INDvsPAK: मैदान पर ऐसे लड़ो कि फिर लड़ने के लिए कुछ न बचे
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INDvsPAK: मैदान पर ऐसे लड़ो कि फिर लड़ने के लिए कुछ न बचे

भारत और पाकिस्‍तान के बीच मैच देखना सब चाहते हैं, लेकिन होने कोई नहीं देता.

दोनों देशों के बीच लंबे समय से आमने-सामने की सीरीज नहीं हो रही है.(फाइल फोटो)

आज शाम भारत और पाकिस्तान के बीच वन डे क्रिकेट मैच होगा. एक ऐसा मैच जिसे देखना सब चाहते हैं, लेकिन होने कोई नहीं देता. इसीलिए तो दोनों देशों के बीच लंबे समय से आमने-सामने की सीरीज नहीं हो रही है. भारत जब इस मैच में उतरेगा तो खिलाड़ियों के दिमाग में इंग्लैंड में हुई लंबी, थका देने वाली हार की खटास होगी, तो वहीं दर्शकों को सिर्फ यह याद रहेगा कि 15 महीने पहले चैंपियन्स ट्रॉफी में जिस पाकिस्तान से हारे थे, उसे धूल चटाओ.

  1. एशिया कप में भारत और पाक के बीच हुए अब तक 12 मैच
  2. इनमें से 6 भारत और 5 मुकाबलों में पाक जीता, 1 ड्रॉ रहा
  3. इससे पहले आखिरी भिड़ंत 15 महीने पहले चैंपियन्‍स ट्रॉफी में हुई

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भारत-पाक मैच एक उत्‍सव होता है
एक ऐसे खेल प्रेमी के नाते जिसने भारत और पाकिस्तान के बीच 17 साल के दौरान विश्वकप में हुए सभी पांचों मैच उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर देखे हैं, मुझे ऐसा लगता है कि यह मैच नहीं, एक उत्सव होता है. इस मैच में भारत के खेलप्रेमी सिर्फ जीत नहीं चाहते, वे एक नया किस्सा चाहते हैं. और जब वे मैच देखने बैठते हैं तो साथ में पुराने किस्सों की कमेंट्री करते जाते हैं. इस तरह पुरानी पीढ़ी से नए पीढ़ी के हाथ में पहुंचकर ये किस्से नए हो जाते हैं और क्रिकेट जवान बना रहता है.

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31 अक्टूबर 1984 का वह मैच जो बीच में रुक गया
मैंने न तो वह मैच देखा है जो 31 अक्टूबर 1984 को भारत-पाकिस्तान के बीच हो रहा था और जिसे बीच में ही रोकने का आदेश पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल जियाउल हक ने इसलिए दिया, क्योंकि नई दिल्ली में भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई थी. मैच इसलिए भी रोकना जरूरी था क्योंकि भारत के कप्तान सुनील गावस्कर भी दुख की उस घड़ी में यही चाहते थे.

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जब जावेद मियांदाद को भेंट की गई तलवार
मुझे वह मैच भी याद नहीं है, जिसे मुझसे पहले की पीढ़ी भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट के संतुलन को बदलने वाला मैच बताती है. यह मैच 18 अप्रैल 1986 को शारजाह में हुआ. यहां आखिरी गेंद पर छक्का लगाकर जावेद मियादाद ने भारत के हाथ से जीत छीन ली. उसके वर्षों बाद ऑस्ट्रेलिया के ब्रेट ली ने भी आखिरी गेंद पर छक्का मारकर भारत को हराया. लेकिन किस्सा तो मियादाद का ही याद है. हमें भी और उन्हें भी. क्योंकि जीत के बाद मियादाद को पाकिस्तान में तलवार भेंट कर सम्मानित किया गया.

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हमने तो विश्वकप के मैच देखे और हर मैच में भारत को जीतते देखा. हर मैच के पास अपने किस्से हुए. कभी मियादाद बनाम किरण मोरे और अजहर देखा, कभी वेंकटेश प्रसाद और आमिर सोहेल में झड़प हुई. पिछले विश्वकप का भारत-पाक मैच तो कश्मीर में घूम-घूमकर देखा और सुना. बोट हाउस में, ढाबे पर, रेस्त्रां में, सोनमर्ग के रास्ते में टट्टू पर बैठकर. मैच देखा कम और देखने-सुनने वालों को देखा ज्यादा.

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लेकिन पता है कि इन चुटीले मैचों के बाद मोटे तौर पर प्रतिक्रिया क्या हुई. मैच शुरू होने से पहले पाक के प्रति जो गुस्सा और नफरत का वातावरण होता था, मैच खत्म होने के बाद वही माहौल उल्लास और हंसी मजाक में बदल जाता था. जिन मैचों में हम जीते वहां जीत का गीत और झगड़े के किस्से मन बहलाते थे. और जब चेन्नई टेस्ट जैसी हार मिली तो लाख नफरत के बावजूद लोगों के मुंह से निकला कि पाक में दम है.

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आमने-सामने होने पर आदमी दुश्‍मन नहीं प्रतिद्वंद्वी बन जाता है
क्योंकि जब इंसान आमने-सामने होता है तो उस तरह की नफरत नहीं कर सकता, जैसी कि वो एक-दूसरे से आंख मिलाए बिना कर सकता है. आदमी जब आदमी से नजर मिलाता है और देर तक जूझता है तो वह दुश्मन की जगह प्रतिद्वंद्वी बन जाता है. भावनाएं बनी रहती हैं, लेकिन विवेक के रोशनदान भी खुल जाते हैं. और सबसे बड़ी चीज यह होती है कि जब हम पाकिस्तान को हरा लेते हैं, तो हमें उस तरह का दिमागी सुकून मिलता है जो हमारे जेहन में मैदाने-जंग की फतह के रूप में दर्ज होता है. जब यह सुकून मिल जाता है तो दुश्मनी की भावना कम हो जाती है.

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असल में खेलों की बुनियाद ही यही है. 20वीं सदी के महान दार्शनिक बर्ट्रेन्ड्र रसेल खेलों का मनोविज्ञान कुछ इसी तरह बताते हैं. वह कहते हैं कि आदमी के भीतर कुदरती तौर पर हिंसा होती ही है. पुराने जमाने में यही हिंसा कबीलों की लड़ाई में सामने आती थी. बाद में जब आदमी सभ्य हुआ तो उसने खेलों का ईजाद किया. शारीरिक खेलों के दौरान बहुत सी ऊर्जा और हिंसा शरीर से निकल जाती है. हिंसा का इस तरह विसर्जन किसी को हानि नहीं पहुंचाता, बल्कि शरीर और मन को तरोताजा करता है.

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पाकिस्तान के बारे में हमारे मन में भी इसी तरह की हिंसा सामूहिक रूप से भरी है. क्रिकेट के बहाने सवा सौ करोड़ लोगों की हिंसा सामूहिक रूप से निकल जाती है. उसके बाद हार हो या जीत, एक खास किस्म की नकारात्मक ऊर्जा का विसर्जन हो जाता है. जीत मिलती है तो जोश चढ़ता है और हार मिलती है तो अगले मैच का इंतजार छोड़ जाती है. इसके साथ ही दुश्मन देश के कुछ जीते-जागते चेहरे हमारी स्मृति में छोड़ जाती है, जिन्हें हम लाख चाहकर भी काल्पनिक दुश्मन जैसा भयानक नहीं समझ पाते. वे खिलाड़ी के तौर पर हमारे मन में रहते हैं. मनुष्य की स्मृति में मनुष्य की इस तस्वीर का अंकन बहुत खुशनुमा चीज है. यह खुशनुमा चीज, यह क्रिकेट के मैच, इतनी बार हों कि हमारी नफरत और गुस्से की पोटली यहीं रीत जाए. इसीलिए चाहता हूं कि आज दोनों टीमें ऐसे लड़ें, कि लड़ने के लिए कुछ न बचे.

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