Relationship: शायद आप नहीं दे पाएंगे लड़कियों के इन सवालों के जवाब
हमें नहीं चाहिए अभी संसद में 33 फीसदी और नौकरियों में 50 फीसदी आरक्षण का कानूनी हक. दस्तावेजों, वेदों, पुरानों और कुरानों में सदियों से मिला है हमें बराबरी का हक, तो क्या हमें वह मिल गया है?
देश में महिलाओं की समस्याएं, मुद्दे और उनके हितों पर बोलना या उनकी हिमायत में खड़े होना महज एक रस्म की अदायगी भर रह गया है. साल में दो बार महिला दिवस और मातृत्व दिवस के मौकों पर महिलाओं के प्रति सम्मान से भर जाने और उसके हक की बात करने वाला हमारा समाज साल के 363 दिन खामोशी की मोटी चादर तानकर गहरी नींद सो जाता है. उसे महिलाओं का दुःख, दर्द और आह बिलकुल सुनाई नहीं देती है, जो हर पल घटित होता है उसके आस-पास. वह रोज सहती हैं, एक अंतहीन पीड़ा और संत्रास, जिसे किसी से कह नहीं पाती, और हल्का नहीं कर पाती है अपने दिल का बोझ. माएं भी नहीं समझ पाती हैं उसकी पीड़ा. शायद सदियों के पतृसत्तात्मक समाज ने हर ली है उनकी बुद्धि, तभी तो वह मिलाती है पुरुषों के हां में हां और नजरअंदाज कर देती हैं बेटियों और बहुओं की आह, आकांक्षाएं और उनके जजबात. मायके में लगा दी जाती है पाबंदियां, ससुराल में सुनने पड़ते हैं ताने, राह चलते लोग करते हैं छींटाकशी और वर्कप्लेस पर किसी से हंसकर बोल लेने में जोड़ दिए जाते हैं रिश्ते, ऐसे में आखिर कहां जाएंगी बेटियां?
हमें नहीं चाहिए अभी संसद में 33 फीसदी और नौकरियों में 50 फीसदी आरक्षण का कानूनी हक. दस्तावेजों, वेदों, पुरानों और कुरानों में सदियों से मिला है हमें बराबरी का हक, तो क्या हमें वह मिल गया है?
पहले हमें दे दो मेरा वाजिब हक. इंसान होने का हक. अपनी मर्जी से जिंदगी जीने का हक. खुली हवा में सांस लेने का हक. खुद के फैसले लेने का हक.
हमें नहीं करनी है अभी बड़ी-बड़ी बातें, नहीं उलझना है उन मुद्दों में जिन की आड़ में कई छोटी-छोटी लेकिन बेहद जरूरी बातें छूट जाती हैं पीछे. नहीं करता है कोई इसपर चर्चा. पब्लिक डिस्कोर्स का नहीं बन पाता है ये हिस्सा. किसी के लिए छोटे हो सकते हैं ये मुद्दे लेकिन लेकिन हमारे लिए हैं बेहद खास. आपको देने होंगे हमारे इन सवालों के जवाब;
हर बात के लिए लड़कियों पर धौंस क्यूँ
घर के काम की जिम्मेदारी सिर्फ बहु और बेटियों पर क्यों है? घर का गिरा हुआ ग्लास सिर्फ बेटी या बहू ही क्यों उठाएगी.. घर में किसी चीज पर धूल जम जाए, बिस्तर का चादर बदला न जाए तो इल्जाम हमारे सर आ जाता है, हम ठीक से सफाई नहीं करते. घर में सुबह चाय में देरी हो जाए तो क़सूर मेरा है. सुबह देर से आंख खुली और नाश्ता बनाने में देर हो जाए तो लेट क्यों उठी? खाने में मिर्च तेज क्यों हुआ नमक कम क्यों पड़ा...क्या गलतियां घर के पुरुषों से नहीं होती है ?
क्यों कहता है कोई कि कोचिंग या कॉलेज अकेले कैसे जाएगी ? जब ख़ुद हमें स्कूल या कॉलेज नहीं पहुंचाते तो फिर मेरे अकेले जाने पर ऐतराज़ क्यों है? आज वो कौन था जो कॉलेज में तुम्हारे पीछे खड़ा था ? तुम नहीं जानती हो तो वो तुम्हारे क़रीब क्यों खड़ा था ? इसकी पढ़ाई छुड़वा दो..कोई लड़का देखकर जल्दी से ब्याह करा दो.. पढ़ने की उम्र में घर की ज़िम्मेदारियों के बोझ के नीचे दबाकर पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर कर देते हो.
क्यों तुमने चाचा, मामा या मौसी के लड़के से बात की ? तुम वहां हंस क्यों रही थी ? तुम क्यों ख़ामोश हो, लगता है कोई बड़ी बात ज़रूर है ? तुम रोई क्यों ? तुम बग़ैर वजह हंसी क्यों? वो अकेले में मुस्कुरा रही है, ज़रूर कोई बात है... वह मोबाईल इतनी रात में क्यों चला रही है? कल से उसका मोबाईल बंद करो... किसी का फोन आया तो तुमने क्यों उठाया? तुम्हें इस घर में रहना है तो इस घर के वसूल और रिवायतों से चलना होगा वर्ना घर में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है... कहीं ग़लती से प्यार कर बैठी तो मौत भी उसके लिए आसान होगी जो हालत उसे उसके अपने ही घर में बना दिया जाता है...
घर में किसी से कहासुनी हो जाए तो तुरंत ये इल्जाम लग जाता है कि तुमने बढ़-चढ़ कर बोला होगा, तुमने जवाब दिया होगा.... क्यों दूसरे की बहू इतना काम करती है तो तुम कैसे करोगी इस बात के ताने देकर अपनी बेटियों को मशीन बना देते हो ?
पति से झगड़ा हुआ तो बीवी ने कोई जवाब दिया होगा... पति का हाथ उठ जाए तो पत्नी ने कोई ग़लत बात की होगी... क्यों तुम्हारे शराब पीने की सज़ा पत्नी को मिले ? तुम्हारे लिए रात में इंतज़ार करके फिर मार खाकर सोना उसका नसीब हो जाए... दर्द से कराहते हुए उठना तो है सुबह होने से पहले ही उसे. तुम रात के दस बजे आओ या दो बजे नींद त्यागकर तुम्हारी बुराईयों पर पर्दा डालकर, रातभर इंतेज़ार कर घर का दरवाज़ा बेटी या बहू को ही खोलना है... घर में घुसते ही तुम्हारे खाने-पीने और सोने के बाद ही उसे सोना है...
क्यों तुम चटनी खिलाओ या चिकन उसमें ही उसे जीना है ? बच्चा जबतक हंसता और खेलता रहे वह तुम्हारी गोद में, जैसे ही रोने लगे या बीमार पड़ जाए तो मां की गोद में? क्यों सास-ससुर देवर और नंद के कपड़े बहू ही धुले ? क्यों कपड़े स्त्री हुए लेकिन हल्के सिकुड़ गए तो हम ज़िम्मेदार ? शादी ब्याह में पूरा घर जाएगा अगर बहू बेटी भी गई तो घर पर कौन रहेगा? घर की ज़िम्मेदारियां कौन संभालेगा...?
क्यों पड़ोसी आएंगें तो तुम सामने न आना... तुम उनके सामने मत जाना... लोग कहेंगे कि कितनी बेशर्म है! बहू-बेटी होकर बराबरी में कैसे बैठ गई? क्यों तुम बाप के सामने अपनी बात नहीं कह सकती, जो बात कहनी है सिर्फ मां से कहो... अगर बात मां के समझ आएगी तब ही आगे बढ़ेगी वर्ना मां की डांट खाकर चुपचाप बैठ जाना है...
क्यों तुम सहेलियों के साथ या घर में हंसी मज़ाक तेज़ आवाज़ में नहीं कर सकती ? घर से बाहर आवाज़ जाने में बेशर्म हो जाओगी... घर की छत पर रात में मां के साथ ही जाना है अकेले नहीं जाना है... सामने की दुकान पर ऐसी कौन सी आफत पड़ गई कि तुम दुकान पर खड़ी होकर सामान लेने लगी?
मां कहती है समाज में रहना है तो एक औरत की ज़िम्मेदारी पुरुषों को ख़ुश रखने की है...अपने दर्द की आह छुपाकर उसके हिसाब से चलना ही तुम्हारा फ़र्ज़ है...सारी ज़िंदगी तुम्हें उसके और उसके घरवालों के लिए जीना है... आखिर में वही मां अपने बेटों और बहुओं की झिरकी सुनकर एक दिन इस दुनिया से रुखसत हो जाती है.... यानी जिम्मदारियों का सारा पहाड़ महिलाओं के हिस्से में है. क्या सिर्फ पैसे कमाकर लाने से पुरुषों की सभी जिम्मदारियां खत्म हो जाती है ? क्या पुरुषों को नहीं लगता है कि महिलाएं भी वैसी जिंदगी और सम्मान की हकदार है, जैसा वह खुद के लिए पसंद करता है?
:- अतीका नूर
लेखिका पत्रकार हैं, और ये उनके निजी विचार हैं.