वी पी के नक्शेकदम पर केजरीवाल!
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वी पी के नक्शेकदम पर केजरीवाल!

देश की राजधानी में चल रहे पॉलिटिकल ड्रामे का आखिरकार अंत हो चुका है.

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वासिंद्र मिश्र
संपादक, ज़ी रीजनल चैनल्स
देश की राजधानी में चल रहे पॉलिटिकल ड्रामे का आखिरकार अंत हो चुका है... 8 दिसंबर को आए चुनाव परिणाम से राजनीति के हीरो बन चुके केजरीवाल ने 14 फरवरी को दिल्ली की जनता से मिले समर्थन से एक विलेन की तरह नाता तोड़ लिया... वजह बना वो जनलोकपाल कानून जिसकी वजह से अरविंद केजरीवाल... राजनीति में आए और दिल्ली की सत्ता तक पहुंचे थे... और इस कानून का रूल बुक के आधार पर किया जा रहा विरोध नहीं झेल पाए और दिल्ली की सत्ता से बाहर भी हो गए... क्या अरविंद केजरीवाल ने ये सोचा था कि विरोध-प्रदर्शनों के कई दौर के बाद राजनीति में आने पर उन्हें विरोध नहीं झेलना होगा... और अगर उन्होंने ऐसा सोचा था तो क्या इसके लिए उन्होंने मानसिक रूप से तैयारी नहीं की थी?
बहरहाल अरविंद केजरीवाल दिल्ली की सत्ता को जनलोकपाल के मुद्दे पर कुर्बान कर चुके हैं...और इस कुर्बानी से पहले उन्होंने एक बार फिर कांग्रेस और बीजेपी के साथ-साथ कॉरपोरेट घरानों पर भी भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है... ठीक उसी तरह जिस तरह 80 के दशक में वी पी सिंह ने लगाया था... सवाल ये उठते हैं कि भ्रष्टाचार के सवाल पर सत्ता छोड़कर अरविंद केजरीवाल ने क्या सचमुच कोई कुर्बानी दी है या फिर लोकसभा चुनाव की तैयारियों के लिए उन्हें ब्रेक चाहिए था... क्या इस्तीफा देकर उन्होंने दिल्ली की उस जनता के साथ न्याय किया है जिन्होंने अपना वोट देकर उन्हें इतिहास रचने का मौका दिया था?
सवाल और भी कई हैं लेकिन इस पूरे घटनाक्रम ने इतिहास के कुछ पन्नों को खोल दिया है... एक बार फिर देश को पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह की याद आ गई है जिन्होंने कांग्रेस में रहते हुए पार्टी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था... कांग्रेस पर अंबानी सहित कई और कॉरपोरेट घरानों का साथ देने का आरोप लगाकर जनमोर्चा नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली थी... वी पी सिंह ने अपने आरोपों को कुछ इस तरह से सामने रखा कि जनता को उन पर भरोसा होने में देर नहीं लगी...वो वी पी सिंह ही थे जिन्होंने बोफोर्स स्कैम का मुद्दा उठाया था... और इसी मुद्दे पर कांग्रेस से अलग भी हो गए थे... भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर वी पी सिंह जनता के बीच काफी लोकप्रिय हो गए।
नतीजा ये हुआ कि जनता के मूड को भांपते हुए वी पी सिंह की सरकार बनाने के लिए देश की दो धुर विरोधी पार्टियां वाम मोर्चा और बीजेपी भी एक साथ आने पर मजबूर हो गईं...जनता के दवाब के चलते इन दोनों पार्टियों ने वी पी सिंह की सरकार को बाहर से समर्थन दिया...वैचारिक रूप से दो परस्पर विरोधी पार्टियों ने भ्रष्टाचार के सवाल पर एक ऐसे शख्स को समर्थन देने को मजबूर हुईं जो करप्शन के सवाल पर अपनी पार्टी से अलग हुआ था... इसी मुद्दे पर वी पी सिंह ने देश की कई नेशनल और रीजनल पार्टियों का समर्थन हासिल किया लेकिन बाद में इनकी पार्टी को कई टुकड़ों में बिखरने से कोई नहीं रोक सका।
1989 में हुए इस राजनीतिक घटनाक्रम के लगभग 25 साल बाद एक बार फिर कुछ ऐसे ही घटनाक्रम हो रहे हैं... वी पी सिंह के सामने कांग्रेस पार्टी थी और धीरू भाई अंबानी थे... अरविंद केजरीवाल के सामने कांग्रेस पार्टी है और मुकेश अंबानी हैं... अरविंद केजरीवाल वी पी सिंह की ही तरह भ्रष्टाचार और अंबानी समेत तमाम कॉरपोरेट घरानों की बेइमानी और लूट को मुद्दा बनाकर इस साल होने वाले चुनाव में देश की सत्ता की बागडोर पर नज़रें जमाए बैठे हैं... भ्रष्टाचार, सादगी और गरीबों की रहनुमाई का नाटक करने वाले अरविंद केजरीवाल सत्ता की दौर में इतने बेताब हो चुके हैं कि दिल्ली में अपनी 49 दिन पुरानी सरकार को भी कुर्बान कर दिया।
ऐसा लगता है कि अरविंद केजरीवाल ने वी पी सिंह के साथ हुए घटनाक्रम से सबक नहीं लिया है.... देश की जिस जनता ने वी पी सिंह के आरोपों पर भरोसा करके उनको प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया था उसी जनता के सामने जब वो बेनकाब हुए तो फिर दो साल के अंदर-अंदर उन्हें गद्दी छोड़नी पड़ी... और जनता ने भी उन्हें उसी तरह से बेदखल कर दिया जिस तरह से दूध से मक्खी को निकालकर फेंक दिया जाता है... राजा नहीं फकीर हैं... देश की तकदीर हैं का नारा लगाने और वी पी सिंह में राजर्षि और गांधी का अक्स देखने वाली जनता तब मायूस हो गई जब वी पी सिंह ने वोटबैंक की घिनौनी राजनीति शुरू कर दी और मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू कर समाज को सैकडों टुकड़ों में बांट दिया... इसे लेकर जनता के बीच ऐसी प्रतिक्रिया हुई कि जिस जनता ने वी पी सिंह को अर्श पर पहुंचाया था उसी जनता ने वापस उन्हें फर्श पर लाने में भी देरी नहीं की।
अगर इतिहास की घटनाओं पर नज़र डाली जाए और इसका बारीकी से विश्लेषण किया जाए तो केजरीवाल की स्थिति भी वी पी सिंह जैसी हो सकती है... वही वी पी सिंह जिन्होंने इतिहास पुरुष बनने का मंसूबा पाल रखा था लेकिन बहुत ही कम समय में अपनी विघटनकारी और तुष्टीकरण की नीतियों के कारण इतिहास के पन्नों में ही खो गए... केजरीवाल भी वी पी सिंह के ही नक्शेकदम पर चलते नज़र आ रहे हैं।
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