नई दिल्ली: अंग्रेज हुक्मरानों की बढ़ती ज्यादतियों का विरोध करने के लिए महात्मा गांधी ने 1920 में एक अगस्त को असहयोग आंदोलन का आगाज किया था. आंदोलन के दौरान विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में जाना छोड़ दिया. वकीलों ने अदालत में जाने से मना कर दिया. कई कस्बों और नगरों में मजदूर हड़ताल पर चले गए. शहरों से लेकर गांव देहात में इस आंदोलन का असर दिखाई देने लगा और सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद असहयोग आंदोलन से पहली बार अंग्रेजी राज की नींव हिल गई.


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कलकत्ता अधिवेशन में पास हुआ पास हुआ प्रस्ताव
असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 4 सितंबर 1920 को पास हुआ था. जो लोग भारत से उपनिवेशवाद को खत्म करना चाहते थे उनसे आग्रह किया गया कि वे स्कूलो, कॉलेजो और न्यायालय न जाएं और और नितिन सिन्हा भी शामिल थे. कर न चुकाएं. गांधी जी ने कहा कि अगर असहयोग का ठीक ढंग से पालन किया जाए तो भारत एक साल के अंदर स्वराज हासिल कर लेगा. 


चौरा-चौरी कांड के बाद गांधी जी ने वापस लिया आंदोलन
फ़रवरी 1922 में किसानों के एक ग्रुप ने गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा में एक पुलिस थाने पर आक्रमण कर उसमें आग लगा दी. इस कांड में कई पुलिस वालों की जान चली गई. हिंसा की इस कार्यवाही से गांधी जी को यह आन्दोलन तत्काल वापस लेना पड़ा. उन्होंने जोर दिया कि किसी भी तरह की उत्तेजना को निहत्थे और एक तरह से भीड़ की दया पर निर्भर व्यक्तियों की हत्या के आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता है.


पंडित मदन मोहन मालवीय ने मुकदमा लड़ 151 लोगों को फांसी बचाया
बहुत से लोगों को गांधी जी का यह फैसला ठीक नहीं लगा. खासकर क्रांतिकारियों ने इसका विरोध किया. चौरी-चौरा कांड के आरोपियों का मुकदमा पंडित मदन मोहन मालवीय ने लड़ा और ज्यादातर लोगों को बचा ले जाना उनकी एक बड़ी कामयाबी थी. इनमें से 151 लोग फांसी की सजा से बच गये. बाकी 19 लोगों को 2 से 11 जुलाई, 1923 के दौरान फांसी दे दी गई. इस घटना में 14 लोगों को आजीवन कैद और 10 लोगों को आठ साल सश्रम कारावास की सजा हुई.


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