प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने पिछले साल 11 अक्तूबर को इस याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रखा था.
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नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार (9 मार्च) को एक ऐतिहासिक फैसले में असाध्य रोग से ग्रस्त मरीजों की स्वेच्छा से मृत्यु वरण की वसीयत को मान्यता दे दी, लेकिन उसने इसके लिये कुछ दिशानिर्देश प्रतिपादित किये हैं जो इस संबंध में कानून बनने तक प्रभावी रहेंगे. प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा कि असाध्य बीमारी की अवस्था में स्वेच्छा से मृत्यु वरण के लिए पहले से वसीयत लिखने की अनुमति है. संविधान पीठ ने गैर सरकारी संगठन कॉमन कॉज की जनहित याचिका पर यह फैसला सुनाया.
संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति ए के सीकरी, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ और न्यायमूर्ति अशोक भूषण शामिल हैं. इन सभी न्यायाधीशों ने प्रधान न्यायाधीश के फैसले में लिखे दिशानिर्देशों से सहमति व्यक्त की है. संविधान पीठ ने अपने दिशा निर्देशों में यह भी स्पष्ट किया है कि इस वसीयत का निष्पादन कौन करेगा और किस तरह से मेडिकल बोर्ड स्वेच्छा से मृत्यु वरण के लिए स्वीकृति प्रदान करेगा.
A five-judge Constitution bench of the Supreme Court, headed by Chief Justice of India Dipak Misra passed the order allowing passive #Euthanasia with guidelines
— ANI (@ANI) March 9, 2018
शीर्ष अदालत ने कहा कि लाइलाज बीमारी से ग्रस्त मरीज के मामले में उसके निकटतम मित्र और रिश्तेदार पहले से ही निर्देश दे सकते हैं और इसका निष्पादन कर सकते है. इसके बाद मेडिकल बोर्ड इस पर विचार करेगा. प्रधान न्यायाधीश ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि इस प्रकरण में चार और निर्णय हैं, लेकिन सभी न्यायाधीशों में सर्वसम्मति थी कि चूंकि एक मरीज को लगातार पीड़ादायक अवस्था में रहने की अनुमति नहीं दी जा सकती, जबकि वह जीवित नहीं रहना चाहता, इसलिए असाध्य बीमारी से ग्रस्त ऐसे मरीज की लिखित वसीयत को अनुमति दी जानी चाहिए.
SC said that 'living will' be permitted but with the permission from family members of the person who sought passive #Euthanasia and also a team of expert doctors who say that the person's revival is practically impossible.
— ANI (@ANI) March 9, 2018
शीर्ष अदालत ने 2011 में मुंबई के एक सरकारी अस्पताल की नर्स अरुणा शानबाग के मामले में स्वेच्छा से मृत्यु वरण को मान्यता दी थी. न्यायालय ने इस निर्णय में ऐसे मरीज के जीवन रक्षक उपकरण हटाने की अनुमति दी थी जो सुविज्ञ फैसला करने की स्थिति में नहीं है. शीर्ष न्यायालय ने अपनी गाइडलाइन में यह भी कहा कि स्वस्थ व्यक्ति डीएम की निगरानी में लिविंग विल लिख सकता है. लिविंग विल न होने की स्थिति में पीड़ित के रिश्तेदार हाईकोर्ट जा सकते हैं, लेकिन हाईकोर्ट भी मेडिकल बोर्ड के आधार पर ही फैसला लेगा.
Human beings have the right to die with dignity: Supreme Court after allowing passive #Euthanasia with guidelines.
— ANI (@ANI) March 9, 2018
केन्द्र ने 15 जनवरी, 2016 को कहा था कि विधि आयोग की 241 वीं रिपोर्ट में कुछ सुरक्षा मानदंडों के साथ स्वेच्छा से मृत्यु वरण की अनुमति देने की सिफारिश की थी और इस संबंध में असाध्य बीमारी से ग्रस्त मरीज का उपचार (मरीजों का संरक्षण और मेडिकल प्रैक्टीशनर्स) विधेयक 2006 भी प्रस्तावित है.
‘लिविंग विल’ एक लिखित दस्तावेज होता है जिसमें कोई मरीज पहले से यह निर्देश देता है कि मरणासन्न स्थिति में पहुंचने या रजामंदी नहीं दे पाने की स्थिति में पहुंचने पर उसे किस तरह का इलाज दिया जाए. ‘पैसिव यूथेनेशिया’ (इच्छामृत्यु) वह स्थिति है जब किसी मरणासन्न व्यक्ति की मौत की तरफ बढ़ाने की मंशा से उसे इलाज देना बंद कर दिया जाता है. प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने पिछले साल 11 अक्तूबर को इस याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रखा था.
(इनपुट एजेंसी से भी)