Zee जानकारी : (कानपुर) अस्पताल में बच्चे को कंधे पर लादकर दौड़ता रहा पिता, बिन इलाज बेटे न दम तोड़ा
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Zee जानकारी : (कानपुर) अस्पताल में बच्चे को कंधे पर लादकर दौड़ता रहा पिता, बिन इलाज बेटे न दम तोड़ा

कानपुर ना तो उत्तर प्रदेश का पिछड़ा इलाक़ा है, और ना ही कानपुर में स्वास्थ्य सुविधाओं और अस्पतालों की कोई कमी है। कानपुर उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ से 80 किलोमीटर दूर है और देश की राजधानी दिल्ली से 450 किलोमीटर दूर है। लेकिन इसके बाद भी कानपुर में 12 साल के इस बच्चे ने अपने पिता के कंधों पर दम तोड़ दिया। इन तस्वीरों में एक पिता अपने 12 साल के बेटे को कंधे पर लादकर कानपुर के सरकारी अस्पताल हैलट के अंदर दौड़ता रहा। उसका बेटा दो दिनों से बुखार से तप रहा था, लेकिन अस्पताल की इमरजेंसी में बैठे डॉक्टरों ने उसका इलाज करने के बजाए उसे बच्चों के अस्पताल में ले जाने को कहा, जो इस अस्पताल के कैंपस में ही है। 

Zee जानकारी : (कानपुर) अस्पताल में बच्चे को कंधे पर लादकर दौड़ता रहा पिता, बिन इलाज बेटे न दम तोड़ा

नई दिल्ली : कानपुर ना तो उत्तर प्रदेश का पिछड़ा इलाक़ा है, और ना ही कानपुर में स्वास्थ्य सुविधाओं और अस्पतालों की कोई कमी है। कानपुर उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ से 80 किलोमीटर दूर है और देश की राजधानी दिल्ली से 450 किलोमीटर दूर है। लेकिन इसके बाद भी कानपुर में 12 साल के इस बच्चे ने अपने पिता के कंधों पर दम तोड़ दिया। इन तस्वीरों में एक पिता अपने 12 साल के बेटे को कंधे पर लादकर कानपुर के सरकारी अस्पताल हैलट के अंदर दौड़ता रहा। उसका बेटा दो दिनों से बुखार से तप रहा था, लेकिन अस्पताल की इमरजेंसी में बैठे डॉक्टरों ने उसका इलाज करने के बजाए उसे बच्चों के अस्पताल में ले जाने को कहा, जो इस अस्पताल के कैंपस में ही है। 

एमरजेंसी से बच्चों के अस्पताल के बीच की दूरी 250 मीटर की है, लेकिन इस दूरी के लिए ना तो इस व्यक्ति को कोई एंबुलेंस दी गई और ना ही कोई स्ट्रेचर। मजबूरन इस व्यक्ति ने अपने बच्चे को कंधे पर उठाया और बच्चों के अस्पताल की तरफ दौड़ पड़ा। लेकिन तब तक इस बच्चे की मौत हो गई थी। बाद में ये व्यक्ति अपने बच्चे को लेकर एक प्राइवेट हॉस्पिटल भी गया और वहां पता चला कि अगर बच्चे को 20 मिनट पहले लाया जाता तो शायद उसकी जान बचाई जा सकती थी। 

कालाहांडी में तो दाना माझी की पत्नी की मौत हो चुकी थी और फिर उनके शव को ले जाने के लिए अस्पताल की तरफ से कोई एंबुलेंस नहीं मिली थी, लेकिन कानपुर में अगर इस बच्चे को वक्त पर इलाज मिल जाता, और अगर डॉक्टर उसे अस्पताल के अंदर चक्कर नहीं लगवाते तो शायद उसकी जान बच जाती। 

आपमें से बहुत से लोग हमसे ये भी पूछ रहे हैं कि जब ये मजबूर पिता अपने बेटे के शव को लेकर दौड़ रहा था, तो हमारे रिपोर्टर या कैमरामैन ने उसकी मदद क्यों नहीं की? तो हम आपको बता दें कि इन तस्वीरों को ज़ी न्यूज़ के कैमरामैन या रिपोर्टर ने रिकॉर्ड नहीं किया है। ये तस्वीरें हमें सोशल मीडिया से मिलीं, इसके बाद वहां हमने अपने रिपोर्टर को भेजकर इस मामले की जांच की और आपके लिए इस ख़बर की रिपोर्टिंग की।

आपको जानकर हैरानी होगी कि चिकित्सा से संबंधित लापरवाही चाहे कितनी भी बड़ी क्यों ना हो, कानून के मुताबिक दोषी को सिर्फ 2 साल की सज़ा ही हो सकती है। 

-किसी भी तरह की लापरवाही की सूरत में IPC की धारा 336, 337 और 338 के तहत केस चल सकता है। 
-जिसमें 6 महीने से 2 वर्ष तक की सज़ा और जुर्माने का प्रावधान है। 
-चिकित्सा से संबंधित लापरवाही में IPC की धारा 304-A के तहत भी केस चल सकता है। 
-जिसमें अधिकतम 2 साल की सज़ा और ज़ुर्माने का प्रावधान है। 

हमारे देश के संविधान ने देश के हर नागरिक को गरिमा के साथ जीने का हक दिया है, लेकिन सवाल ये है कि क्या हमारी व्यवस्था इतनी सड़ चुकी है कि वो 12 साल के एक बच्चे को समय पर इलाज तक मुहैया नहीं करा सकती? 

-भारत में इस वक्त स्वास्थ्य के क्षेत्र में skilled human resource यानी इस पेशे से जुड़े हुए 64 लाख Trained लोगों की कमी है। 
-132 करोड़ की जनसंख्या वाले इस देश में इस वक्त सिर्फ 20 हज़ार 306 सरकारी अस्पताल हैं, जो बहुत कम हैं।
-यानी एक सरकारी अस्पताल पर करीब 61 हज़ार लोगों का बोझ है। 
-अगर अस्पताल में मौजूद beds की बात की जाए तो देश में 1 हज़ार 833 लोगों पर सिर्फ 1 bed मौजूद है। 

सरकारी अस्पतालों का हाल बेहाल है, इसीलिए लोगों को अपना इलाज प्राइवेट अस्पतालों में करवाना पड़ता है। देश के ग्रामीण इलाकों के 72 प्रतिशत लोग और शहरी इलाकों के 79 फीसदी लोग अपना इलाज प्राइवेट अस्पतालों में करवाते हैं।  

-भारत में 1400 लोगों पर एक डॉक्टर है जबकि World Health Organisation के मुताबिक 1000 लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए। 
-भारत को अगर इस अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरना है तो 2020 तक देश को 4 लाख अतिरिक्त डॉक्टरों की ज़रूरत होगी। 
-करीब 20 करोड़ की जनसंख्या पर उत्तर प्रदेश में सिर्फ 861 सरकारी अस्पताल हैं। 
-यानी उत्तर प्रदेश का हर सरकारी अस्पताल करीब 2 लाख 30 हज़ार लोगों का इलाज कर रहा है। 
-इन सरकारी अस्पतालों में सिर्फ 56 हज़ार बेड्स उपलब्ध हैं यानी सरकारी अस्पतालों के हर बेड पर 3 हज़ार 499 लोग हैं। 

ज़ाहिर है ये आंकड़े चिंता का विषय हैं। वैसे तो हमारा देश मंगल तक पहुंच चुका है और विश्वगुरु बनने के सपने देखता है, लेकिन जब तक देश की स्वास्थ्य वाली समस्या का इलाज नहीं होगा, हम आगे नहीं बढ़ सकते।

कहने को तो हमारा देश निजी संपत्ति के मामले में दुनिया का सातवां सबसे अमीर देश है लेकिन इससे जुड़ा सबसे बड़ा विरोधाभास ये है कि दुनिया के सातवें सबसे अमीर देश में करीब 29 करोड़ लोग ऐसे हैं जो गरीबी रेखा से नीचे हैं और उनके पास खाने के लिए भी पैसे नहीं है। ज़ाहिर है ऐसे लोग अपना इलाज भी नहीं करवा सकते। 

यही वजह है कि हमारे देश में ग़रीब होना किसी 'अपराध' से कम नहीं है क्योंकि हमारा सिस्टम गरीबों के जीवन और उनकी मौत का मज़ाक उड़ाता है और गरीबों की मजबूरियों का तमाशा देखता है। सिस्टम के ऐसे व्यवहार की वजह से अक्सर गरीबों को ये लगने लगता है कि उनकी गरीबी ही उनका अपराध है। ये स्थिति हमें कई ख़बरों में दिखाई देती है और आज कानपुर से आई इस ख़बर में भी हमने यही पीड़ा देखी है। उम्मीद है कि सिस्टम हमारी ख़बर को देखकर जागेगा और इस पीड़ा को अपनी पीड़ा समझेगा। हमारा सिस्टम गरीबों को लेकर इतना संवेदनहीन है कि वो गरीब की मौत को मौत नहीं मानता वो सिर्फ अमीरों और समर्थ लोगों की मौत का ही संज्ञान लेता है और अमीरों के ही आंसू पोछता है। गरीबों के आंसू किसी को दिखाई नहीं देते।

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