नई दिल्ली: Attack on Donald Trump: एक लड़का, जो स्कूल में होशियार हुआ करता था. नेशनल मैथ एंड साइंस इनिशिएटिव का विनर था. स्कूल के बदमाश लड़के उसे बुली किया करते थे. सबसे अलग-थलग होकर उसने अपनी ही दुनिया बन ली थी. न किसी से खास बोलचाल और न ही दोस्ती. लेकिन फिर एक दिन खबर आती है कि उस लड़के ने देश के पूर्व राष्ट्रपति पर गोली चला दी. राष्ट्रपति की जान तो बच गई, लेकिन लड़के को सीक्रेट सर्विस के स्नाइपर्स ने मौके पर ही मार गिराया. FBI ये पता लगाने की कोशिश  कर रही है कि 20 साल के थॉमस क्रुक्स ने पूर्व राष्ट्रपति और रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप पर क्यों गोली चलाई. लेकिन इसी बीच दुनियाभर में अतिवाद की राजनीति एक बार फिर चर्चा में आ गई है, जिससे राजनीतिक हिंसा होने का खतरा बढ़ रहा है.


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अमेरिकी मीडिया की नेताओं को सलाह
New York Times (NYT) के डिप्टी एडिटर डेविड फायरस्टोन ने लिखा है कि हमें भले फिलहाल शूटर के मकसद का नहीं पता, लेकिन उसने गन से अमेरिकी व्यवस्था को टारगेट किया है. चुनाव में मतभेद का स्थान होता है. न तो बंदूक से निकलने वाली गोलियों की कोई जगह होती और न ही उसके बाद पैदा होने वाले दहशत के माहौल की. चुनाव का फैसला जनता के वोटों से होता है, खून बहाने से नहीं. अमेरिका में हिंसा बढ़ रही है. नेताओं को आक्रमक भाषणों और दुष्प्रचार से बचना चाहिए. इसी तरह The Wall Street Journal ने कहा है कि अमेरिका के दोनों दलों (रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी) के नेताओं को भड़काऊ भाषण बंद कर देने चाहिए. 


अमेरिकी लेखक ने लिखा- अब मुख्यधारा की मीडिया में भी हिंसक विचार
साल 2021 में द जर्नल ऑफ डेमोक्रेसी में अमेरिका में बढ़ती राजनीतिक हिंसा को लेकर 'The Rise of Political Violence in the United States' नाम से एक रिपोर्ट पब्लिश हुई. इसमें अमेरिकी लेखक राचेल क्लेनफेल्ड ने कहा कि 2020 में चुनाव प्रशासकों को असंख्य धमकियां मिलीं. संयुक्त राज्य अमेरिका में राजनीतिक हिंसा के मामले आसमान छू रहे हैं. क्लेनफेल्ड ने  लिखा, 'जो हिंसक विचार कभी समूहों तक ही सीमित थे, वे अब मुख्यधारा के मीडिया में दिखाई देते हैं. लाखों अमेरिकी लोग राजनीतिक हिंसा करने, समर्थन करने या ऐसे कृत्य को माफ करने के पक्ष में हैं.' कमोबेश यही स्थिति बाकी देशों में भी है, भारत इससे अछूता नहीं है.


'जो हिंसा को हथियार बनाते हैं, ये उनको भी नुकसान पहुंचा सकती है'
अमेरिका में गन कल्चर लगातार बढ़ रहा है. ये वहां के राष्ट्रपति चुनाव में भी मुद्दा बना हुआ है. रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप ने भी गन लॉबी का समर्थन किया था. इसी साल फरवरी में हुई एक रैली में ट्रंप ने वादा किया था कि चुनाव जीतने पर वे गन पर लगाए गए बैन हटा देंगे. अमेरिकी लेखक राचेल क्लेनफेल्ड कहती हैं कि लोकतंत्र में राजनीतिक हिंसा तब बढ़ती है, जब नेता खुद हिंसा को सामान्य बनाते हैं या इसे किसी समाधान के तौर पर देखने लगते हैं. एक बार हिंसा शुरू होती है तो इस पर काबू पाना बेहद कठिन है. यह उन लोगों के खिलाफ भी इस्तेमाल हो सकती है, जो अपने उद्देश्यों को साधने के लिए इसका प्रयोग कर रहे थे. 


भारत में हो रहीं पॉलिटिकल किलिंग्स
देश में 2017 से 2019 के बीच, यानी महज दो साल के भीतर करीब 230 हत्या राजनीतिक कारणों से हुईं. इनमें सबसे अधिक 49 हत्याएं झारखंड में हुईं. इसके बाद 27 हत्याएं पश्चिम बंगाल में हुईं और 26 हत्याएं बिहार में हुईं. ये आंकड़े सरकार ने लोकसभा में रखे थे. केरल में भी राजनीतिक हत्याओं के खूब मामले सामने आएं हैं. 2006 से 2021 के बीच 125 पॉलिटिकल मर्डर हुए. इनमें से 30 मर्डर तो 2016 से 2021 के बीच ही हो गए. पश्चिम बंगाल में भी बीते कई सालों से स्थिति चिंताजनक है. लोकल बॉडी इलेक्शन हो या विधानसभा चुनाव, यहां पर राजनीतिक हिंसा देखने को मिल ही जाती है. NCRB के मुताबिक, 1999 से 2016 तक बंगाल में हर साल औसतन 20 पॉलिटिकल किलिंग्स दर्ज की गईं.


भारत भी ले अमेरिका की इस घटना से सबक
भारत को भी अमेरिका से सबक लेना चाहिए. यहां भी अतिवाद की राजनीति लगातार बढ़ रही है. इसका सबसे ताजा उदाहरण तमिलनाडु के BSP चीफ के आर्मस्ट्रोंग की हत्या का है. इससे पहले 2022 में भाजपा की तात्कालीन प्रवक्ता नूपुर शर्मा ने पैगंबर मोहम्मद पर विवादित टिप्पणी की. नूपुर शर्मा के समर्थन में सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने पोस्ट लिखा. इसके बाद उदयपुर में टेलर कन्हैया लाल और अमरावती में प्रह्लादराव कोल्हे की हत्या हो गई. एक नेता के बयान ने पूरे देश के सहिष्णु माहौल को खतरे में डाल दिया था. हाल ही में लोकसभा चुनाव के बाद दौरान प्रधानमंत्री के काफिले पर 18 जून को वाराणसी में चप्पल फेंकी गई. इसकी कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने निंदा की. लेकिन साथ ही ये बयान भी दिया, 'उनका (नरेंद्र मोदी) जो काम करने का तरीका है, वो लोगों को डराने का है, धमकाने का है. अब वो डर चला गया. आप लोगों ने पता नहीं देखा या नहीं, वाराणसी में किसी ने चप्पल मार दी. अब आप कल्पना करिए कि चुनाव से पहले अगर कोई मारना भी चाहता था तो डरता, तो वो जो डर था वो खत्म हो गया है.' राहुल के इस बयान से कोई भी कार्यकर्ता नकारात्मक रूप से प्रभावित हो सकता है.


नेता खुद रोक सकते हैं अतिवाद की राजनीति
राजनीतिक हिंसा को रोकने में नेताओं को आगे आना होगा. मास कम्युनिकेशन (जनसंचार) में 'Two-Step Flow Model' थ्योरी पढ़ाई जाती है. पॉल लाज़र्सफेल्ड, बर्नार्ड बेरेलसन और हेज़ल गौडेट द्वारा दी गई इस थ्योरी में कहा गया है, 'मास मीडिया के मुकाबले लोग ओपिनियन लीडर्स (नेता) की बातों से प्रभावित होते हैं.' इसलिए ये जरूरी है कि नेता संभलकर बोलें. अतिवाद की राजनीति को खत्म करने के लिए खुद नेता आगे आएं तो बेहतर होगा. 


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