कृषक समाज की अस्मिता बन रहा मुद्दा
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कृषक समाज की अस्मिता बन रहा मुद्दा

इस देश में कृषि को सुधारे बगैर न रोजगार के बड़े अवसर मिल सकते हैं और न अर्थव्यवस्था बहुत गतिशील हो सकती है. आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा विकास की मुख्यधारा से छूटता चला जा रहा है. इसीलिए इस देश के अंदर जातीय अस्मिता का सवाल उठता रहता है, लेकिन यह सवाल जातीय अस्मिता कम कृषि का सवाल ज्यादा है.

कृषक समाज की अस्मिता बन रहा मुद्दा

भारत की इकोनॉमी का बड़ा हिस्सा भले ही कृषि न हो, लेकिन आदि काल से समाज का बड़ा हिस्सा कृषि पर निर्भर रहा है. एशियाई उत्पादन पद्धति में गांव का पूरा समूह आपस में मिलकर काम करता रहा है. हमारी आजीविका के साधन और स्रोत का केंद्रीय विषय कृषि रहा है. इस देश में जो जातियां अपनी आजीविका के लिए मुख्य तौर पर कृषि कार्य से जुड़ी रही हैं, उसमें कुशवाहा, कुर्मी और धानुक प्रमुख जातियां रही हैं. बिहार सहित उत्तर भारत के कई राज्यों में इन जातियों का जुड़ाव कृषि कार्य से रहा है. लेकिन अभी भी इन तबकों की आर्थिक गतिविधियों में कम ही भागीदारी है. कारण स्पष्ट है, कृषि का समेकित विकास का न होना. हमारे यहां विकास के इस दौर में कृषि बहुत पीछे रह गया. आजादी के बाद से उत्तर भारत में कृषि के विकास पर कोई ज्यादा काम नहीं हुआ. हुए हैं, लेकिन उसे प्राथमिकता के क्षेत्र के तौर पर देखा जाए, ऐसा भी नहीं हुआ है. इस देश में कृषि को सुधारे बगैर न रोजगार के बड़े अवसर मिल सकते हैं और न अर्थव्यवस्था बहुत गतिशील हो सकती है. आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा विकास की मुख्यधारा से छूटता चला जा रहा है. इसीलिए इस देश के अंदर जातीय अस्मिता का सवाल उठता रहता है, लेकिन यह सवाल जातीय अस्मिता कम कृषि का सवाल ज्यादा है.

बिहार, उत्तर प्रदेश से लेकर हरियाणा तक जातीय अस्मिता का बड़ा सवाल ओबीसी से जुड़ा हुआ है और इसका संकट कृषि है. बिहार में ओबीसी की तीन प्रमुख जातियों, कुशवाहा, कुर्मी और धानुक का आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक और दूसरे मानव विकास इंडेक्स के सुधार कृषि के विकसित होने तक नहीं होंगे. इस अस्मिता को अगर राजनीतिक प्लेटफॉर्म पर ले जाएं, तो हाल फिलहाल में बीजेपी और नरेंद्र मोदी पिछड़ों के विकास से जुड़े क्षेत्रों में काम करने दावा करते रहे हैं, लेकिन व्यवहारिक तौर पर पिछले पांच साल में ये हिस्सा लगातार गिरता चला गया. 

इस दौर में कृषि कभी प्राथमिकता में रहा ही नहीं. राजनीतिक परिदृष्य में भी समाज के इस हिस्से को कुछ से कुछ कह कर एक तरह से ठगने का भी प्रयास हुआ. कल तक जातीय समीकरण को बिठाने के लिए उत्तर प्रदेश में केशव मौर्या को मुख्यमंत्री बना देने का वादा किया गया. मध्य प्रदेश, हरियाणा, बिहार में जहां यह खेतीहर समाज प्रमुखता से है, वहां ये लगातार हाशिए पर थे. हालांकि, पिछले कुछ सालों में उम्मीद की जो किरण जगी थी, वह उम्मीद भी खत्म होती दिखाई दे रहा है. अब ऐसे में यह छटपटाहट एनडीए से दूरी बनाते दिख रहे सिर्फ उपेंद्र कुशवाहा का सवाल नहीं है. 

समाज के भीतर का यह छटपटाहट अपने पूरे अस्तित्व के लिए है और इनको ऐसा नेता चाहिए, जो उनकी आवाज को रिप्रेजेंट कर सके. एक दौर में लगा था कि नीतीश कुमार यह काम कर सकेंगे. इन तीन प्रमुख जातियों के अलावा अन्य कृषक जातियों को भी लगने लगा था कि उन्हें उनका अधिकार मिल जाएगा, लेकिन दुर्भाग्य से समग्रता में ऐसा कुछ हुआ नहीं. इसलिए कृषक समाज में अपना नेता चुनने की छटपटाहट है. ऐसे में यह समाज उपेंद्र कुशवाहा को भी विकल्प के रूप में देख सकता है. 

बिहार के अंदर उपेंद्र कुशवाहा न सिर्फ कुशवाहा बल्कि कुर्मी, धानुक और दूसरे समाज के बीच भी अपनी पकड़ बनाने की कोशिश में हैं. उपेंद्र से उम्मीद की जा रही है कि वह शिक्षा के अलावा आर्थिक, सामाजिक और न्यायपालिका में सुधार के सवाल पर भी मजबूती से सामने आएंगे. जिस तरह का राजनीतिक घटनाक्रम चल रहा है, उसमें अगर समाज का यह बड़ा हिस्सा उपेंद्र कुशवाहा को अपना नेता स्वीकार करता है तो इसका असर पूरे उत्तर भारत में दिखाई पड़ेगा. यह 2019 के चुनाव में उत्तर भारत में एक केंद्रीय प्रश्न होगा कि गैर यादव ओबीसी समाज अपना नया नेता किस तरह चुनता है. बिहार में यह समाज करीब 20-21 फीसदी है और राजनीतिक बहसों में यह चर्चा का विषय बना हुआ है कि इसका नेतृत्व नीतीश कुमार करेंगे या उपेंद्र कुशवाहा करेंगे. ये समुदाय पिछले 15 साल से सत्ता की धुरी में रहने के बावजूद लगातार पिछड़ता रहा है, इसलिए राजनीतिक हलकों में नेतृत्व को लेकर बहस बहुत तेज है.

उपेंद्र कुशवाहा हाल के दिनों में न सिर्फ बिहार बल्कि मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और झारखंड में अपनी राजनीतिक सक्रियता बढ़ा रहे हैं. उपेंद्र कुशवाहा बिहार भाजपा प्रभारी भूपेंद्र यादव से बातचीत नहीं बनने की स्थिति में मध्य प्रदेष में करीब 65 सीट पर अपने उम्मीदवार खड़े कर पहली बार इस राज्य में ओबीसी अस्मिता को बढ़ाने की दिषा में सक्रिय दिखाई दिए. इस राज्य में कुशवाहा की आबादी करीब 7 फीसदी है. उत्तर प्रदेश, बिहार के उलट मध्य प्रदेश में सामंती माहौल है. किसी क्षेत्र में कोई दबंग या प्रतिष्ठित समाज से आने वाला कोई व्यक्ति चुनाव लड़ रहा है तो दूसरी पार्टी भी कोशिश करती है कि उसी समाज से आने वाले दूसरे व्यक्ति को टिकट दें. भले ही उस जमात का वोट हो या न हो. उसको कुशवाहा भी वोट दे देता है तो मल्लाह भी दे देता है. 

पिछले कुछ सालों में बसपा ने बुंदेलखंड और बघेलखंड के इलाके में इस समीकरण को हिलाने की कोशिश की है तो अब उपेंद्र कुशवाहा यह काम करते दिखाई पड़ रहे हैं. इस राज्य में कुशवाहा अभी तक परंपरागत तौर पर भाजपा के साथ ही खड़ा रहा है. संभव है उपेंद्र कुशवाहा की यह कोशिश पहली बार में बहुत प्रभाव न डाले, लेकिन कम मार्जिन वाली सीटों पर सत्ताधारी दल के लिए मुश्किल खड़ी कर सकते हैं. यहां भाजपा की मुख्य ताकत भले ही ब्राहम्ण-ठाकुर वोट बैंक हो, लेकिन इसकी इमारत पिछड़े और अतिपिछड़े वोट पर ही खड़ी है. 

इसी तरह उत्तर प्रदेश में केशव मौर्या को मुख्यमंत्री नहीं बनाए जाने से भले ही बीजेपी से नाराजगी नहीं हो, लेकिन उसे धोखा होने का दर्द है. यहां मथुरा से लेकर बुंदेलखंड तक कुशवाहा समाज का अच्छा खास वोट बैंक है. अगर यहां भी उपेंद्र कुशवाहा अपनी स्वीकार्यता बढ़ा पाए तो सत्ताधारी दल के सामने मुश्किल खड़ी हो सकती है. झारखंड में भी उपेंद्र कुशवाहा अपनी सक्रियता लगातार बढ़ाए हुए हैं. वहां भी कुर्मी के साथ कुशवाहा का भी गिरिडीह, हजारीबाग-चतरा इलाके में बड़ा दबदबा है. आने वाले दिनों में उपेंद्र कुशवाहा के सामने उत्तर भारत में कृषक समाज में अस्मिता पैदा करने की चुनौती होगी.

कृषि संकट की वजह से यह समाज जो लगातार पिछड़ता रहा है, उससे निकलने का रास्ता राजनीति में सामाजिक न्याय की पूरी अवधारणा को लागू कर ही हो सकता है. इसे गैर यादव ओबीसी समझने लगा है. शुरूआती दौर को अगर छोड़ दें तो चार ओबीसी कार्यकर्ताओं को नेता बनाने का दावा नीतीश कुमार नहीं कर सकते हैं. अब तो लोग यह मानने लगे हैं कि नीतश कुमार और उनकी सरकार एक खास वर्ग के निर्देश और नियंत्रण में काम कर रही है. इस वजह से भी पिछड़ा वर्ग का मोहभंग नीतीश कुमार से हुआ है. ऐसे समय में उपेंद्र कुशवाहा का एनडीए के साथ रहने या नहीं रहने का निर्णय काफी हद तक कृषक समाज की राजनीतिक और आर्थिक अस्मिता को तय करेगा.

(लेखक राहुल कुमार पत्रकारिता का स्थापित करियर छोड़ने के बाद बिहार में शिक्षा क्षेत्र में काम कर रहे हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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