पुलिस सुधारों से लगेगी फर्जी मुठभेड़ पर रोक
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पुलिस सुधारों से लगेगी फर्जी मुठभेड़ पर रोक

इशरत जहां मुठभेड़ केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) द्वारा फर्जी करार दिए जाने के बाद समय-समय पर अलग-अलग राज्यों में होने वाले पुलिस मुठभेड़ों पर सवाल उठने लगे हैं। इशरत जहां मुठभेड़ पर अपने दावों को लेकर सीबीआई और खुफिया ब्यूरो एक-दूसरे के आमने-सामने हैं।

आलोक कुमार राव
इशरत जहां मुठभेड़ केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) द्वारा फर्जी करार दिए जाने के बाद समय-समय पर अलग-अलग राज्यों में होने वाली पुलिस मुठभेड़ों पर सवाल उठने लगे हैं। इशरत जहां मुठभेड़ पर अपने दावों को लेकर सीबीआई और खुफिया ब्यूरो एक-दूसरे के आमने-सामने हैं। उनके आपसी विवाद का हल चाहे जो निकले लेकिन इस प्रकरण ने पुलिस मुठभेड़ों के बारे में नए सिरे से विचार करने के लिए एक नई जमीन तैयार कर दी है।
एक लंबे समय से पुलिस और सुरक्षा बल लोगों को कभी नक्सली तो कभी कुख्यात अपराधी बताकर मुठभेड़ों में मारते आए हैं। मुठभेड़ों के इतिहास पर गौर करें तो इसका चलन सन साठ के दशक में शुरू हुआ था। तब पुलिस की डाकुओं से बीहड़ों में सीधी मुठभेड़ हुआ करती थी और राज्य सरकारें अपने बहादुर पुलिसकर्मियों की हौसलाफजाई एवं उन्हें सम्मानित करने के लिए नगद राशि और समय से पहले पदोन्नति दिया करती थीं। लेकिन बीते दो दशकों में फर्जी मुठभेड़ों की संख्या जिस तरह से बढ़ी है, वह चिंतित करने वाली है और मानवाधिकार की निगरानी करने वाली संस्थाओं की कार्यशैली पर सवाल खड़ी करती है। ऐसी बहुत सारी मुठभेड़े हैं जिन्हें फर्जी माना जा चुका है और कुछ मामलों की जांच चल रही है।
गुजरात के पूर्व गृह मंत्री (मौजूदा भाजपा महासचिव) अमित शाह सोहराबुद्दीन शेख और उसकी पत्नी कौसर बी की फर्जी मुठभेड़ में हत्या के आरोपी हैं। सोहराबुद्दीन को गुजरात पुलिस ने नवंबर 2005 में कथित तौर पर अपहरण करके फर्जी मुठभेड़ में मार गिराया था। वर्ष 2009 में गाजियाबाद जिले के युवक रणवीर सिंह को उत्तराखंड पुलिस ने कथित मुठभेड़ में मार डाला। सीबीआई जांच में यह मुठभेड़ फर्जी निकली। जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर राज्यों खासकर मणिपुर में फर्जी मुठभेड़ की ऐसी कई घटनाएं हैं जो पुलिस और सुरक्षा बलों की इस खतरनाक प्रवृत्ति की ओर इशारा करती हैं। फर्जी मुठभेड़ों की फेहरिस्त देखने पर यह सूची काफी लंबी हो जाएगी। यहां मुठभेड़ों की सूची गिनाना मकसद नहीं, बल्कि इस पर चर्चा करना है कि इस खतरनाक प्रवृत्ति पर रोक कैसे लगाई जा सकती है।
दरअसल, फर्जी मुठभेड़ों की निष्पक्ष जांच के लिए अपने यहां कोई स्वतंत्र निगरानी तंत्र नहीं है। देश में प्रत्येक वर्ष सैकड़ों फर्जी मुठभेड़ की शिकायतें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पास आती हैं लेकिन आयोग के पास शक्तियां और संसाधन सीमित हैं। शिकायतों की जांच के लिए आयोग को पुलिस पर ही निर्भर रहना होता है। ऐसे मामलों में पुलिस अधिकारी आरोपी पुलिसकर्मियों को बचाने का ही प्रयास करते दिखते हैं। जबकि राज्य मानवाधिकार आयोग पूरी तरह से दंतविहीन हैं।

ऐसा भी नहीं है कि अदालतें फर्जी मुठभेड़ों को लेकर सजग नहीं हैं। अभी हाल ही में 12 जुलाई 2013 को मुंबई की एक अदालत ने लखन भैया फर्जी मुठभेड़ मामले में 13 पुलिसकर्मियों को सजा सुनाई है। तो उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले की एक अदालत ने फर्जी मुठभेड़ के एक मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया। यहां पुलिस ने मार्च 1982 में माधोपुर गांव में 12 बेगुनाहों को मार दिया था। अदालत ने इस मामले के दोषी पुलिसकर्मियों को फांसी की सजा सुनाई। देश का यह शायद पहला मामला है जिसमें दोषी पुलिसकर्मियों को फांसी की सजा सुनाई गई है।
फर्जी मुठभेड़ों की जांच प्रक्रिया पर अगर गौर करें तो पाएंगे कि यह प्रक्रिया ही दोषपूर्ण है। मानवाधिकार आयोग के पास यदि कोई इस तरह की शिकायत आती है तो आयोग संबंधित एसएसपी के पास शिकायत की जांच भेजता है। विडंबना है कि जो मुठभेड़ पुलिस के आला अधिकारियों की जानकारी और करीब-करीब उनके हस्तक्षेप से ही अंजाम दी जाती है, उसकी निष्पक्ष जांच की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
कथित फर्जी मुठभेड़ों की निष्पक्ष जांच के लिए सबसे पहले जरूरी है कि इनकी न्यायिक जांच कराई जाए। फर्जी मुठभेड़ों में संलिप्त पुलिसकर्मयों के खिलाफ हत्या का केस दर्ज होना चाहिए। न्यायिक जांच से ही मुठभेड़ों की असलियत सामने आ सकती है। दूसरी चीज, देश में जितना जल्दी हो सके पुलिस सुधारों को लागू किया जाए। पुलिस तंत्र में व्यापक सुधार किए जाने से फर्जी मुठभेड़ों पर काफी हद तक विराम लग सकता है। यह अलग बात है कि पुलिस सुधारों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई बार फटकार लगाए जाने के बाद भी राज्य सरकारों के कानों पर जू नहीं रेंगा है। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी पुलिस सुधारों की राह में सबसे बड़ी बाधा है। फर्जी मुठभेड़ के मामलों में शिकायतों पर त्वरित सुनवाई, तंत्र की जवाबदेही, निष्पक्ष जांच से ही इस पर विराम लग सकता है।

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