मार्डन लाइफस्टाइल ने वैसे तो हमारे भी काम को लगभग बहुत आसान कर दिया है लेकिन इसके साथ साथ कई समस्याओं को भी जन्म दे दिया है. आज पर्यावरण के सामने हमारी लाइफस्टाइल ने कई चुनौतियों को खड़ा कर दिया है ऐसी ही एक चुनौती है, लॉन्ड्री से पैदा होने वाला प्लास्टिक पॉल्यूशन. यह एक बड़ी मुसीबत है,जिसे वैज्ञानिकों,बिजनसेस और सरकार को मिलकर सॉल्व करने की जरुरत है.


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माइक्रोप्लास्टिक्स खराब क्यों हैं?
वैसे तो सभी प्लास्टिक पॉल्यूशन हमारे पर्यावरण के लिए नुकसानदेह हैं; हालांकि, अपने छोटे आकार के कारण माइक्रोप्लास्टिक्स एक खास चुनौती बन जाते हैं. छोटे आकार के कारण उनका हमारी खाने पीने की चीज़ों में शामिल होने की अधिक संभावना हो जाती है और इसका रिजल्ट ये होता है कि ये  माइक्रोप्लास्टिक्स हमारे खाने पिने की चीजों से हमारे शरीर में पहुंच जाते हैं.  


 माइक्रोप्लास्टिक्स, एक चुनौती
रटगर्स यूनिवर्सिटी की रिसर्चर और वैज्ञानिक जूडिथ वीस, ने बताया कि माइक्रोप्लास्टिक्स खास तौर से माइक्रोफाइबर्स के रूप में पाए जाते हैं, जो सिंथेटिक कपड़े के इस्तेमाल के समय और धोते वक्त पैदा होते हैं. इन माइक्रोफाइबर्स का मेन सोर्स  है सिंथेटिक कपड़ा, जो इसे लगातार फैलाता रहता है.  इन माइक्रोफाइबर्स से होने वाले पॉल्यूशन  का सबसे बड़ा सोर्स सिंथेटिक कपड़ा ही है, क्योंकि धुलाई के वक्त ये कपड़ा बहुत ज्यादा माइक्रोप्लास्टिक्स को छोड़ता है.


माइक्रोप्लास्टिक: सुदूर पर्वतों की चोटियों से लेकर गहरे समुद्र तक
माइक्रोप्लास्टिक हर जगह फैला है, सुदूर पर्वतों की चोटियों से लेकर गहरे समुद्र तक,ये हर जगह मौजूद है. इतना ही नहीं अब ये इंसानों से लेकर जानवरों तक में मौजूद है.  पर्यावरण में सबसे आम माइक्रोप्लास्टिक्स माइक्रोफाइबर ही हैं . माइक्रोफाइबर यानि की छोटे धागे या फिलामेंट्स के आकार के प्लास्टिक के टुकड़े.


 माइक्रोफ़ाइबर के सोर्स
माइक्रोफ़ाइबर कई सोर्स से आते हैं, जिनमें सिगरेट के टुकड़े, मछली पकड़ने के जाल और रस्सियां भी शामिल हैं, लेकिन सबसे बड़ा सोर्स सिंथेटिक कपड़े हैं, जो माइक्रोफ़ाइबर को  लगातार छोड़ते रहते हैं. कपड़ा बनाते, पहनते और इस्तेमाल करते समय माइक्रोफ़ाइबर निकल जाते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा ये निकलते हैं जब इन कपड़ों को धोया जाता है.  एक बार धुलने से  कई लाख माइक्रोफाइबर निकल सकते हैं.  कपड़े के प्रकार, धोने के तरीके,  डिटर्जेंट,टेम्परेचर और धोने का साइकल जैसे कई फैक्टर हैं जो इस बात को तय करते हैं कि कितने फाइबर निकलते हैं.


क्या कहता है वैज्ञानिक जूडिथ वीस का रिसर्च
इस मसले पर रिसर्च करने वाली वैज्ञानिक जूडिथ वीस का कहना है कि कपड़े से लेकर पानी और मिट्टी तक ये माइक्रोफाइबर हर जगह हर मौजूद हैं. उन्होंने पूरे प्रोसेस को समझाते हुए कहा कि एक बार जब कपड़े वॉशिंग मशीन में माइक्रोफाइबर छोड़ते हैं, तो फाइबर वेस्ट पानी में घुल जाते हैं, जिसके बाद ये वॉटर ट्रीटमेंट में पहुंच जाते हैं. अच्छे वॉटर प्लांट पानी से 99% तक माइक्रोफाइबर हटा सकते हैं. लेकिन क्योंकि एक बार कपड़े धुलने से लाखों फाइबर निकल सकते हैं, इसलिए प्लांट से निकलने वाले ट्रीटेड पानी में  बड़ी संख्या में फाइबर रह जाते हैं. ट्रीटेड पानी से निकाले गए माइक्रोफाइबर फिर सीवेज में पहुंच जाते हैं. इसके बाद  कई मामलों में, ट्रीटेड सीवेज को उर्वरक के रूप में मिट्टी में लगाया जाता है. इसके बाद ये माइक्रोफाइबर हवा और मिट्टी में से होते हुए हमारे खान-पान में पहुंच जाते हैं.


फिल्टर और नए कपड़े हो सकते हैं सॉल्यूशन
इस मुसीबत से निपटने के लिए वैज्ञानिकों और उद्यमियों ने कई टेक्नोलॉजी और नए बिजनस उपायों की तलाश की है. वैज्ञानिकों के अनुसार वॉशिंग मशीनों में खास तरह के फिल्टर्स का उपयोग करके माइक्रोफाइबर को हटाया जा सकता है.  यह फिल्टर पानी से लगभग 90% माइक्रोफाइबर को हटा सकता है और इसे पानी में जाने नहीं देता है.  कुछ कंपनियां ऐसे फिल्टर को  लॉन्च कर चुकी हैं. वॉशिंग मशीनों के फिल्टरों का इस्तेमाल करने से माइक्रोफाइबर्स को रोकने में मदद हो सकती है, लेकिन अभी भी इसमें कई तरह की चुनौतियां हैं. इस कड़ी में वैज्ञानिक भी नई तरह के कपड़ों का विकास कर रहे हैं जिनमें सिंथेटिक कपड़े के बजाय प्राकृतिक रूप से पैदा की जाने वाली टिश्यू का इस्तेमाल होता है, जिससे माइक्रोप्लास्टिक्स का प्रोडक्शन कम हो सकता है.