'कामवाली' से 'हेल्प' बन जाने भर से क्या बदलाव आएगा
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'कामवाली' से 'हेल्प' बन जाने भर से क्या बदलाव आएगा

'कामवाली' से 'हेल्प' बन जाने भर से क्या बदलाव आएगा

'छोटी जात मचाए उत्पात...' यह बात कहने वाले शख्स दिल्ली शहर के एक पॉश इलाके में रहते हैं. अगर शिक्षा की बात की जाए तो वो भी सामाजिक तौर पर अच्छी है. ये सूक्ति उन्होंने अपने यहां काम आने वाली घरेलू कर्मचारी के लिए कही थी . अमीता उनके घर बचपन से काम कर रही है. अमीता को पीलिया हो गया जिसकी वजह से उसको छुट्टी लेनी पड़ी हालांकि इसके बावजूद भी वो कई दिनों तक काम पर आती रही. पहले उसे चिकन पॉक्स हुआ तो दो दिन छुट्टी करके काम पर लौट आई. ऐसा करने के पीछे की सिर्फ यही वजह थी कि उसे डर था कि कहीं उसकी दिहाड़ी ना काट ली जाए. वो आती रही और आराम नहीं करने की वजह से उसे पीलिया हो गया.

अब उसका छुट्टी करना मजबूरी हो गया था. उसके लीवर में काफी सूजन हो गई थी. दिल्ली के जिस शिक्षित शख्स ने अमीता के बारे में उक्त टिप्पणी की थी उनके परिवार को खासी 'दिक्कतों' का सामना करना पड़ रहा था क्योंकि ये परिवार अपने हाथ से एक गिलास पानी लेने की ज़हमत भी नहीं उठाता. उनका मानना था कि अगर वो आराम कर भी रही थी  तो अपनी जगह किसी और को भेज देती. घर में कितनी दिक्कत हो रही है, खाना नहीं खा पा रहे हैं, घर पूरा गंदा पड़ा है, बर्तन भी नहीं धुल पाते हैं जैसी कई तकलीफों को बयान करने के दौरान वो शख्स इस कदर बहे कि उन्हें इस बात का ख्याल एक बार भी नहीं आया कि जो लड़की उनके घर में बचपन से काम कर रही है वो किस तकलीफ से गुज़र रही है.

कई बार अमीता का ये दावा करना की वो बचपन से उस घर  में काम कर रही हैं आपको 'हेल्प' फिल्म की मिन्नी की याद दिला देता है जो अपनी पाककला की वजह से मिसीसिपी के जैक्सन में प्रसिद्ध है. या घरेलू कर्मचारियों की कहानियों को उजागर करने वाली इस फिल्म में स्कीटर की नैनी की याद दिला देता है जिसने बचपन से स्कीटर को पाला पोसा है लेकिन महज़ एक छोटी सी गलती की वजह से उसे निकाल दिया जाता है. गलती यह कि नैनी की बेटी घर की मालकिन के मना करने के बावजूद किचेन में घुस जाती है. 

1963 में अमेरिका में फैले रंगभेद पर आधारित इस फिल्म में दिखाया गया है कि ये घरेलू कर्मचारी जिन्हें अंग्रेजी में हेल्प भी कहा जाता है, तथाकथित मालिकों के बच्चों को संभाल सकती हें, उनके घर में खाना बना सकती है लेकिन उन्हें उनका शौचालय इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं है.बीते दिनों महागुन सोसाइटी में जो कुछ भी हुआ था उसकी सच्चाई तो ज़ाहिर होते होते होगी या शायद असलियत कभी बाहर ही ना निकल पाए लेकिन उस वाकये ने एक सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या यह ज़रूरी नहीं हो गया है कि घरेलू कर्मचारी के काम पर रखने वाले नियमों में एक सख्त रवैया इख्तियार किया जाए जिससे किसी का शोषण होने से रोका जा सके.

वैसे देखा जाए तो इस सोच की शुरूआत वहां से हो जाती है जहां से हमारी शिक्षा की शुरूआत होती है. हमें बचपन से पढ़ाया जाता है मालिक और नौकर दोनों विपरीत शब्द हैं. यही बात पढ़ते पढ़ते हम बड़े होते हैं और हमारे व्यवहार में वो विलोम मानसिकता घर करती जाती है .क्योंकि कई सालों से अगर आप किसी के भी साथ, कैसे भी जुड़े रहे हो, एक रिश्ता कायम हो ही जाता है. एक वक्त के बाद तो जानवरों से भी प्यार हो जाता है. तो क्या अमीता या उसके जैसे किसी का अस्तित्व उनके लिए इतना भी नहीं है? उसे इस बात का कोई हक नहीं है कि वो बीमार पड़ सके, उसे इस बात का भी हक नहीं है कि वो एक दिन के लिए भी अपने बच्चे को घुमाने के लिए छुट्टी ले सके. क्योंकि जो उसे पैसे दे रहे हैं उन्हें अपने शरीर को काम करने के लिए तकलीफ देनी पड़ जाएगी जो करना उनका काम नहीं है क्योंकि इस काम के लिए तो कुछ जातियां और कुछ तबके ही निर्धारित किए गए हैं ना.

पिछले दिनों झारखंड से आई हुई एक बच्ची के साथ उसकी मकान मालिक की ज्यादती की खबर सुर्खियां बनी थी. उसके कुछ दिनों बाद एक राष्ट्रीय पार्टी के सांसद और उनकी पत्नी की प्रताड़नाओं का कच्चा चिट्ठा खुल कर सामने आया. इस ज़िम्मेदार परिवार ने अपने अकड़ और मालिकाना मस्ती में उस लड़की की ज़िंदगी तक छीन ली. दो साल पहले एक घटना सामने आई थी जहां डॉक्टर दंपति झारखंड से ही आई एक बच्ची को घर में बंद करके विदेश छुट्टी मनाने चले गए थे और मात्र तेरह साल की वो बच्ची भूखे प्यासे घर में तड़पती रही, बाद में किसी एन जी ओ की मदद से उसे बाहर निकाला गया. वो बच्ची तो बाहर निकाल ली गई लेकिन मालिक बनने का ख्वाहिशमंद और गुलामपंसद तबका इस मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाया है.

दिल्ली की रहने वाली श्वेता अपने अनुभवों का साझा करते हुए बताती हैं कि किस तरह उनके घर के काम में मदद करने वाली एक महिला ने दिल्ली की एक सोसाइटी के घर में काम करना शुरू किया. इस वजह से उसे श्वेता के घर पहुंचने में भी देर हो जाती थी, फिर अचानक एक दिन वो श्वेता के घर जल्दी काम करने आ गई. श्वेता के पूछने पर वो फूट फूट कर रोने लगी और अपनी बांहों में पड़े हुए खरोंचों के निशान दिखाती हुए उसने बताया कि किस तरह सोसाइटी के उन लब्ध प्रतिष्ठित शख्स ने उसके साथ जबर्दस्ती की और वो वहां से बड़ी मुश्किल से बच कर निकली थी. जब उस घरेलू सेविका ने नीचे मौजूद गार्ड को पूरा वाकया बताया तो गार्ड ने बड़ी ही सहजता के साथ उससे बोला कि वहां काम पकड़ने से पहले पूछना तो चाहिए था, उस आदमी का ऐसा ही रिकॉर्ड है. 

इसी तरह मुंबई में रहने वाले अमित बताते हैं कि वो जब मुंबई रहने पहुंचे तो उन्होंने अपने दोस्त के यहां रहना शुरू कर दिया था. अमित के दोस्त की मां भी उन्हीं के साथ ऱहती थी. लेकिन इस घर में कोई भी घरेलू कर्मचारी कभी टिकती नहीं थी. अमित को पहले पहल तो कुछ समझ नहीं आया लेकिन दो महीने गुज़र जाने के बाद उन्हें पता चला कि उनके दोस्त अपने अंतर्वस्त्र तक घरेलू सेविका को धोने के लिए दे दिया करते थे.

यही नहीं उन्हें लगता था कि थोड़े बहुत पैसे देकर वो उसके साथ संबंध भी कायम कर सकते हैं जिसके लिए वो तरह तरह के हथकंडे अपनाया करते थे. धीरे –धीरे उन्हें अपने घर में कोई काम करने के लिए कर्मचारी मिलना ही मुश्किल हो गया. शाहनी आहूजा पर भी इसी मामले में केस भी चल रहा है लेकिन बहुत कम ऐसी महिलाएं होती है जो इन ज्यादतियों के लिए आवाज़ उठाती हैं क्योंकि उनके साथ तमाम तरह की मजबूरियां जुड़ी होती हैं. वह एक डर के साये में जीती हैं कि कहीं उनका काम ना छूट जाए. 

वैसे भी काम के बदले में पैसा देने वाला खुद को मालिक ही समझता है, वो ये मान कर चलता है कि नौकर के रूप में एक गुलाम खरीदा है जो बगैर उफ्फ किये हुए काम करता जाएगा. वो बीमार नहीं पड़ेगा, उसे भूख नहीं लगेगी, उसे छुट्टी नहीं मिलेगी, उसे अपने परिवार के लिए वक्त निकालने का अधिकार नहीं है. पहले उसे मालिक की ज़रूरतों को पूरा करना है उसके बाद अगर वक्त मिल जाए तो अपने बारे में सोचना है और ऐसा करते वक्त अगर कहीं मालिक का मूड बदल जाए तो वो तुरंत अपनी सोच को किनारे करते हुए मालिक की ज़रुरतों पर वापिस ध्यान देने लग जाए.

बताया भी जाता है कि भारत में नहीं पूरे विश्व में पहले गुलाम चौराहों पर बिकते थे. उनकी बोलियां आलू प्याज की तरह लगती थी. धीरे-धीरे हम जागरुक हो गए और चौराहों पर बिकने वाले गुलाम अब होम डिलीवरी के इस युग में एजेंसी के माध्यम से सीधे घर पर पहुंचाए जाने लगे हैं. हाल ही में दिल्ली महिला आयोग की स्वाति मालीवाल ने बताया कि किस तरह प्लेसमेंट एजेंसी के नाम पर मानव तस्करी का धंधा चल रहा है. जितनी एजेंसी पंजीकृत है उससे कई गुना एजेंसियां फर्जीवाड़ा करके चलाई जा रही है. ऐसी ही एक मामले में आयोग ने दिल्ली के मुखर्जी नगर के एक घर से एक लड़की को छुड़वाया था.बाद में लड़की ने जानकारी दी कि उसकी मां की मौत के बाद उसके चाचा ने उसे शकूरपुर की एक एजेंसी को बेच दिया था. बाद में प्लेसमेंट एजेंसी ने 38 हज़ार रूपए लेकर उस लड़की को मुखर्जी नगर के एक घर में नौकरी पर लगा दिया था. यहां उसे आठ महीने से वेतन भी नहीं मिला था और उसके साथ आए दिन मारपीट की जाती थी.

इसके अलावा अमीता जैसी लड़कियां भी हैं जो अपने परिवार और अपने बच्चे के सुखद भविष्य के लिए किसी के झूठे बर्तन, मैले कपड़े, गंदे फर्श को अपनी मेहनत और ईमानदारी से चमकाती है. अमीता अपने मालिक के दामाद की तबियत बिगड़ने पर अपना घर परिवार भूलकर पूरी ईमानदारी के साथ उसकी सेवादारी करती है लेकिन जब यही अमीता कुछ दिनों बाद अपने बच्चे के सुखी जीवन के लिए एक दिन का उपवास रखती है और उसके लिए छुट्टी करती है तो उसी घर में से ये आवाज़ें आती है कि “छुट्टी क्यों ली..बड़ा अपने लड़के को प्राइम मिनिस्टर बनाएगी.“ ऐसे में हमें शुरू से शुरू करते हुए इस सोच की नींव रखनी होगी कि नौकर शब्द को मालिक का उल्टा बताना कितना सही है बल्कि ये तो मालिक का पूरक होता है.

ये वही पूरक है जो "बावर्ची' फिल्म में नायक के रूप में जब एक बिखरे हुए परिवार के बीच में पहुंचता है तो परिवार के बीच एक तार जोड़ देता है. बस ये समझना बेहद ज़रूरी है कि नाम बदलने के बजाय किसी व्यक्ति या किसी तबके के प्रति सामाजिक सोच में बदलाव बेहद ज़रूर है.

 

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