नीरव मोदी के पीएनबी के 11500 करोड़ रुपये लेकर भागने के बाद क्रेडिट इंफॉर्मेशन ब्यूरो ऑफ इंडिया लिमिटेड (सीआईबीआईएल) की तरफ से मिले डाटा के मुताबिक 9339 कर्जदारों ने भारतीय बैंकों के 1,11,738 करोड़ रुपए जानबूझकर नहीं चुकाए.
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नई दिल्ली : नीरव मोदी के पीएनबी के 11500 करोड़ रुपये लेकर भागने के बाद क्रेडिट इंफॉर्मेशन ब्यूरो ऑफ इंडिया लिमिटेड (सीआईबीआईएल) की तरफ से मिले डाटा के मुताबिक 9339 कर्जदारों ने भारतीय बैंकों के 1,11,738 करोड़ रुपए जानबूझकर नहीं चुकाए. कर्ज के इस आंकड़े में सरकारी बैंकों की हिस्सेदारी 93,357 करोड़ रुपए है. साल 2013 में यह रकम 25410 करोड़ रुपए थी. यानी पिछले पांच साल में 67,947 करोड़ रुपये नहीं चुकाए गए. नीरव मोदी के बाद रोटोमैक के विक्रम कोठारी का नाम सामने आया. उन पर कई बैंकों के 3695 करोड़ रुपये की हेराफेरी करने का आरोप है. इससे पहले विजय माल्या एसबीआई समेत अन्य बैंकों के 8000 करोड़ रुपए लेकर भाग गया.
मोदी जोखिम लेने वाले नेता
हिंदी के एक प्रतिष्ठित अखबार में 'द प्रिंट' के एडिटर इन चीफ शेखर गुप्ता लिखते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इंदिरा गांधी के बाद देश की राजनीति में जोखिम लेने वाले सबसे बड़े नेता हैं. उन्होंने लिखा पीएम मोदी से जहां साहस दिखाने की अपेक्षा की जा रही है वह इंदिरा गांधी का ही कदम था. उन्होंने अपने लेख में लिखा कि 1969 में इंदिरा गांधी ने कांग्रेस का विभाजन किया तो उन्होंने बड़े व्यावसायिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा कर दी. 1991 के सुधार तक और अधिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया. सारी बीमा कंपनियों के राष्ट्रीयकरण और विकास संबंधी वित्तीय संस्थाएं सरकारी स्वामित्व की होने के साथ उन्होंने औपचारिक वित्तीय क्षेत्र पर सरकार का पूरा नियंत्रण स्थापित कर दिया.
लोकलुभावन रास्ते पर जाना आसान होता है
शेखर गुप्ता अपने लेख में लिखते हैं कि लोकलुभावन रास्ते पर जाना आसान होता है. लेकिन इसे उलटना चुनौतीपूर्ण, जोखिमभरा और अलोकप्रिय होता है. बहादुर सुधारक ही ऐसा करते हैं. वह लिखते हैं कि 1991 में नरसिंह राव और मनमोहन सिंह ने कुछ ऐसा किया और बाद में यशवंत सिन्हा व जसवंत सिंह के साथ अटल बिहारी वाजपेयी ने यह किया.
प्रधामंत्री मोदी को विरासत में ऐसे बैंक मिले, जिन्हें इंदिरा ने उस समय दिवालिया हालत में अधिग्रहित किया था. चार साल बाद वे बैंकों में ताजा पूंजी लगा रहे हैं, करदाताओं का पैसा देश के धनवान, सबसे बिगड़े हुए और भ्रष्ट लोगों के लोन पर बर्बाद करेंगे.
23 साल पहले शुरू हुआ एचडीएफसी
उन्होंने लिखा कि देश के सार्वजनिक क्षेत्र के 21 बैंक अब भी देश की वित्तीय व्यवस्था के केंद्र में हैं. उन्होंने एक उदाहरण देते हुए लिखा कि एसबीआई समेत सभी 21 बैंकों की बाजार पूंजी निजी क्षेत्र के एचडीएफसी बैंक से कम है. आपको बता दें कि एचडीएफसी की शुरुआत करीब 23 साल पहले हुई थी और इस समय उसकी बाजार पूंजी 50 हजार करोड़ है. इंदिरा गांधी के प्रभाव वाले दिनों में जैसा होता था, इस बार भी कुछ नहीं होगा. फायदा होगा तो सिर्फ ज्वेलर मोदी जैसे लोगों का.
अधिकतर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को लूटा गया
भारतीय बैंकिंग समय-समय पर कर्ज के संकट से गुजरती है. वह लिखते हैं कि आप किसी भी मौके पर भारतीय डिफॉल्टरों की कलंक-सूची देखेंगे तो कुछ लोग बार-बार दिखाई देंगे. इसका केवल एक ही कारण है कि वे फिर से उन्हीं सरकारी बैंकों तक पहुंचने में कामयाब हो जाते हैं, उसी प्रकार के बढ़ा-चढ़ाकर बताए प्रोजेक्ट के प्रस्ताव लेकर और कर्ज चुकाने में नाकाम रहते हैं. उन्हें यह बखूबी पता है कि हमारी अर्थव्यवस्था में कर्ज माफी योग्य होता है. जो बैंक लूटे गए हैं उनमें अधिकतर सार्वजनिक क्षेत्र के हैं.
धनी वर्ग को जरूरत से ज्यादा पैसा दिया गया
वह लिखते हैं कि इंदिरा गांधी का इरादा चाहे जो रहा हो पर बैंकों के राष्ट्रीयकरण से गरीबों को फायदा नहीं हुआ. 1969 में इंदिरा गांधी ने यह कहकर बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया कि वे सिर्फ धनी लोगों को ऋण दे रहे हैं और गरीब उपेक्षित हैं. राष्ट्रीयकरण के 50वें वर्ष में उन्हीं बैंकों का इसलिए भट्टा बैठ रहा है कि उन्होंने बिना सवाल पूछे धनी वर्ग को जरूरत से ज्यादा पैसा दे दिया. इस नादानी को न सिर्फ जारी रखने बल्कि उसमें करदाता के 2.11 लाख करोड़ रुपए भी देने को आप क्या कहेंगे?
पीएनबी महाराष्ट्र के शुगर बेल्ट के किसी राजनीतिक ठग का कोई छोटा सहकारी बैंक नहीं है. यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा बैंक है. दुनिया के कुछ सबसे धनी चोरों ने इसे इतने वर्षों में खाली कर दिया इतने ऑडिट या सरकारी सदस्यों वाला बोर्ड भी इसे पकड़ नहीं पाया. यह बहुत बड़ी राष्ट्रीय शर्मिंदगी है. इसलिए मोदी को इनसे पिंड छुड़ा लेना चाहिए. आज की तारीख में यह लोकप्रिय कदम होगा. इसके लिए उन्हें गांधी-नेहरू घराने के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण सदस्य को दोष देने का संतोष भी मिलेगा. इस संकट का वे क्या इस्तेमाल करते हैं यह उन पर है.
('द प्रिन्ट' के एडिटर-इन-चीफ के लेख के आधार पर)