10 साल धोखे में रहा देश ?
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10 साल धोखे में रहा देश ?

लोकतन्त्र में सत्ता सामूहिक हिस्सेदारी से मिलती जरूर है, लेकिन सत्ता का संचालन हमेशा से ही केन्द्रीकृत रहा है। हिन्दुस्तान के लोकतांत्रिक ढांचे की ये ऐसी अघोषित परिभाषा रही है जिसे सभी ने माना है। लेकिन पिछला एक दशक इस मायने में अलग रहा है। इस दौर में सत्ता सात रेसकोर्स रोड और दस जनपथ के बीच के चौराहों पर कहीं भटक सी गई लगती है।

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अम्बुजेश कुमार
सत्ता तक पहुंचना आसान नहीं होता, सत्ता में टिकना भी आसान नहीं होता, लेकिन इन सबसे बढ़कर सत्ता का दबाव बर्दाश्त करना लगभग नामुमकिन सा होता है। जो इसे बर्दाश्त कर गया वो मिसाल बन गया। लेकिन हिन्दुस्तान की सियासत बीते एक दशक में कुछ अलग तरह की रही है, यहां सत्ता में प्रत्यक्ष तौर पर जो दिखता है दरअसल वो है नहीं और जो नहीं दिखता उसी के पास पूरी ताकत है। सीधे शब्दों में कहें तो सत्ता का दबाव और सत्ता का स्थायित्व, दोनों का केन्द्र अलग अलग है। विपक्ष सालों से कहता आ रहा है कि दरअसल देश में दो पीएम हैं। एक पीएम जो आधिकारिक तौर पर पीएम हैं और दूसरा पीएम वो जो सुपर पीएम हैं। चुनावी मौसम में दो किताबें आई हैं जो विपक्ष के इन आरोपों पर मुहर लगा रही हैं। अब सवाल ये कि अगर इन किताबों के मजमून का हिसाब किताब सही है, तो सत्ता को इस नई परिभाषा में बांधने की जिम्मेदारी किसकी है।
लोकतन्त्र में सत्ता सामूहिक हिस्सेदारी से मिलती जरूर है, लेकिन सत्ता का संचालन हमेशा से ही केन्द्रीकृत रहा है। हिन्दुस्तान के लोकतांत्रिक ढांचे की ये ऐसी अघोषित परिभाषा रही है जिसे सभी ने माना है। लेकिन पिछला एक दशक इस मायने में अलग रहा है। इस दौर में सत्ता सात रेसकोर्स रोड और दस जनपथ के बीच के चौराहों पर कहीं भटक सी गई लगती है। क्योंकि पूरा देश एक कथित मुखौटे पर अपने नेतृत्व का भ्रम पालता रहा और इस बहाने उसके साथ बार बार छल होता रहा। प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताब `द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर` के मजमून को अगर सच माना जाए तो यकीनन बीते दस सालों में देश अपने शीर्ष सत्ता को लेकर भ्रम का शिकार रहा है। इस भ्रमजाल के चक्रव्यूह को विपक्ष के तीखे बाण भी भेद नहीं पाए, क्योंकि इन बाणों को सियासत के चश्मे से देखा गया।
अब सवाल विपक्ष नहीं वो लोग उठा रहे हैं जो इस सत्तातन्त्र का हिस्सा हुआ करते थे। वो लोग उठा रहे हैं जो बंद कमरे में होने वाली उन बैठकों के गवाह रहे हैं जिनका सच हर बार नीतिगत, और पार्टी के कथित अनुशासन में गुम होता रहा। लेकिन माहौल बदलने की आहट ने इस कथित सच्चाई को किताब की शक्ल में लाकर खड़ा कर दिया है। `द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर` और `क्रूसेडर ऑर कॉन्सपिरेटर` के नाम से इन दोनों किताबों का सारांश बस इतना है कि क्या गुजरे दस साल में देश को लोकतन्त्र के नाम पर धोखा मिला और क्या प्रधानमंत्री के नाम पर केवल एक मुखौटा देश के सामने था। मशहूर अर्थशास्त्री की मजबूर सियासत की परतें खोलने वाली इन दोनों किताबों में हर उस बात का पूरा हिसाब है जो कही सुनी बातों की शक्ल में बार-बार सुनी जाती रही, लेकिन भरोसा करने के लिए कोई वजह नहीं मिली। अब संजय बारू दलील दे रहे हैं कि देश की जनता को जो सच जानना चाहिए था वही सच वो लेकर आए हैं।
बारू के सच के अलावा पूर्व कोयला सचिव पीसी परख भी किताबी तलवार भांज रहे हैं। ये वही पीसी परख हैं जिन पर कोयला मामले में एफआईआर दर्ज हुई तो इन्होंने दावा किया था कि अगर वो गुनहगार हैं तो प्रधानमंत्री भी हैं। लेकिन परख की ये दलील बहसों में गुम हो गई, पीसी परख भी सुर्खियों से दूर हो गए। लेकिन किसे पता था कि इस खामोश दौर का असर उस वक्त दिखेगा जब दस साल के नाम पर पांच और सालों के सपने तपती दुपहरी में अपने लिए रास्ता तलाश रहे होंगे। 228 पन्नों में पीसी परख कई ऐसे राज खोल दिए हैं जो सिर्फ चर्चाओं तक सीमित रहे थे।
दो किताबों का मजमून सियासत में हलचल पैदा कर चुका है। बीजेपी को बैठे बिठाए अपने आरोपों को साबित करने का मौका मिल गया है तो कांग्रेस को सूझ ही नहीं रहा कि आखिर वो ऐसे दौर में करे तो क्या करे। एक पूर्व मीडिया सलाहकार तो दूसरा पूर्व कोयला सचिव, ऊंगली उसी ने उठाई है जिसने नीतियों को बनते देखा था, उनका हिस्सा रहे थे, उनके साथ चले थे। लिहाजा दुहाई अब सिर्फ नीयत और नैतिकता की बची है और कांग्रेस यही कर रही है। लेकिन सवाल जो उठे हैं वो शायद कभी खत्म नहीं होंगे। क्योंकि सियासत में वाजिब बात कहने का माद्दा भला कितनों के पास होता है।

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