क्या जेएंडके में 90 का दशक फिर से लौट तो नहीं रहा?
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क्या जेएंडके में 90 का दशक फिर से लौट तो नहीं रहा?

क्या जेएंडके में 90 का दशक फिर से लौट तो नहीं रहा?

खालिद हुसैन

दक्षिणी कश्मीर के कुलगाम ज़िले के बुचरू गाँव में हाल ही में मारे गए हिज़्बुल मुजाहिदीन का आतंकी दावूद शेख का शव जब उसके पैतृक गाँव कोईमुह कुलगाम पहुंचा तो हज़ारों लोग जिनमें काफी संख्या में महिलाएं और बच्चे भी थे, जनाज़े में शामिल होने पहुंचे। लोग इतने थे कि इस आतंकी का जनाज़ा 6 बार पढ़ा गया। दावूद को कबर में दफनाने वाले शख्स का कहना था कि दावूद को दफनाते हुए उसे आस्मान नहीं दिखाई दे रहा था क्यूंकि लोगों की संख्या सामान्य से काफी अधिक थी। कबर खोदने वाले इस अली शेख नामी शख्स जिसने 90 के दशक से मरने वाले लोगों को दफनाया है के अनुसार 90 के दशक में भी आतंकियों के जनाज़े में ऐसी भीड़ जमा होती थी जैसी आज देखने को मिल रही है। ऐसा लग रहा है कि यह सिलसिला एक बार फिर से शुरू हुआ है।

यह सिलसिला ऑक्टोबर 2015 से शुरू हुआ जब सुरक्षाबलों ने लश्कर के डिविजनल कमांडर अबु क़ासिम को मार गिराया गया। इस पाकिस्तानी आतंकी के जनाज़े में लगाए अनुमान के अनुसार 20 हज़ार से अधिक लोग शामिल हुए। कश्मीर में इतनी भीड़ जुटाने के लिए एक राजनेता को लाखों रुपए खर्चने पड़ेंगे। यह एक कड़वा सच है जो कश्मीर में देखने को मिल रहा है।   

आतंकियों के जनाज़ों में बढ़ती भीड़ कश्मीर में तैनात सुरक्षा एजेंसियों के लिए बड़ी चीनत बनती जा रही है। पिछले 6 महीनों में केवल दक्षिण कश्मीर में 20 ऐसे भीड़ वाले जनाज़े देखें गए हैं। दक्षिणी कश्मीर के एक पुलिस अधिकारी का कहना है कि जब उसके इलाके में आतंकी के जनाज़े में भीड़ जमा हुई तो उनकी संख्या देख यह ख्याल दिमाग में आया कि अगर यह पुलिस थाने पर हमला करते हैं तो थाना पत्थर की खदान बन जाएगा। इतना ही नहीं मुठभेड़ों के दौरान आस पास के लोग जमकर प्रदर्शन भी करते हे ताकि आतंकी मुठभेड़ों के दौरान भागने में सफल हो सकें। पिछले कुछ सालों से आतंकी सोशल साइट्स के ज़रिये खुद के प्रचारों में आगे बढ़ते दिख रहे हैं। कई वीडियो अपलोड होते दिख रहे हैं। साइबर सुरक्षा सेल एक पेज ब्लॉक करती है तो दूसरा खुलता है।  

इस बदलाव के ज़िम्मेदार राजनैतिक विशेषयज्ञ राजनेताओं को मानते हैं। नहीं तो वर्ष 2014 में जिस कश्मीर में 70 प्रतिशत लोगों ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेते हुए विधान सभा चुनावों में अपने मत का प्रयोग किया वह लोग एक दम से कैसे बदल गए। उनमें आखिर यह बदलाव कैसा ? राजनेताओं की राजनीति की भेंट चढ़ती दिख रही हैं सुरक्षा एजेंसियों की कोशिशें। 90 के दशक से लेकर आज तक कश्मीर में हालातों में जो सुधार आया था क्या कहीं वो की गई सुरक्षा एजेंसियों की कोशिश व्यर्थ तो नहीं जा रही। यह चिंता सुरक्षा एजेंसियों को काफी सता रही है।

(खालिद हुसैन जम्मू कश्मीर में ज़ी मीडिया के विशेष संवाददाता हैं)

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