Munawwar Rana : मेरी बेकार ग़ज़लों का एक बचकाना- सा संग्रह 2010 में शाया हुआ था, जिसकी लॉन्चिंग मैं शायर मुनव्वर राना से कराना चाहता था. लेखक और अदीब मरहूम योगेश प्रवीन ने बड़े प्यार से अपनी राइटिंग में एक परची लिखकर मुझे उनके पास जाने को कहा था. मैं नाके से बर्लिंगटन की जानिब आने वाली लाल कुआँ रोड पर काली पल्सर मोटर साइकिल से पहुंचा था. इससे पहले मुनव्वर राना से फोन पर सहमी आवाज़ में बात कर चुका था. योगेश प्रवीन का हवाला सुनकर वो मेरी जानिब थोड़ा मुतवज्जो हुए थे. रास्ता और पता भी बतलाया कि कैसे-कैसे आना है.


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जब मैं ढींगरा अपार्टमेंट पहुँचा तो वहाँ ग़ज़ल ट्रांसपोर्ट दिखायी दिया.  वहीं बैठे लोगों से कहा कि मुनव्वर राना साहब से मिलना है. उन्होंने कहा, "सीढ़ियों से ऊपर के फ्लैट में चले जाइए." वहाँ पहुँचा तो दरवाज़ा आधा खुला हुआ था. तब मैं पतलून और आधी आस्तीन वाली धारीदार कमीज़ पहने हुए दुबला-पतला एंग्री यंगमैन था.. जब मैंने दस्तक दी और दरवाज़ा धीरे से धकेला तो एक बड़ा कमरा खुला.  कमरे में ज़मीन पर ही दरी पर गद्दे और फिर सफ़ेद जाजिम बिछी हुयी थी. कुछ तकिये और मसनद भी पड़े हुए थे. दीवारों पर कुछ तस्वीरें थीं.


वे काली क़फ़नी पहने हुए पेट के बल लेटे थे. लेटे-ही-लेटे दाएँ हाथ से कॉपी में नस्तालीक लिखे जा रहे थे, और बाएँ हाथ की उँगलियों में धुआँती सिगरेट फंसी हुयी थी.. कॉपी से थोड़ी दूर विल्स नेवी कट का पैकेट और लाइटर पड़ा हुआ था. मैंने उन्हें आने का मक़सद बताया. उन्होंने किताब उलट-पुलट कर देखी. मेरी तरफ इस तरह देखा जैसे जल्दी में निबटाना चाहते हों. फिर उन्होंने कहा कि ज़रूर आएंगे.  लेकिन कार्यक्रम के दिन वे ट्रैफिक में फंस गये हैं, ऐसा आयोजकों को बताया और नहीं आ सके. 


मुनव्वर राना को हम नवीं-दसवीं क्लास से जानते थे. उनके शे'र अपने फिज़िक्स के रजिस्टर के पीछे लिखा करते थे. वे रजिस्टर अब तक रखे हुए हैं. 


उनकी शायरी से एक खुद्दार, ईमान और ज़मीर वाला हिंदुस्तानी व्यक्तित्त्व झाँकता रहता था.  हम नौजवान उस पर मोहित होते थे. 
एक वक़्त तक उनकी शायरी हमारे नज़दीक अपनी बेकारी, आवारगी और फटेहाली का पोएटिक जस्टिफिकेशन होती थी.  ग़ज़ल की क्लासिक रिवायत में दख़ल दे कर उन्होंने उसे घर, आँगन, माँ, भाई, बहन, खेत, खलिहान, फुटपाथ, मज़दूर, अना, फ़ाक़ों, ग़रीबी, ग़ुरबत आदि से जोड़कर हमारे दौर के युवाओं को फैसिनेट किया..देवा शरीफ़ के मेले के मुशायरों में हमने उन्हें ख़ूब सुना. कोई-कोई संज़ीदा शे'र कहते हुए वे मंच पर ही अक्सर रो पड़ते थे. 


उनके 'माँ' पर कहे गये अशआर का मजमूआ कलकत्ता से उर्दू में प्रकाशित हुआ था, जहाँ से लखनऊ तक वे 'ग़ज़ल ट्रांसपोर्ट' का कारोबार किया करते थे.  वह मजमूआ हमने अमीनाबाद लखनऊ के 'दानिश महल' से ख़रीदा था, जो उर्दू रिसालों और किताबों की ख़ास पुरानी दूकान रही है. बाद में उनके अनेक संग्रह देवनागरी में प्रकाशित हुए. उनके तमाम अशआर अब तक मुझे ज़बानी याद हैं. 


" गुलाब रंग को तेरे कपास होना पड़े,
न इतना हँस के तुझे देवदास होना पड़े। 


हमारे साथ ये इंसाफ़ कीजिए मौला,
कभी-कभी तो उसे भी उदास होना पड़े।"  


संतोष अर्श
लेखक, कवि और हिंदी के प्रोफेसर हैं.