राजस्‍थान का 'राज' तय करते आए हैं ये रजवाड़े, जानिए कितना बड़ा है इनका सियासी रसूख
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राजस्‍थान का 'राज' तय करते आए हैं ये रजवाड़े, जानिए कितना बड़ा है इनका सियासी रसूख

इस बार के राजस्‍थान विधानसभा चुनाव 2018 में कौन-कौन से रजवाड़ों ने ताल ठोंकी और अगली सरकार बनाने में उनकी भूमिका कितनी अहम होगी.

राजस्‍थान विधानसभा चुनाव के परिणाम 11 दिसंबर 2018 को आएंगे. (फाइल फोटो)

राजस्थान के रजवाड़ों (Royal Families) की राजनीतिक विरासत काफी रोचक रही है. यहां करीब 18 रजवाड़े हैं जिनमें आधे से ज्‍यादा रजवाड़े अलग-अलग चुनाव में अपनी किस्‍मत आजमाते रहे हैं. रजवाड़ों के राजनीति में आने का रास्‍ता महाराजा ऑफ जोधपुर हनवंत सिंह राठौड़ ने खोला. वह 1952 में निर्दलीय चुनाव लड़े. कुछ और राजाओं ने चुनाव में निर्दलीय प्रत्‍याशी के तौर पर हिस्‍सा लिया. बाद में जयपुर की महारानी गायत्री देवी ने इस लीक को तोड़ा. उन्‍होंने सियासी दल के साथ अपनी राजनीति की शुरुआत की. 

इनमें कई रजवाड़ों को कांग्रेस ने जगह दी. इस विरासत को बाद में उनके उत्‍तराधिकारियों ने भी जारी रखा. हालांकि बाद में कुछ रजवाड़े कांग्रेस छोड़ जनसंघ और फिर बीजेपी के साथ चले गए. आइए जानते हैं इस बार के राजस्‍थान विधानसभा चुनाव 2018 में कौन-कौन से रजवाड़ों ने ताल ठोंकी और अगली सरकार बनाने में उनकी भूमिका कितनी अहम होगी.

जोधपुर के शाही परिवार ने दिखाया रास्‍ता
जैसा की हमने आपको बताया कि राजस्‍थान के रजवाड़ों के राजनीति में आने की शुरुआत जोधपुर के महाराज हनवंत सिंह ने की थी. फिलवक्‍त रियासत के युवराज गज सिंह और युवराज्ञी चंद्रेश कुमारी कटोच राजनीति में सक्रिय हैं. चंद्रेश कुमारी कटोच कांग्रेस में है जबकि गज सिंह निर्दलीय चुनाव लड़ते हैं. महाराज हनवंत सिंह ने 1952 में अखिल भारतीय राजराज्‍य परिषद पार्टी बनाई थी ताकि विधानसभा और लोकसभा दोनों चुनावों में हिस्‍सा लिया जा सके. उनकी इलाके में अच्‍छी पैठ थी. लेकिन उसी साल एक प्‍लेन क्रेश में उनकी जान चली गई. उसी साल गज सिंह ने रियासत और राजनीति दोनों की कमान संभाल ली. वह 1990 से 1992 के बीच राज्‍यसभा सदस्‍य रहे थे. उनकी बड़ी बहन चंद्रेश कुमारी कटोच कांग्रेस की केंद्र सरकार में संस्‍कृति मंत्री रह चुकी हैं. उनकी शादी राजा आदित्‍य देव चंद कटोच से हुई थी. वह 1984 में हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा से लोकसभा चुनाव जीती थीं. वह 2009 में जोधपुर से चुनाव लड़ीं और जीतीं लेकिन 2014 के चुनाव में अपनी सीट नहीं बचा पाईं.

जयपुर की गायत्री देवी ने दी नई दिशा
जयपुर के रजवाड़े की तीसरी महारानी गायत्री देवी ने सी. राजागोपालाचारी की पार्टी से राजनीतिक शुरुआत की थी. 1962 के लोकसभा चुनाव में जयपुर निर्वाचन क्षेत्र से उन्‍होंने ऐतिहासिक जीत दर्ज की. वह 1971 तक यहां से चुनाव जीतती रहीं. 1967 में उनकी पार्टी का जनसंघ में विलय हो गया और 70 के दशक में उन्‍होंने राजनीति से संन्‍यास ले लिया. उनके स्‍टेपसन भवानी सिंह ने 1 बार चुनाव लड़ा लेकिन हार गए. इसके बाद उनकी बेटी दिया कुमारी ने 2013 में राजनीति में कदम रखा. उन्‍हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक जनसभा में बीजेपी की सदस्‍यता देने का ऐलान किया था. वह राजस्‍थान विधानसभा की सदस्‍य हैं और सवाई माधोपुर सीट का प्रतिनिधित्‍व कर रही हैं. 

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रॉयल फैमिली की दिया कुमारी,रसेश्वरी राज्यलक्ष्मी और सिद्धी कुमारी (साभार: facebook)

कोटा के रजवाड़े बीजेपी के साथ
कोटा के महाराज बृजराज सिंह दो बार लोकसभा सदस्‍य रहे और फिर राजनीति से विदा ले ली. उनके बेटा इजयराज सिंह राजनीति में सक्रिय हैं. वह 2009 में कोटा लोकसभा सीट से चुनाव जीते थे लेकिन 2014 में हार गए. इसके बाद वह और उनकी पत्‍नी कल्‍पना देवी बीजेपी के साथ आ गए. देवी ने इस बार विधानसभा चुनाव में हिस्‍सा लिया है, जिसका परिणाम 11 दिसंबर को आएगा.

डुंगरपुर ने बनाया था यूनाइटेड स्‍टेट ऑफ राजस्‍थान
इस रियासत के राजा लक्ष्‍मण सिंह ने कुछ अन्‍य रजवाड़ों के साथ मिलकर मार्च 1948 में यूनाइटेड स्‍टेट ऑफ राजस्‍थान का गठन किया था. वह राज्‍यसभा सदस्‍य भी रहे. कुछ वर्ष तक स्‍वतंत्र पार्टी के अध्‍यक्ष भी रहे. चितौड़ सीट से विधानसभा चुनाव जीतने के बाद वह 1977 से 1979 तक विधानसभा स्‍पीकर रहे. उनके ग्रैंडसन और डुगरपुर रियासत के क्राउन प्रिंस हर्षवर्धन सिंह 2016 से राज्‍यसभा सदस्‍य हैं.

धौलपुर से चुनाव लड़ती थीं वसुंधरा राजे
राजस्‍थान की मुख्‍यमंत्री वसुंधरा राजे इस रियासत से ताल्‍लुक रखती हैं. वह ग्‍वालियर रॉयल फैमिली के महाराज जीवाजीराव सिंधिया की बेटी हैं. उनका विवाह धौलपुर परिवार के महाराज राना हेमंत सिंह से हुआ था. लेकिन बाद में दोनों अलग हो गए. राजे 1984 से राजनीति में हैं. 1985 में उन्‍होंने पहला विधानसभा चुनाव जीता. वह 5 बार लोकसभा चुनाव भी जीत चुकी हैं. उन्‍हें 2003 में राजस्‍थान के सीएम की गद्दी मिली थी और फिर 2013 में. 2003 से वह झालरापटन सीट से चुनाव लड़ रही हैं. उनके पुत्र दुष्‍यंत सिंह 2014 में झालावार बरन सीट से लोकसभा चुनाव जीते थे.

करौली का पूरा रजवाड़ा सियासत में
करौली के महाराज कृष्‍ण चंद्र पाल और उनकी पत्‍नी रोहिणी कुमारी दोनों राजनीति में सक्रिय हैं. कुमारी 2008 में एमएलए बनी थीं.

भरतपुर स्‍टेट का है अलग इतिहास
भरतपुर स्‍टेट के महाराज बृजेंद्र सिंह 1962 में एमपी रहे थे. उनके पुत्र विश्‍वेंद्र सिंह इस समय डीग कुम्‍हेर सीट से विधायक हैं. इसके बाद वह कई बार कांग्रेस और बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़े. उनकी पत्‍नी दिव्‍य कुमारी भी पूर्व लोकसभा सदस्‍य रह चुकी हैं.

जैसलमेर में राजेश्‍वरी राज्‍य लक्ष्‍मी फिर आई राजनीति में
जैसलमेर के महारावल रघुनाथ सिंह बहादुर ने सबसे पहले राजनीति में कदम रखा. वह 1957 में बाड़मेर से लोकसभा के लिए चुने गए थे. 1980 में महारावल बृजराज सिंह के चाचा चंद्रवीर सिंह एमएलए बने. इसके बाद परिवार सक्रिय राजनीति से बाहर हो गया. अब बृजराज सिंह की पत्‍नी राजेश्‍वरी राज्‍य लक्ष्‍मी ने यह विधानसभा चुनाव लड़ा है. राजेश्वरी का संबंध नेपाल के सिसोदिया राणा घराने से है. उनकी शादी 1993 में जैसलमेर घराने में हुई थी.

अलवर के शाही परिवार की है लंबी राजनीतिक विरासत
अलवर का शाही परिवार लंबे समय से राजनीति में है. महाराज तेज सिंह अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के अध्‍यक्ष रहे थे. यह भी माना जाता है कि वह राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ (RSS)को फंड भी देते थे. हालांकि वह राजनीति में ज्‍यादा समय तक सक्रिय नहीं रहे. उनकी बहू महेद्र कुमारी, जो बुंदी की महारानी थीं, अलवर सीट से लोकसभा सदस्‍य रह चुकी हैं. उनके पुत्र जितेंद्र सिंह कांग्रेस के बड़े नेता हैं. वह यूपीए सरकार में केंद्रीय मंत्री भी रह चुके हैं.

बीकानेर की भी भूमिका अहम
बीकानेर राजस्‍थान का 10वां रजवाड़ा है. महाराज करणी सिंह 1952 में सक्रिय राजनीति में आए. उनकी पोती सिद्धी कुमारी बीजेपी में हैं. वह 2008 और 2013 में बीकानेर ईस्‍ट से चुनाव जीत चुकी हैं. इस रजवाड़े की भी राजस्‍थान की सियासत में अहम भूमिका रही है.

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