शाहजहांपुर: उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में मशहूर और चर्चित जूता मार होली (Juta Maar Holi) के जश्न के लिए तैयारियां ज़ोरों पर हैं. यहां जिला प्रशासन ने इलाके की करीब 40 मस्जिदों को प्लास्टिक की शीट से ढक दिया है, ताकि होली के दिन यहां कोई नाखुशगवार घटना ना हो पाए.


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जिला प्रशासन की क्या है तैयारी
रिपोर्ट के मुताबिक, इस बार जूता मार होली (Juta Maar Holi) के जश्न के लिए जिला प्रशासन ने खास तैयारी की है. इस जुलूस के रास्ते पड़ने वाली मस्जिदों के आस-पास सुरक्षा बढ़ा दी गई हैं. 


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शाहजहांपुर के ज़िला प्रशासन के मुताबिक, जुलूस के रास्ते पड़ने वाली तमाम मस्जिदों को प्लास्टिक की शीट से ढक दिया गया है, ताकि होली के दिन यहां कोई नाखुशगवार घटना ना हो पाए. इसलिए भी कि कोई भी शख्स जुसूस के वक्त इन मस्जिदों पर रंग ना फेंके. 



शाहजहांपुर के एसपी संजय कुमार का कहना है कि जिन मस्जिदों को नहीं ढका गया है, उनको 28 मार्च से पहले ढक दिया जाएगा. एसपी संजय कुमार के मुताबिक, जुलूस के रूट में सीसीटी कैमरे लगाए गए हैं और ड्रोन कैमरे से भी नज़र रखी जाएगी.


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इस तरह मनाई जाती है 'जूता मार' होली
स्वामी शुकदेवानंद कॉलेज के इतिहास विभाग के अध्यक्ष डॉ विकास खुराना के मुताबिक 'यहां होली वाले दिन 'लाट साहब' का जुलूस निकलता है और उन्हें भैंसा गाड़ी पर तख्त डालकर बिठाया जाता है. लाट साहब का जुलूस बड़े ही गाजे-बाजे के साथ निकलता है और इस दौरान लाट साहब की जय बोलते हुए गोग उन्हें जूतों से मारते हैं.'


'1827 में इस तरह हुई शुरुआत'
डॉ खुराना ने बताया, 'शाहजहांपुर शहर की स्थापना करने वाले नवाब बहादुर खान के वंश के आखिरी शासक नवाब अब्दुल्ला खान पारिवारिक लड़ाई के चलते फर्रुखाबाद चले गए. इसके बाद वो साल 1729 में 21 वर्ष की उम्र में वापस लौटे. वह हिंदू-मुसलमानों के बड़े प्रिय थे इसी बीच होली का त्यौहार आ गया तो दोनों समुदाय के लोग उनसे मिलने के लिए घर के बाहर खड़े हो गए. नवाब साहब बाहर आए तो लोगों ने होली खेली. उसके बाद में उन्हें ऊंट पर बैठाकर शहर का एक चक्कर लगवाया गया इसके बाद से यह परंपरा बन गई.’


'लाट साहब' के जुलूस की कहानी
जिले के लोग बताते हैं कि साल 1857 तक हिंदू- मुस्लिम दोनों मिलकर यहां बड़ी धूमधाम से होली मनाते थे. नवाब साहब को हाथी या घोड़े पर बैठा कर घुमाया जाता था लेकिन हिंदू-मुस्लिम का प्यार और भाईचारा अंग्रेजों को रास नहीं आया. इसके बाद 1947 में नवाब साहब के जुलूस का नाम बदल कर प्रशासन ने 'लाट साहब' कर दिया और तब से यह लाट साहब के नाम से जाना जाने लगा. इसी दौरान अंग्रेज यहां से चले गए और फिर अंग्रेजों के प्रति लोगों में जो आक्रोश था उससे ही इस नवाब के जुलूस का रूप बदल गया.


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लाट साहब का यह जुलूस चौक कोतवाली स्थित फूलमती देवी मंदिर से निकलता है और वहां लाट साहब मंदिर में लोग माथा टेकते हैं तथा पूजा अर्चना करते हैं. इसके बाद कोतवाली में सलामी लेते हुए बाबा विश्वनाथ मंदिर में पहुंचते हैं और फिर ये जुलूस चौक लौटकर खत्म हो जाता है.


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