44 राष्ट्रीय राइफल्स के पूरे कैंपस में 15 ऐसे डॉग्स हैं. लेकिन सबसे अच्छी बात ये है कि आर्मी डॉग यूनिट के थॉरो ब्रेड विदेशी नस्ल के मंहगे डॉग्स नहीं हैं. ये शुद्ध देशी डॉग्स हैं जो इन्हीं कैंप्स के आसपास पैदा हुए पले बढ़े और अब देश की सेना के साथ कदम-ताल कर रहे हैं.
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श्रीनगरः आतंकवादियों के गढ़ माने जाने वाले दक्षिण कश्मीर के शोपियां में 44 राष्ट्रीय राइफल्स के गेट पर पहुंचते ही आपकी नज़र यहां के सबसे चौकस और खतरनाक संतरी पर पड़ती है..ये राजू है और ये कश्मीर में पाया जाने वाला एक आम देशी डॉग है. लेकिन थोड़ी सी फौजी ट्रेनिंग और थोड़े से फौजी राशन से ये एक डरावने संतरी में बदल चुका है. ये बर्फबारी से भरी हुई सर्दियों की अंधेरी रातों में भी इतना ही चौकसा रहता है. जब तक ये ड्यूटी पर है तब तक मेन गेट पर तैनात संतरी इस बात को लेकर आश्वस्त रहता है कि मेन गेट के पास तक बिना इसकी नज़र में आए किसी का आना नामुमकिन है.
44 राष्ट्रीय राइफल्स के पूरे कैंपस में 15 ऐसे डॉग्स हैं. लेकिन सबसे अच्छी बात ये है कि आर्मी डॉग यूनिट के थॉरो ब्रेड विदेशी नस्ल के मंहगे डॉग्स नहीं हैं. ये शुद्ध देशी डॉग्स हैं जो इन्हीं कैंप्स के आसपास पैदा हुए पले बढ़े और अब देश की सेना के साथ कदम-ताल कर रहे हैं. ये भारतीय सेना के जुगाड़ का एक शानदार उदाहरण है यानि कम संसाधनों में अच्छी ड्यूटी करने का तरीक़ा. राष्ट्रीय राइफल्स की यूनिट्स में आर्मी डॉग यूनिट के डॉग्स आमतौर पर नहीं होते हैं. ज़रूरत पड़ने पर सड़कों में छिपी बारूदी सुंरगें तलाश करने या ट्रैक करने के लिए डॉग्स को लाया जाता है. लेकिन कश्मीर की बर्फबारी वाली बेहद ठंडी रातों में बड़े इलाक़े में फैले कैंप्स की सुरक्षा करना अपने-आप में एक चुनौती होती है. ही वक्त में ये डॉग्स बेहद मददगार साबित होते हैं.
सबको तय इलाका दे दिया जाता है..इनमें अपने इलाक़े की सुरक्षा करने की कुदरती आदत होती है और अगर रात के वक्त कोई अजनबी उस इलाक़े में आ जाये तो फ़िर उसकी मुसीबत तय समझिए. 44 राष्ट्रीय राइफल्स के कमांडिंग अफसर कर्नल डीएस नेगी कहते हैं कि इन डॉग्स को हम तब से सहारा देते हैं जब ये बहुत छोटे होते हैं. कुछ ही महीने बाद ये अपनी ड्यूटी करने के लिए तैयार हो जाते हैं. सैनिक कैंपों पर आत्मघाती हमले करने के लिए आतंकवादी हर कोशिश करते हैं क्योंकि किसी सैनिक कैंप पर हमला उन्हें बहुत ज्यादा पब्लिसिटी देता है.
सैनिक कैंप अक्सर बड़े इलाक़े में फैले होते हैं और ख़राब मौसम और रात के अंधेरे में उसकी चौकसी बेहद मुश्किल काम है. चौकसी में ज़रा सी भी ढील का बेहद बुरा नतीज़ा हो सकता है. सूबेदार भंवर सिंह पुराने सिपाही हैं जिन्होंने पिछले 20 सालों में कई बार कश्मीर में आतंकवादियों का मुक़ाबला किया है. वह कहते हैं कि ये डॉग्स हर वक्त चौकस रहते हैं और किसी भी आहट पर तुरंत प्रतिक्रिया करते हैं. इसलिए ये लगभग नामुमकिन हो जाता है कि बिना इनकी नज़र में आए कोई कैंप में दाखिल हो सके चाहे मौसम कितना भी ख़राब हो या रात कितनी भी अंधेरी हो.
इन डॉग्स को केवल कुछ दिनों की ट्रेनिंग की ज़रूरत होती है और उसके बाद ये अपनी ड्यूटी करने के लिए तैयार हो जाते हैं. इन्हें कैंप्स के महत्वपूर्ण हिस्सों जैसे गेट, नीची फेंसिंग, हथियारखाने और बैरकों के बाहर तैनात कर दिया जाता है. कैंप में ही पले-बढ़े होने के कारण ये हर सैनिक को अच्छी तरह पहचानते हैं और किसी भी अनजान शख्स को देखते ही आक्रामक हो जाते हैं. इसी इलाक़े में पैदा होने के कारण इन्हें बहुत कम शारीरिक परेशानियां आती हैं. इलाज़ कोई भी जानवरों का डॉक्टर कर देता हैं. इनको पाल-पोस कर बड़ा करने में भी कोई एक्सट्रा खर्च नहीं आता. फौज के राशन के सहारे ही अच्छे-खासे तगड़े हो जाते हैं. सैनिक इनके रहने से लेकर खाने-पीने तक सबकी व्यवस्था करते हैं और इसके बदले में ये देशी कुत्ते उन्हें दे देते हैं सुरक्षा और साथी होने का एक बहुत क़ीमती भरोसा.