साबुन 
'अमेर‍िकन क्‍लीनिंग इंस्‍टीट्यूट' नाम की एक वेबसाइट में छपी रिपोर्ट के मुताबिक साबुन का इतिहास प्राचीन बेबीलोन सभ्यता से हजारों साल पुराना है. वर्तमान में यह बगदाद के पास है. पुरातत्वविदों को इस बात के प्रमाण मिले हैं कि प्राचीन बेबीलोन के लोग 2800 ईसा पूर्व में साबुन बनाना समझते थे. उन्हें यहां इस समय के ऐतिहासिक मिट्टी के सिलेंडरों में साबुन जैसी सामग्री मिली है. इन सिलेंडरों पर लिखा था 'राख के साथ उबली हुई चर्बी'. इसे साबुन बनाने की एक कला के रूप में जाना जाता है. 


जानवरों का होता था इस्तेमाल 
रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 1500 ईसा पूर्व के एक चिकित्सा दस्तावेज में लिखा गया है कि जानवरों और वनस्पति तेलों को एल्कलाइन सॉल्ट के साथ मिलाकर साबुन जैसी सामग्री बनाई जाती है, जिसका इस्तेमाल त्वचा रोगों के इलाज के साथ-साथ धोने के लिए भी किया जाता है. 


माउंट सापो से पड़ा 'सोप' नाम 
साबुन से जुड़े इतिहास को लेकर ये भी कहा जाता है कि तकरीबन 4 साल पहले कुछ रोमन महिलाएं टाइबर नदी के किनारे बैठकर कपड़े धो रही थीं. तभी उस दौरान नदी के ऊपरी हिस्से से बलि चढ़ाए गए कुछ पशुओं का फैट नदी के क‍िनारे मिट्टी में जम गया. इस मिट्टी के कपड़ों में लगते ही उनमें अलग सी चमक देखने को मिली. माना जाता है कि ये फैट माउंट सापो से बहकर आया था. इसलिए इस मिट्टी का नाम 'सोप''रख दिया गया. यहीं लोगों की जुबान में साबुन नाम आया. 


डिटर्जेंट ही साबुन है 
अंग्रेजों ने 12वीं शताब्दी में साबुन बनाने के काम शुरू किया था. वहीं 1600 में अमेरिकी बस्तियों में इसे व्यावसायिक तौर पर बनाना शुरू किया गया. वहीं साबुन बनाने के लिए फ्रांसिसी केमिस्ट निकोलस लेब्लांक ने 1791 में सामान्य नमक से सोडा ऐश बनाने की इस प्रक्रिया का पेटेंट कराया. वहीं 1850 तक साबुन बनाने को अमेरिका के सबसे तेजी से बढ़ते उद्योगों में से एक बना दिया गया था. 1916 तक इसे ऐसे ही बनाया जाता रहा. इसके बाद प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध में साबुन बनाने के लिए इस्तेमाल में लाए जाने वाले पशु और वनस्पति फैल और तेल की कमी थी. ऐसे में  रसायनज्ञों को इनके बदले दूसरे कच्चे माल का इस्तेमाल करना पड़ा जिन्हें समान गुणों वाले केमिकल के साथ सिंथेसाइज करना पड़ा. इन्हें ही आज "डिटर्जेंट" के नाम से जाना जाता है.  बता दें कि आज हम जिन चीजों को साबुन कहते हैं वे असल में डिटर्जेंट हैं. डिटर्जेंट को आज के समय में साबुन ही कहा जाता है. 


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