सरल शब्दों में समझें समलैंगिकता पर सुप्रीम कोर्ट का पूरा फैसला, 5 बातें
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सरल शब्दों में समझें समलैंगिकता पर सुप्रीम कोर्ट का पूरा फैसला, 5 बातें

कोर्ट ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 एलजीबीटी के सदस्यों को परेशान करने का हथियार था, जिसके कारण इससे भेदभाव होता है. हालांकि कोर्ट ने ये भी स्पष्ट किया कि पशुओं के साथ किसी तरह की यौन क्रिया भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत दंडनीय अपराध बनी रहेगी. 

अब भारत में समलैंगिकता अपराध नहीं है.

नई दिल्ली: भारत में अब समलैंगिकता अपराध नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए कहा कि समलैंगिकता अपराध नहीं है. देश की सबसे बड़ी अदालत की संविधान पीठ ने सहमति से दो वयस्कों के बीच बने समलैंगिक यौन संबंध को एक मत से अपराध के दायरे से बाहर कर दिया है. 

1. कोर्ट ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 एलजीबीटी के सदस्यों को परेशान करने का हथियार था, जिसके कारण इससे भेदभाव होता है. हालांकि कोर्ट ने ये भी स्पष्ट किया कि पशुओं के साथ किसी तरह की यौन क्रिया भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत दंडनीय अपराध बनी रहेगी. न्यायालय ने कहा कि पशुओं और बच्चों के साथ अप्राकृतिक यौन क्रिया से संबंधित धारा 377 का हिस्सा पूर्ववर्त लागू रहेगा. 

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2. सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को आंशिक रूप से निरस्त कर दिया, क्योंकि इससे समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है. कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के एक हिस्से को, जो सहमति से अप्राकृतिक यौन संबंध को अपराध बताता है, तर्कहीन, बचाव नहीं करने वाला और मनमाना करार दिया है. सु्प्रीम कोर्ट ने कहा कि एलजीबीटी समुदाय को अन्य नागरिकों की तरह समान मानवीय और मौलिक अधिकार हैं.

3. सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं की तरफ से दलील रखी गई कि कोई दो बालिग अपने बेडरूम में अपनी मर्जी से क्या कर रहे हैं, वह क्या संबंध बना रहे हैं, इससे किसी को कुछ लेनादेना नहीं होना चाहिए. क्योंकि यह उनकी निजता है, इसलिए दो बालिगों में सहमति से अप्राकृतिक संबंध को अपराध नहीं माना जाए. यानि कि इसे 377 IPC की धारा से बाहर कर दिया था. इस धारा में उम्रकैद तक की सजा का प्रावधान है. 

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4. केंद्र सरकार ने सुनवाई के दौरान कहा कि सरकार को इस मामले में अपनी तरफ से कुछ नहीं कहना. सुप्रीम कोर्ट जो भी ठीक समझे वह सरकार को पूरी तरह स्वीकार होगा.

5. चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने अपनी और न्यायाधीश ए एम खानविलकर ओर से कहा कि खुद को अभिव्यक्त नहीं कर पाना मरने के समान है। अदालतों को व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि गरिमा के साथ जीने के अधिकार को मौलिक अधिकार के तौर पर मान्यता दी गई है. जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि 377 को किसी पर थोपना त्रासदी है. इसमें सुधार किए जाने की जरूरत है. LGBT समुदाय को उनके यौनिक झुकाव से अलग करना उन्हें उनके नागरिक और निजता के अधिकारों से वंचित करना है. जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि एलजीबीटी समुदाय को औपनिवेशिक कानून के जंजाल में नहीं फंसाया जाना चाहिए. गे, लेस्बियन, बाय-सेक्सुअल औऱ ट्रांस्जेंडर सबके लिए नागरिकता के एक समान अधिकार हैं. जस्टिस रोहिंटन नरीमन ने कहा कि यह फैसला संसद द्वारा पारित मेंटल हेल्थकेयर एक्ट पर आधारित है. इस अधिनियम में संसद ने कहा कि समलैंगिकता मानसिक विकार नहीं है.

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मालूम हो कि दिल्ली हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका पर फरवरी 2009 में फैसला सुनाते हुए कहा था कि दो बालिगों के बीच अप्राकृतिक यौन संबंध अपराध है. हाईकोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किया गया था.

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