अयोध्या केस : जानें सुप्रीम कोर्ट में क्या हुआ
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अयोध्या केस : जानें सुप्रीम कोर्ट में क्या हुआ

पीठ ने पहली नजर में कपिल सिब्बल और राजीव धवन सहित अनेक वरिष्ठ अधिवक्ताओं का यह अनुरोध भी अस्वीकार कर दिया कि इस मामले की संवेदनशीलता और देश के धर्म निरपेक्ष ताने-बाने पर इसके प्रभाव के मद्देनजर इन अपीलों को पांच या सात न्यायाधीशों की पीठ को सौंप दिया जाए.

(फाइल फोटो)

नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय ने सुन्नी वक्फ बोर्ड और अन्य की इन दलीलों को मंगलवार को ठुकरा दिया कि राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद स्थल के मालिकाना हक के विवाद को लेकर दायर अपीलों की सुनवाई 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद कराई जाए और इस मामले में सुनवाई के लिए अगले साल आठ फरवरी की तारीख निर्धारित कर दी. प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर की तीन सदस्यीय विशेष पीठ ने पहली नजर में कपिल सिब्बल और राजीव धवन सहित अनेक वरिष्ठ अधिवक्ताओं का यह अनुरोध भी अस्वीकार कर दिया कि इस मामले की संवेदनशीलता और देश के धर्म निरपेक्ष ताने-बाने पर इसके प्रभाव के मद्देनजर इन अपीलों को पांच या सात न्यायाधीशों की पीठ को सौंप दिया जाए.

पीठ ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सितंबर 2010 के फैसले के खिलाफ दायर 14 दीवानी अपीलों से जुडे एडवोकेट्स आन रिकार्ड से कहा कि वे एकसाथ बैठकर यह सुनिश्चित करें कि शीर्ष अदालत की रजिस्ट्री में सभी जरूरी दस्तावेज दाखिल करने से पहले उनका अनुवाद हो और उन पर संख्या अंकित हो. पीठ ने इस मामले की सुनवाई आठ फरवरी को करने का निश्चय करते हुये वकीलों को निर्देश दिया कि यदि उन्हें कोई दिक्कत आती है तो वे रजिस्ट्री से संपर्क करें. इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने सितंबर, 2010 को 2:1 के बहुमत से अपने फैसले में विवादित भूमि को तीनों पक्षों-_सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाडा और भगवान राम लला के बीच बंटवारा करने का आदेश दिया था.

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इस फैसले के खिलाफ दायर अपीलों पर  मंगलवार को सुनवाई के दौरान सुन्नी वक्फ बोर्ड और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का प्रतिनिधित्व कर रहे वकीलों ने बहुत ही नाटकीय अंदाज में कार्यवाही का लगभग बहिष्कार करने की धमकी दे डाली जब पीठ ने राम लला विराजमान का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता सी एस वैद्यनाथन से कहा कि वह बहस शुरू करें.

प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने जब इस मामले को वृहद पीठ को सौंपने का अनुरोध ‘नही, नहीं’ कहते हुए ठुकरा दिया तो सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से कपिल सिब्बल ने कहा, ‘‘मैं मानता हूं कि इस न्यायालय के किसी भी निर्देश का बहुत ही गंभीर दूरगामी असर होगा और ये अपील पांच या सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ को सौंप दी जानी चाहिए. नहीं, नहीं, मत कहिए. कृपया इस मामले की सुनवाई इसके प्रभाव को ध्यान में रखते हुये कीजिये .’’ 

सिब्बल ने कहा, ‘‘कृपया इसके लिये जुलाई 2019 की तारीख निर्धारित कीजिये और हम आपको भरोसा दिलाते हैं कि हम एक बार भी सुनवाई स्थगित करने का आग्रह नहीं करेंगे. न्याय सिर्फ होना नहीं चाहिए, यह हुआ दिखाई भी पडना चाहिए.’’ इस पर पीठ ने सवाल किया, ‘‘यह किस तरह की दलील है? आप जुलाई 2019 कह रहे हैं. क्या इसे इससे पहले नहीं सुना जाना चाहिए?’’ एक अन्य पक्ष की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने इन अपीलों पर सुनवाई की ‘जल्दी’ पर सवाल उठाये और कहा कि यह भी तथ्य है कि राम मंदिर का मुद्दा भाजपा के चुनाव घोषणा पत्र का हिस्सा था.

इस पर पीठ ने तल्खी से कहा, ‘‘आप कह रहे हैं कि इसकी सुनवाई कभी नहीं की जानी चाहिए क्योंकि पिछले सात साल में इसकी सुनवाई नहीं हुई.’’ इससे पहले, सुनवाई शुरू होते ही सिब्बल ने कहा कि इन मामलों के दस्तावेजी विलेख पूरे नहीं हो सके क्योंकि ये 19 हजार से अधिक पन्नों का रिकार्ड है. आज की तारीख तक, रजिस्ट्री ने ‘‘हमे दो अलग अलग डिस्क- 18 सितंबर, 2017 और सात नवंबर, 2017 को दी हैं. हालांकि अभी भी कई साक्ष्य और दूसरे दस्तावेज मिलने शेष हैं जो इन डिस्क में नहीं हैं और जिनका अभी भी इंतजार है.’’ उन्होंने कहा कि उच्च न्यायालय 781 फैसलों पर निर्भर रहा है और उन्हें संकलित करना होगा.

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उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से अतिरिक्त सालिसीटर जनरल तुषार मेहता और राम लला विराजमान की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता सी एस वैद्यनाथन ने इस दलील का विरोध किया और कहा कि लिखित प्रक्रिया पूरी हो चुकी है और आवश्यक दस्तावेज दाखिल करने के बाद दिये जा चुके हैं. यही नहीं, उन्होंने कहा कि न्यायालय ने भी यह स्पष्ट कर दिया था कि इस मामले की सुनवाई पांच दिसंबर से शुरू होगी.

सिब्बल ने इस मामले में कुछ और समय का अनुरोध करते हुये कहा, ‘‘आप मामले की तैयारी कैसे करेंगे यदि लिखित प्रक्रिया ही पूरी नहीं है.’’ हिन्दू ‘महंत’ की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने भी इस दलील का यह कहते हुये विरोध किया कि संबंधित पक्षों को आज बहस शुरू करनी थी.

पीठ ने कहा, ‘‘पिछली बार भी आपने (सिब्बल) यही कहा था. आज फिर आप इसे ही दोहरा रहे हैं. आप (पक्ष) हमे बतायें कि उच्च न्यायालय के समक्ष मामला क्या था.’’ सिब्बल और धवन सहित अन्य वकीलों ने समय देने का अनुरोध करते हुये कहा कि उन्हें मामले की तैयारी के लिये समय दिया जाये. दवे ने इसका समर्थन करते हुये कहा कि न्यायालय को ‘जाल’ में नहीं फंसना चाहिए. उन्होंने न्यायमूर्ति सी एस कर्णन प्रकरण की तरह ही इसमें भी वृहद पीठ गठित करने की मांग की. इस पर पीठ ने टिप्पणी की, ‘‘यह किस तरह की दलील है.’’ 

धवन ने कहा कि एक फैसले में कहा गया है कि मस्जिदें इस्लाम का अभिन्न हिस्सा हैं और यह मामला भी मस्जिद से ही संबंधित है. इसलिये इस तथ्य के मद्देनजर तीन न्यायाधीशों की पीठ इन अपील की सुनवाई नहीं कर सकती. साल्वे और तुषार मेहता ने इन अपीलों पर शीर्ष अदालत में सुनवाई की ‘जल्दी’ जैसी टिप्पणी पर कडी आपत्ति की. तुषार मेहता ने कहा, ‘‘मैं इस पर कडी आपत्ति करता हूं कि शीर्ष अदालत जल्दी में है. सात साल बीत गये हैं और पीठ ने नहीं कहा कि उसे जल्दी है.’’ 

धवन ने तो यहां तक कह दिया कि इन अपीलों की सुनवाई अगले साल अक्तूबर तक (जब प्रधान न्यायाधीश सेवानिवृत्त होंगे) पूरी नहीं होगी. पीठ ने जैसे ही दुबारा कहा, ‘‘यह किस तरह का तर्क है.’’ तो वह तुरंत इससे पीछे हट गये. पीठ ने सवाल किया, ‘‘जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय मूल वाद की सुनवाई 90 दिन में पूरी कर सकता है तो इसमें यहां ज्यादा लंबा समय क्यों लगना चाहिए. ’’ पीठ ने साथ ही यह भी कहा, ‘‘दोनों पक्षों के पास इस न्यायालय के लिये संदेश था. परंतु हम जानते हैं कि क्या करना है. इस न्यायालय को यह कहकर हमें संदेश मत दीजिये कि हम बाहर क्या संदेश भेजेंगे.’’ साल्वे ने कहा कि वह इस तरह की दलीलें सुनकर ‘आहत’ हैं जबकि हकीकत तो यह है कि ये अपीलें 2010 से ही लंबित हैं.

इस न्यायालय ने इससे पहले भी कई संवेदनशील मामलों को निबटाया है और बाहर पडने वाले इसके प्रभाव यह फैसला नहीं करेंगे कि मामले की सुनवाई कब होगी. उन्होंने कहा कि इस मामले की सुनवाई संविधान को करनी है या नहीं, यह तो पीठ बाद में तय कर सकती है यदि भविष्य में ऐसे सवाल उठते हैं. 

(इनपुट - भाषा)

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