क्या द्रौपदी मुर्मू के सामने BJP के पुराने सिपहसलार को कर दिया जाएगा नजरअंदाज?
President Election 2022: एनडीए के उम्मीदवार की जीत लगभग तय है, इसके बावजूद यशवंत सिन्हा की उम्मीदवारी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. उन्हें वाजपेयी सरकार के दौरान आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए याद किया जाता है.
नई दिल्लीः केंद्र की राजग सरकार ने पार्टी की तरफ से अगले राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार के तौर पर झारखंड की पूर्व राज्यपाल और आदिवासी नेता द्रौपदी मुर्मू के नाम का ऐलान कर दिया है. 18 जुलाई को होने वाले चुनाव के लिए विपक्षी उम्मीदवार यशवंत सिन्हा के खिलाफ वह अपनी दोवेदारी पेश करेंगी. सियासी और प्रशासनिक अनुभव के लिहाज से द्रौपदी मुर्मू का करिअर काफी अच्छा रहा है, लेकिन यशवंत सिन्हा के मुकाबले उनका अनुभव और सियासी सफर दोनों कम है. यूं तो एनडीए के उम्मीदवार की जीत लगभग तय है, इसके बावजूद यशवंत सिन्हा की उम्मीदवारी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.
चार दशकों का लंबा सियासी करिअर
यशवंत सिन्हा अपने करीब चार दशक लंबे सियासी जिंदगी में समाजवादी नेता चंद्रशेखर से लेकर भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज लालकृष्ण आडवाणी तक के करीबी सहयोगी रहे चुके हैं. भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अफसर सिन्हा पार्टी और सरकार में कई प्रमुख पदों पर रह चुके हैं, लेकिन भाजपा में मोदी-शाह नेतृत्व के उभरने के साथ ही पार्टी में उनकी चमक फीकी पड़ने लगी और वह हाशिए पर चले गए. पार्टी में उन्हें हमेशा आडवाणी गुट का आदमी माना जाता रहा है. यही वजह है कि सिन्हा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नीत सरकार के आलोचक भी रहे हैं. शायद यही वजह हो सकती है कि सिन्हा को विपक्षी खेमे ने राष्ट्रपति चुनाव में उन्हें अपना संयुक्त उम्मीदवार बनाया है, वह भी ऐसे वक्त जब उनका सियासी करिअर खत्म होने की कगार पर है.
कड़े तेवर और मुखरता पड़ी भारी
सिन्हा अल्पकालिक चंद्रशेखर सरकार और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में वित्त मंत्री की जिम्मेदारी निभा चुके हैं. वह अपने कड़े तेवर के लिए भी जाने जाते हैं. उन्होंने 1989 में वी. पी. सिंह सरकार के शपथ ग्रहण समारोह का बहिष्कार किया था, और फिर 2013 में तत्कालीन भाजपा सद्र नितिन गडकरी के खिलाफ कथित भ्रष्टाचार के इल्जाम को लेकर भी मुखर रहे हैं, जिसके बाद गडकरी को पद छोड़ना पड़ा. भाजपा ने 2014 में सिन्हा को लोकसभा चुनाव में टिकट नहीं देकर उनके बेटे जयंत सिन्हा को मैदान में उतारा था. इसके बावजूद उन्होंने 2018 में यह कहते हुए पार्टी छोड़ दी कि लोकतंत्र खतरे में है. वह 2021 में तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए थे.
रह चुके हैं बिहार-कैडर के आईएएस अधिकारी
बिहार में पैदा हुए और बिहार-कैडर के आईएएस अधिकारी सिन्हा ने 1984 में प्रशासनिक सेवा छोड़ दी थी और जनता पार्टी में शामिल हो गए थे. जनता पार्टी के नेता चंद्रशेखर उन्हें पसंद करते थे. सिन्हा ने बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री और समाजवादी दिग्गज कर्पूरी ठाकुर के प्रधान सचिव के रूप में भी काम किया था. सिन्हा 1988 में राज्यसभा के सदस्य बने. चंद्रशेखर सहित कई विपक्षी नेताओं ने 1989 के संसदीय चुनाव में कांग्रेस से मुकाबला करने के लिए जनता दल के गठन के लिए हाथ मिलाया. बाद में सिन्हा ने अपने राजनीतिक गुरु की राह पर चलते हुए वी. पी. सिंह सरकार को गिराने के लिए जनता दल को तोड़ दिया.
आडवाणी से था करीबी रिश्ता
चंद्रशेखर के सियासी असर में कमी आने और भाजपा के उभार के बीच सिन्हा आडवाणी से मुतासिर होकर भाजपा में शामिल हो गए. दोनों नेताओं के बीच करीबी रिश्ता था. तक सिन्हा को बिहार में नेता प्रतिपक्ष सहित कई अहम जिम्मेदारियां दी गईं. वह 1998 में हजारीबाग से लोकसभा चुनाव जीतकर सरकार में 2002 तक वित्त मंत्री रहे और बाद में विदेश मंत्री की भी जिम्मदारी संभाली. उन्हें वाजपेयी सरकार के दौरान आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए याद किया जाता है.
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