`बड़े शौक से सुन रहा था ज़माना, तुम्हीं सो गए दास्तां कहते-कहते`
फारुकी आलमी शोहरत याफ्ता तजज़ियाकार और नज़रियानिगार और शायर थे. उन्होंने दास्तान गोई को दुबारा ज़िंदा करने में बुनियादी किरदार अदा किया
नई दिल्ली/सैयद अब्बास मेहदी रिज़वी: उर्दू दुनिया के मशहूर-ओ-मारूफ अदीब शम्सुर रहमान फारुकी का आज सुबह करीब साढ़े 11 बजे इंतेकाल कर गए. बताया जा रहा है कि वो आज सुबह ही की दिल्ली से इलाहाबाद आए थे. वो 85 साल के थे. शम्सुर रहमान फारुकी न सिर्फ उर्दू जबान में महारत रखते थे बल्कि अरबी, फारसी पर भी उनकी मज़बूत पकड़ थी. फारुकी आलमी शोहरत याफ्ता तजज़ियाकार और नज़रियानिगार और शायर थे. उन्होंने दास्तान गोई को दुबारा ज़िंदा करने में बुनियादी किरदार अदा किया.
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उनका जन्म 30 सितंबर 1935 को उत्तर प्रदेश में हुआ था. उन्होंने 1955 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में मास्टर ऑफ आर्ट्स (एमए) की डिग्री हासिल की थी. उन्हें साल 1996 में "सरस्वती सम्मान" के अलावा भारत सरकार ने उन्हें 2009 में पद्म श्री के ऐज़ाज़ से नवाज़ा था.
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उन्होंने उर्दू अदब को 'कई चांद और थे सरे आसमां, ग़ालिब अफ़साने के हिमायत में, उर्दू का इब्तिदाई ज़माना जैसे कई अज़ीम मजमूए दिए हैं. शम्सुर रहमान को उर्दू आलोचना के टी.एस.एलियट के रूप में माना जाता है. सरस्वती सम्मान के अलावा उन्हें 1986 में उर्दू के लिए साहित्य अकादमी सम्मान भी दिया गया था.
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जानकारी के मुताबिक साल 1960 में उन्होंने लिखना शुरू किया. शुरुआती दौर में उन्होंने भारतीय डाक सेवा (1960-1968) के लिए भी काम किया. फिर 1994 तक एक चीफ पोस्टमास्टर-जनरल और पोस्टल सर्विसेज बोर्ड, नई दिल्ली के मेंबर के तौर पर काम करते रहे. वे अपने अदबी रिसाले के एडिटर भी थे.
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