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हम देश की मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की बात करेंगे. ये अधिकार Triple तलाक़ के मुद्दे से जुड़े हुए हैं. और अब देश के सामने सवाल ये है कि मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की व्याख्या पर्सनल लॉ के हिसाब से होनी चाहिए या संविधान के हिसाब से? आज हम All India Muslim Personal Law Board के उस लिखित जवाब का विश्लेषण करेंगे, जो उसने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया है.
Triple तलाक़ के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा है कि निक़ाह, हलाला और बहुविवाह न्यायिक दायरे से बाहर हैं, क्योंकि ये क़ुरान के आधार पर है. और इसलिए इसमें किसी भी तरह का बदलाव संभव नहीं है. बोर्ड की दलील है कि Triple तलाक़ एक 'पर्सनल' मुद्दा है, इसलिए ये मूलभूत अधिकारों में नहीं आ सकता. अगर Triple तलाक़ को अवैध करार दिया जाता है तो ये अल्लाह के निर्देशों की अनदेखी होगी और ये पवित्र कुरान को फिर से लिखने के बराबर होगा.
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने ये दलील भी दी है कि सभी मुसलमान पैगम्बर के आदेशों को मानने के लिए बाध्य हैं. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड दलील दे रहा है, कि कई अन्य देशों की तरह अगर Triple तलाक़ ख़त्म किया गया, तो ये भारत के लोकतंत्र को नष्ट करेगा और इससे इस्लाम को मानने वालों के साथ नाइंसाफ़ी हो जाएगी. बोर्ड ने संविधान के Article 25 की आड़ लेते हुए ये दलील भी दी है कि ये अनुच्छेद देश के हर व्यक्ति को अपनी मर्ज़ी से किसी भी धर्म को मानने और उसका अभ्यास करने और प्रचार करने का अधिकार देता है.
लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड संविधान के ही Article 14 को भूल गया, जो ये कहता है कि देश के हर नागरिक के अधिकार बराबर हैं. जबकि अपने लिखित जवाब में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड Article 25 की आड़ ले रहा है. पूरे देश में Triple तलाक़ पर बहुत बहस हो रही है. पिछले वर्ष केन्द्र सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में एक affidavit file किया था, जिसमें सरकार ने Triple तलाक को कानूनी रूप से सही नहीं बताया था. आज हम आपको केन्द्र सरकार के उस affidavit की बड़ी बातें भी बताना चाहते हैं.
सरकार का कहना था कि चाहे कोई व्यक्ति किसी भी धर्म का हो. लेकिन उसके संवैधानिक अधिकार बराबर हैं. एक महिला के सम्मान और उसकी गरिमा के साथ किसी भी तरह का समझौता नहीं किया जा सकता. affidavit में ये भी लिखा था कि अलग अलग धर्मों के personal law महिलाओं की गरिमा से ऊपर नहीं हो सकते. अगर किसी धर्म का Personal law किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन करता है. तो वो अवैध है. Triple तलाक़, निक़ाह-हलाला और एक से ज़्यादा निक़ाह करना. धर्म की मूल भावना के लिए आवश्यक नहीं है.
हम आपको ये भी बता देते हैं कि हलाला का मतलब क्या होता है? इस परंपरा के मुताबिक तलाकशुदा पति-पत्नी अगर फिर से एक दूसरे के साथ निकाह करना चाहें. एक साथ रहना चाहें, तो पत्नी को पहले किसी और के साथ दूसरा निकाह करना होगा और फिर उसके दूसरे पति को उसे तलाक देना होगा. तभी वो अपने पहले पति से दोबारा निकाह कर सकती है.
यानी केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में Triple तलाक़ को गैरकानूनी बता चुकी है, जबकि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अपने Personal Laws में किसी भी तरह की कोई दखलअंदाज़ी नहीं चाहता है. अपनी दलीलों में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड Triple तलाक़ को सीधे अल्लाह और कुरान का निर्देश बता रहा है. जबकि पूरी दुनिया में 22 मुस्लिम देशों ने Triple तलाक़ को बैन किया हुआ है. ये देश भी कुरान को मानने वाले देश हैं, लेकिन इन्होंने Triple तलाक़ को खत्म किया है.
2011 की जनगणना के मुताबिक हमारे देश में 17 करोड़ 22 लाख मुसलमान हैं और इनमें से करीब 8 करोड़ 30 लाख की आबादी मुस्लिम महिलाओं की है। इन करोड़ों मुस्लिम महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए लड़ना पड़ रहा है. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दिए गये लिखित जवाब ने इन महिलाओं की मुश्किल को आसान करने के बजाए और उलझा दिया है.
सुप्रीम कोर्ट में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने 29 पन्नों का जो लिखित जवाब दिया है, उसकी कॉपी हमारे पास है। और अब मैं आपको ये बताना चाहता हूं कि इस जवाब में किन बातों पर ज़ोर दिया गया है? इस जवाब के पेज नंबर 7 पर संविधान के आर्टिकल 25 का हवाला देते हुए ये लिखा हुआ है कि देश का संविधान हर नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता देता है.
एक बार फिर आपको हम ये बताना चाहते हैं कि Article 25 वो ढाल है जिसके पीछे तमाम Personal Laws छिपे हुए हैं. लेकिन केन्द्र सरकार ने अक्टूबर में जो हलफनामा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया था, उसमें सरकार ने ये बात बिलकुल साफ कर दी थी कि अगर संविधान के Article 14 और Article 25 के बीच टकराव की स्थिति आती है. तो Article 14 को प्राथमिकता दी जाएगी. यहां आपको एक बार फिर बता दें कि संविधान का Article 14 ये कहता है कि महिला हो या पुरुष. देश के हर नागरिक के अधिकार बराबर हैं.
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की तरफ से इस जवाब में ये भी लिखा हुआ है कि Triple तलाक का ज़िक्र कुरान में है। और इस्लाम धर्म को मानने वाला हर शख्स. कुरान में लिखी गई बातों को मानने के लिए बाध्य है. ये भी कहा गया है कि कुरान में Polygamy यानी बहुविवाह को जायज़ बताया गया है और एक पुरुष 4 शादियां कर सकता है. लेकिन शर्त ये है कि उस पुरुष को चारों पत्नियों के साथ एक समान व्यवहार करना होगा.
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड दलील दे रहा है, कि कई अन्य देशों की तरह अगर Triple तलाक़ ख़त्म किया गया, तो ये भारत के लोकतंत्र को नष्ट करेगा और इससे इस्लाम को मानने वालों के साथ नाइंसाफ़ी होगी। हमारा सवाल है, कि जब क़ुरान एक है तो क़ानून और व्याख्याएं अलग-अलग कैसे हो सकते हैं.?
क़ुरान का हवाला देकर भारत में मुस्लिम संगठन Triple तलाक़ पर बैन का विरोध करते हैं, लेकिन हमारे पड़ोसी देशों यानी पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित दुनिया के कम से कम 22 मुस्लिम देशों में Triple तलाक़ की इजाज़त नहीं है।
पाकिस्तान में मुस्लिम फैमिली लॉ के Section-7 में Triple तलाक़ पर बैन है. अफगानिस्तान में भी Triple तलाक़ पर बैन है. मोरक्को में बिना अदालती दखल के पत्नी को तलाक़ नहीं दिया जा सकता. इंडोनेशिया में तलाक़ सिर्फ़ कोर्ट के ज़रिये ही लिया जा सकता है. ईरान में जज के दखल से भी मामला न सुलझ पाए. तभी तलाक़ लेना संभव है. इसी तरह अल्जीरिया में सिर्फ़ अदालत के ज़रिये ही तलाक़ दिया जा सकता है. ये कुछ उदाहरण हैं. जिनसे प्रेरणा ली जा सकती है
अब आपको ये समझ में आ गया होगा कि हमारे देश में एक समान कानून यानी Uniform civil Code को लागू करने की मांग क्यों उठती है? और इस मांग का विरोध क्यों होता है. आपने देखा होगा कि जब भी हमारे देश में Uniform civil Code लागू करने की बात होती है, तो इसके खिलाफ तमाम मुस्लिम संगठन खड़े हो जाते हैं. लेकिन इन लोगों को देश की मुस्लिम महिलाओं की फिक्र नहीं है. ये लोग अपनी सुविधा के अनुसार धर्म का इस्तेमाल करते हैं. ऐसे लोगों को मुस्लिम महिलाओं की तकलीफों का अंदाज़ा भी होना चाहिए.
2011 की जनगणना के मुताबिक देश में मुस्लिम महिलाओं की संख्या करीब 8 करोड़ 30 लाख है. और इसमें से सिर्फ 4 करोड़ 30 लाख महिलाएं ही साक्षर हैं. यानी मुस्लिम महिलाओं की आधी आबादी पूरी तरह से अनपढ़ है. 2015 में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन नाम की एक संस्था ने मुस्लिम महिलाओं पर एक सर्वे किया था. इस सर्वे के मुताबिक देश की 55 प्रतिशत मुस्लिम लड़कियों का निकाह 18 वर्ष से पहले ही कर दिया जाता है. जबकि भारत में लड़कियों की शादी की उम्र कानून के हिसाब से 18 वर्ष तय की गई है. 82 फीसदी मुस्लिम महिलाओं के पास कोई संपत्ति या उनका अपना घर नहीं है.
78 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं घर पर ही रहती हैं, और उनकी कोई आमदनी नहीं है. 81 प्रतिशत मुस्लिम महिलाओं को उच्च शिक्षा नहीं मिल पाती है.
हमें लगता है कि अब देश को मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में तेज़ी से काम करना होगा. मुस्लिम महिलाओं के हक़ की आवाज़ उठाने के लिए हमने सकारात्मक काम करना शुरू कर दिया है. आगे भी हम इस मुद्दे पर रिपोर्टिंग करते रहेंगे. और आप और हम मिलकर सिस्टम में बदलाव लाएंगे.