गुंडों के डर से अपनी बात कहना मत छोड़िएगा स्वामी अग्निवेश
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गुंडों के डर से अपनी बात कहना मत छोड़िएगा स्वामी अग्निवेश

स्वामी अग्निवेश संगठित और प्रायोजित भीड़ की हिंसा का सरे बाजार शिकार बन गए.

स्वामी अग्निवेश ने 2011 के भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन में भी हिस्सा लिया था.(फाइल फोटो)

स्वामी अग्निवेश से पिछली मुलाकात राहुल गांधी की इफ्तार पार्टी में हुई थी. एक पत्रकार के नाते जरूरत के हिसाब से उनसे बात होती रही है. लेकिन लंबी बातचीत तब हुई थी, जब कैलाश सत्यार्थी को नोबल शांति पुरस्कार मिला था. तब स्वामीजी से बातचीत इसलिए जरूरी थी, क्योंकि बचपन बचाने के जिस काम के लिए सत्यार्थी को नोबल पुरस्कार मिला, उसकी शुरुआत किसी जमाने में उन्होंने स्वामी अग्निवेश की अगुआई में ही की थी. बाद में वक्त के साथ दोनों के रास्ते अलग हो गए. इसके अलावा नक्सलियों से बातचीत में मध्यस्थ की भूमिका और दिल्ली में पनपने वाले तकरीबन हर जनआंदोलन में स्वामी अग्निवेश का दिखना, उन्हें जानने वालों के लिए सामान्य बात है.

यह सब बातें इसलिए याद करनी पड़ रही हैं ताकि पता चले कि अग्निवेश क्या काम करते रहे हैं और उनका उठना-बैठना किन लोगों के बीच है. इन्हीं आर्यसमाजी स्वामी अग्निवेश को 17 जुलाई को झारखंड में बुरी तरह पीट दिया गया. भगवा गमछे डाले जिस गिरोह ने उन पर हमला किया, उसने उनके बूढ़े शरीर और साधु वेश का भी लिहाज नहीं किया.

मॉब लिंचिंग
स्वामी अग्निवेश संगठित और प्रायोजित भीड़ की हिंसा का सरे बाजार शिकार बन गए. और शिकार भी उस वक्त बने जब तीन घंटे पहले ही देश की सबसे बड़ी अदालत ने दिल्ली में केंद्र सरकार से कहा कि इस देश को भीड़ तंत्र में नहीं बदला जा सकता. अदालत ने सरकार से कहा कि वह मॉब लिंचिंग के खिलाफ अलग से कानून बनाए. अदालत ने यह भी कहा कि धर्मनिरपेक्षता संविधान का अविभाज्य अंग है, उसका संरक्षण किया जाए.

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लेकिन अदालत जो बात कह रही है और संविधान की किताब में जो बाद खुदी हुई है, उसे देश का एक खास वर्ग अब नहीं मानता. इस तबके का संवाद में कोई यकीन नहीं है. वाद-विवाद में भी इस वर्ग की रुचि नहीं है. इस वर्ग का सीधा मानना है कि या तो आप मेरे सुर में सुर मिलाइये, नहीं तो थप्पड़, लाठी- गोली खाने के लिए तैयार रहिये. इस वर्ग का इस बात में यकीन नहीं है कि किसी व्यक्ति के विचारों को बेहतर तर्क, संवाद और आचरण के जरिए बदला जा सकता है. यह वर्ग विशुद्ध गुंडागर्दी और दहशत में यकीन करता है, जिसमें देह की भाषा का ही इस्तेमाल किया जाता है.

यह एक खास बर्बर प्रजाति है जो पिछले कुछ साल में भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में तेजी से पनपी है. दुनिया की बात फिर कभी करेंगे, अभी भारत को ही देखें. अभी पिछले दिनों भोपाल में एक महिला को बंधक बनाकर प्रताड़ित करने वाले व्यक्ति को पुलिस ने गिरफ्तार कर, भीड़ से पिटने के लिए छोड़ दिया. जिस दिन स्वामी अग्निवेश की पिटाई हुई, उसके एक दिन पहले बलात्कार के आरोपियों को वकीलों के एक गिरोह ने अदालत परिसर में पीट दिया. पिछले हफ्ते भारत सरकार के एक मंत्री ने जमानत पर छूटे मॉब लिंचिंग के आरोपियों का हार-फूल से स्वागत किया. गौरी लंकेश या कलबुर्गी की हत्या के मामले तो पहले ही सुर्खियों में आ चुके हैं.

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ये सब मामले क्या हैं? गुंडों को कानून पर भरोसा नहीं है, यह तो सामान्य बात है. लेकिन पुलिस और वकीलों को भी कानून पर भरोसा नहीं है. मंत्री को भी मॉब लिंचिंग बुरी नहीं लग रही. देश के अलग-अलग राज्यों में भीड़ किसी भी आदमी को बच्चा चोर होने के शक में मार दे रही है. हर कोई अपनी ड्योढ़ी पर इंसाफ कर रहा है.

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 जंगल का कानून
स्वामी जी भी उसी बर्बर इंसाफ या जंगल के कानून का शिकार हुए हैं. कल इस लेखक ने स्वामीजी की पिटाई पर सोशल मीडिया में एक पोस्ट लिखा. उस पर आई बहुत सी प्रतिक्रियाओं का सार यही था, कि स्वामीजी जिस तरह की बातें कर रहे हैं, उसमें उनके साथ ऐसा ही होना चाहिए था. ज्यादातर टिप्पणीकार उच्चशिक्षा प्राप्त पुरुष थे. और उन्हें इस बात में कुछ गलत नहीं लग रहा था कि किसी आदमी से असहमत होने का मतलब यह नहीं है कि उसकी पिटाई कर दी जाए.

आंख के बदले आंख की नीति
इन उच्चशिक्षा प्राप्त लोगों के दिमाग में नागरिकशास्त्र की उस किताब की कोई अहमियत नहीं है, जो उन्हें छठवीं से आठवीं क्लास में ही पढ़ा दी गई होगी. उनके लिए गांधीजी की इस बात का भी कोई मतलब नहीं है कि आंख के बदले आंख की नीति पूरी दुनिया को अंधा बना देगी. उनके लिए फ्रांस के महान विचारक वॉल्टेयर की इस बात का तो कोई मतलब है ही नहीं, कि “मैं तुमसे असहमत हूं, लेकिन तुम्हारी अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा के लिए अपनी जान दे दूंगा.” इन पढ़े लिखे लोगों से कोई कैसे पूछे कि अगर इन तीनों बातों में आपका यकीन नहीं है तो आप निपट अनाड़ी हैं और लोकतंत्र का विचार आज तक आप तक नहीं पहुंचा है.

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दयानंद सरस्‍वती और आर्य समाज
सोशल मीडिया पर जो टिप्पणियां मुझे मिलीं, उसमें आरोप लगाया गया कि स्वामी जी लगातार ऐसी टिप्पणियां कर रहे थे, जो उन्हें भगवान और हिंदू धर्म के स्थापित कर्मकांड के खिलाफ लग रही थीं. लेकिन सवाल यह है कि दयानंद सरस्वती ने दो शताब्दी पहले आर्य समाज की स्थापना ही हिंदू धर्म में सुधार के लिए की थी. जब आर्यसमाज मूर्ति पूजा को नहीं मानता और वेदों में वर्णित निराकार ब्रह्म की उपासना करता है तो एक आर्यसमाजी से क्यों उम्मीद करनी चाहिए कि वह मूर्तिपूजा की प्राणप्रतिष्ठा करेगा.

हिंदुत्व की जेबी अवधारणा
हिंदुत्व की अपनी जेबी अवधारणा के साथ चलने वाले गुंडों के इस गिरोह को आर्यसमाज की शिक्षाएं हिंदू धर्म के विरुद्ध लग रही हैं. मजे की बात है कि आर्यसमाज की शिक्षाओं को नापसंद करने वाला यह तबका दयानंद सरस्वती का सम्मान करता है और आर्यसमाज से भी उसका बैर नहीं है. इस विरोधाभास की वजह यह है कि उन्हें न वेदों से मतलब है, न आर्य समाज से और न हिंदू धर्म से. जो चीज उनके लिए सुविधा की होती है उसे वे हिंदू धर्म मान लेते हैं और जो उन्हें असुविधाजनक लगती है, उसे वे हिंदू विरोधी घोषित कर देते हैं.

'सांच कहों तो मारन धावे, झूठ कहों तो जग पतयावे'
उनकी इन हरकतों को देखकर लगता है कि आज अगर संत कबीर होते तो ये लोग उनके साथ क्या करते. कबीर जब पूछते कि “पाथर पूजें हरि मिलें तो मैं पूजों पहाड़” तो जाहिर है, इनके हिंदुत्व को चोट लग जाती. ठीक उसी तरह जैसे कबीर के जमाने में सिंकदर लोदी को चोट लगने का मिथक प्रचलित है.

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कबीर के ही बहाने आगें बढ़ें तो “सांच कहों तो मारन धावे, झूठ कहों तो जग पतयावे”. कबीर बखूबी जान रहे थे कि सच कहने पर भीड़ मारने के लिए दौड़ेगी. यह भीड़ जैसे कबीर के पीछे दौड़ी, उसी तरह रामचरित मानस के कवि गोस्वामी तुलसीदास को बनारस के पंडों का बैर झेलना पड़ा. मीरा बाई को अपने मन की बात कहने पर जहर का प्याला पीना पड़ा. आर्यसमाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती को खुद कितना संघर्ष झेलना पड़ा, यह जग जाहिर है. उन्हीं के समकालीन राजा राममोहन राय को भी सच कहने पर बहुत जूझना पड़ा. और अंत में भारत के सबसे बड़े नेता और दुनिया के महानतम मनुष्यों में शामिल महात्मा गांधी को तो आज के गुंडों के वैचारिक पुरखों ने गोली ही मार दी.

वह बंदूक नहीं बनी जो विचार की हत्या कर सके
अग्निवेश अगर आज पिटे हैं, तो वे संघर्ष की उसी महान परंपरा का हिस्सा बन गए हैं, जो भारत में सनानत धर्म जितनी ही पुरानी है. सरकार और कानून इन गुंडों को कितना रोक पाता है, यह सरकार जाने. समाज इन लोगों के बढ़े हुए मन को कब गिराता है, यह समाज जाने. लेकिन जिन लोगों को लगता है कि वे सच बोल रहे हैं, उन्हें पूरी ताकत से अपने हिस्से की सच्‍चाई दुनिया के सामने रखनी चाहिए. और उस सचाई की सजा भुगतने को तैयार रहना चाहिए. क्योंकि अंतत: समाज की नई परंपरा का निर्माण ये विद्रोही लोग ही करते हैं, न कि वे लोग जो इन विद्रोहियों को मारने दौड़ते हैं. इसलिए स्वामीजी आप अपनी बात कहते रहिए. आपके जैसे दूसरे लोग भी अपनी बात कहते रहें. अगर आपकी बात में दम होगा तो देर-सवेर लोग आपके पीछे आएंगे. वैसे भी अब तक वह बंदूक नहीं बनी जो विचार की हत्या कर सके.

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