MP विधानसभा चुनाव 2018: इस बार दल नहीं, दिल देखकर वोटर करेगा फैसला
भाजपा पहली बार प्रत्याशी चयन को लेकर इतनी संजीदा है. एक-एक नाम पर कई कई बार विमर्श हो रहे हैं. भाजपा इनफाइटिंग यानी कि भितरघात के खतरे को भांप चुकी है.
मध्यप्रदेश में राजनीति का बैरोमीटर बता रहा है कि इस बार हवा ठहरी हुई है. आमतौर पर दलबदल से पूर्वानुमान लग जाता था कि इस बार किसका जोर है. 'बिटवीन्स द लाइन' वाले नेता चुनाव के समय पालों की अदल-बदल करते थे. इस बार यह सबकुछ थमा सा है. छिटपुट जो हो भी रहा है वह दोनों ओर बराबर.
मैंने चुनावी राजनीति के एक अनुभवी मित्र से पूछा, तो उन्होंने मजाकिया लहजे में इसका जवाब दिया- जरा पता तो करिए रामविलास पासवान का क्या रुख है, वो एक साल पहले ही भांप लेते हैं कि देश में किस पार्टी की सरकार बनने वाली है. यद्यपि वे केंद्र की राजनीति में हैं फिर भी उनके रुख से संकेत तो मिल ही जाता है.
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तो इस पैमाने पर मध्यप्रदेश की चुनावी राजनीति के बारे में अनुमान लगाएं कि पलड़ा किसका भारी है तो अभी निष्कर्ष तक पहुंच पाना मुश्किल है. जब हवा ठहरी हुई होती है तब प्रत्याशी महत्वपूर्ण हो जाता है. इस बार भी यही होगा. दोनों प्रमुख दल यानी कि भाजपा और कांग्रेस प्रत्याशी चयन को लेकर बेहद सतर्क हैं. इस बार पट्ठागीरी किसी भी पार्टी में नहीं चलेगी.
पिछली बार अपन ने देखा था कि कांग्रेस के टिकट को लेकर बस खानापूर्ति थी. ऐसे भी उदाहरण हैं कि कइयों ने टिकट लौटा दिया था और पाला बदल कर गए थे. मुद्दतों बाद यहां टिकट की मारामारी देखने को मिल रही है. मतलब साफ है कि कांग्रेस को इस बात का फीडबैक मिल रहा है कि वो पिछले चुनाव में जहां थी उससे आगे बढ़ी है. उसे भरोसा है कि यदि संयुक्त मेहनत की गई तो सरकार बन भी सकती है.
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प्रदेश में कमलनाथ जैसे अनुभवी नेता को कमान देकर शीर्ष नेतृत्व ने कांग्रेस की इलाकेदारी पर लगाम लगाने की कोशिश की है. यह बात अलग है कि खुद कमलनाथ ही इलाकेदारी की ग्रंथि से मुक्त नहीं दिख रहे हैं.
भाजपा पहली बार प्रत्याशी चयन को लेकर इतनी संजीदा है. एक-एक नाम पर कई कई बार विमर्श हो रहे हैं. भाजपा इनफाइटिंग यानी कि भितरघात के खतरे को भांप चुकी है. जिस भितरघात ने कांग्रेस को अर्श से फर्श तक पहुंचाया कहीं वही भाजपा को भी ले न डूबे. यहां अच्छी बात यह है कि संघ आंतरिक लोकपाल का काम करता है. वह किसी भी ओहदेदार की कान उमेठने की हैसियत में है. इसलिए टिकट तय करने का आखिरी दौर उसी की निगहबानी में चल रहा है. इसकी बड़ी वजह यह है कि कांग्रेस अपना असली दुश्मन भाजपा को नहीं संघ को मानती है.
खुदा न खास्ता कांग्रेस की सरकार मध्यप्रदेश में ही सही आ गई तो वह निपटने की शुरुआत संघ से ही करेगी. मध्यप्रदेश संघ के लिए काफी अहम है. सो इस बार मुख्यमंत्री भी चाहे कि वे किसी की टिकट पर अड़कर उसे दिला दें तो यह मुश्किल होगा. पंद्रह बरस के राज में ऐसा पहली बार हो रहा है.
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केंद्र की राजनीति में मोदी का उदय कांग्रेस मुक्त भारत के आह्वान से हुआ था. देश केंद्र समेत तीन चौथाई इलाके में कांग्रेस मुक्त तो हो गया, पर भाजपा खुद कांग्रेसयुक्त हो गई. कांग्रेसयुक्त होने से आशय यही कि जिन 'सद्गुणों' ने उसे 'सद्गति' दी वही सब भाजपा में आ गए. पहले कांग्रेस और भाजपा के बीच भाषा-भूषा, आचार-व्यवहार में साफ भेद नजर आता था अब गड्डमड्ड हो गया है.
भाजपा के भीतर एक अंतरद्वंद्व और भी है वह है पिछले पंद्रह वर्षों की यथास्थिति का. चाहे सत्ता हो या संगठन पंद्रह साल से जिले से लेकर राजधानी तक वही के वही चेहरे दोहराए जा रहे हैं. पंद्रह साल में एक नई पीढ़ी सामने आ चुकी है वह भी मौका चाहती है. यह फीडबैक इस बार अच्छी तरह ऊपर तक पहुंच चुका है. इसलिए भाजपा की टिकट सूची भाजपाइयों के लिए ही चौकाने वाली हो सकती है. यदि नेतृत्व ने इस बार मुंहदेखी की तो उसे दुष्फल मिलेगा.
भ्रष्टाचार के मुद्दे अब ज्यादा मायने नहीं रखते. 2008 का चुनाव जब शिवराज के नेतृत्व में लड़ा गया तब डंपर कांड सामने था. कांग्रेस से ज्यादा इस मुद्दे को उमा भारती और प्रहलाद पटेल ने हवा दी थी. उस समय ये दोनों भाजपा से अलग थे, इनके वोटों का आधार भी भाजपाई ही था. इस डंपर कांड को मामा लहर ने फेल कर दिया.
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2013 के चुनाव के पहले व्यापमं कांड आ चुका था. इसी घपले-घोटाले की गूंज के बीच चुनाव हुए थे लेकिन भाजपा को 2008 के चुनाव से ज्यादा सीटें मिलीं. इस बार भी घोटाले और भ्रष्टाचार के मुद्दे उठे हैं लेकिन वह जनता की जुबान पर नहीं चढ़ पा रहे हैं. उसकी पहली वजह यह कि शिवराज सरकार ने सोशल सेक्टर में इतना कुछ कर दिया है कि किसी न किसी तक कुछ न कुछ पहुंच चुका है. तो जब उससे कोई भ्रष्टाचार की बात करता है तो वह एक रूपये किलो चावल, संबल, प्रधानमंत्री आवास की बात करने लगता है. दूसरे किनके मुंह से भ्रष्टाचार के आरोप निकल रहे हैं उनकी विश्वसनीयता को लेकर भी एक संकट है.
मेरे हिसाब से जनता में दो मसलों का सबसे ज्यादा असर है पहला- सत्ताधारी दल के निचले स्तर से लेकर विधायक तक में आया सत्ता का अहंकार, दूसरा- बेलगाम नौकरशाही. इस बार मुख्यमंत्री बनने के साथ ही शिवराज सिंह चौहान ने व्यवस्था में जीरो टॉलरेंस का संकल्प लिया था वह पूरी तरह विफल रहा. अधिकारियों का व्यवहार सामंतों जैसा है. नीचे से लेकर ऊपर तक व्यवस्था में जो चेक और बैलेंस का सिस्टम था उसे बाबू-नौकरशाही ने निष्प्रभावी बना दिया. व्यवस्थागत यह झोल चुनाव में मुद्दा बन भी सकता है या नहीं, कह नहीं सकते.
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हां, एक बात नोट करने की यह कि युवा वर्ग पहली बार आक्रोशित दिख रहा है. ऐसा लगता है कि वह ठगा हुआ महसूस कर रहा है. वह अपना आक्रोश भी व्यक्त करने लगा है. इस बीच इन्हीं में से जो संविदा या अन्य प्रयोजनों में काम पाए हुए थे उन्होंने प्रभावशाली तरीके से आंदोलन प्रदर्शन किए. इन प्रदर्शनों को लेकर सरकार सदाशयी रही. पटवारी और शिक्षकों की भर्तियों ने आक्रोश को मंदा करने का काम किया. अन्य युवा वर्ग को एट्रोसिटी और आरक्षण की लड़ाई में फंसा दिया गया. युवाओं के जो धारदार आंदोलन सत्तर-अस्सी के दशक में होते थे वैसे आंदोलन इन पिछले पंद्रह वर्षों में नहीं हुए.
कांग्रेस युवाओं के आक्रोश को धार देने में विफल रही और भाजपा ने इस वर्ग को हताश किया है. युवाशक्ति आज चौराहे पर है. उसकी प्रतिरोधक क्षमता को सोशल मीडिया ने सोख लिया है. वह आभासी क्रांति में उलझा है. इस चुनाव में वह ज्यादा से ज्यादा ट्रोलर या कंपेनर की भूमिका में रहेगा. इस चुनाव का दुर्भाग्य होगा कि युवा प्रभावी भूमिका में नहीं रहेंगे.
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आज की तारीख में चुनाव जिस मुकाम पर खड़ा है उसे देखते हुए कहना मुश्किल है कि कांग्रेस या भाजपा युवाओं को लेकर ऐसा कोई नवाचार करेंगी जैसा कि अर्जुन सिंह ने 1985 में किया था और कुशाभाऊ ठाकरे ने 1990 में. यहां यह जान लेना जरूरी है कि मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में जो राज कर रहे हैं चाहे वे शिवराज सिंह- कैलाश विजयवर्गीय हों या रमन सिंह-ब्रजमोहन अग्रवाल सबके सब 1990 के उस बैच के नेता हैं जिन्हें ठाकरेजी की सरपरस्ती में भाजपा ने मौका दिया था.
इस चुनाव में एट्रोसिटी एक्ट और प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे की बात की जा रही है. मेन स्ट्रीम के मीडिया ने इसे हाशिये पर रख दिया है. यह अब सोशल मीडिया का आभासी युद्ध बनकर रह गया है. इन दोनों मुद्दों को लेकर सपाक्स समाज पार्टी का जन्म हुआ है. पहले तो लग रहा था कि सपाक्स इस मुद्दे को लेकर चुनावी खेल बिगाड़ेगी, लेकिन अब उसके गरम तवे पर पानी के छीटे से पड़ गए लगते हैं.
सपाक्स का नेतृत्व चुके हुए नौकरशाहों के हाथों पर है. इन्होंने जीवन भर व्यवस्था के आगे हथियार डालकर काम किया है. इनमें से ज्यादातर वो भी हैं जो जब बड़े ओहदेदार थे तब आम जनता रास नहीं आती थी. सुदीप बनर्जी या हर्षमंदर, अजय यादव जैसे नौकरशाह होते तो कुछ उम्मीद भी बंधती. इनमें वो आक्रामकता नहीं है जिसकी जरूरत इस चुनाव में है. फिर नेतृत्व बिखरा है. एक विधानसभा से पांच लोग भी खड़े हो सकते हैं और सबके सब यह दावा कर सकते हैं कि सपाक्स के असली उम्मीदवार वही हैं. दूसरा खतरा और भी है, जिससे सपाक्स का नेतृत्व अभी से सशंकित है कि इनके अधिकारी कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचारों की पोलें खुलनी शुरू हो सकती हैं. ऐसी स्थिति में ये कहां सफाई देते फिरेंगे.
मुझे नहीं लगता कि सपाक्स कहीं भी चुनावी कोण बनाने में सफल होगा. इसकी वजह यह भी है कि दोनों प्रमुख दलों यानी कि भाजपा और कांग्रेस का नेतृत्व प्रभावशाली सवर्णों के ही हाथ है.
अब रही बात गठबंधन की. बसपा, सपा, गोंगपा, जयस यदि इनसे कांग्रेस का गठबंधन बनता और इनके नेता ईमानदारी से गठबंधन धर्म निभाते, तो कांग्रेस को भाजपा के खिलाफ निर्णायक जनाधार मिल सकता था. अब इनके बिखर जाने से ये सब ज्यादा वोट कांग्रेस के ही काटेंगे. सपा को छोड़ दें तो ये राजनीतिक दल आए भी कांग्रेस की प्रतिक्रिया स्वरूप थे. ज्यादा वोट डिवीजन होगा तो चंबल और विंध्य में बसपा फायदे में रहेगी.
जैसा कि अखिलेश यादव ने आह्वान किया है बागी कांग्रेसी सपा से जुड़ेंगे. सपा चुपके से सीट निकालने में माहिर है. मुझे लगता है कि ठहरी हुई हवा में ये दोनों ही दल छुपे रुस्तम निकल सकते हैं. महाकौशल में गोंगपा और मध्यभारत में जयस का असर देखने को मिला है. जितने ज्यादा दल खड़े होंगे भाजपा के मुकाबले कांग्रेस को ज्यादा घाटा होगा.
और अंत में...
आज की स्थिति में भाजपा पिछले चुनाव के बरक्स नीचे खिसकती दिख रही है और कांग्रेस आगे बढ़ती. पर नीचे खिसकने का मतलब न तो चुनाव हार जाना है और न आगे बढ़ने का अर्थ जीत जाना. यह सब उतार-चढ़ाव की गति पर निर्भर करेगा जो कि चुनाव में देखने को मिलेगी.
इस चुनाव में प्रत्याशी चयन, संगठन और प्रबंधन ज्यादा मायने रखेंगे न कि मुद्दे. सांसें फिलहाल दोनों प्रमुख प्रतिद्वंद्वी दलों की अटकी हुई हैं. चुनावी कौशल ही दोनों में प्राणवायु का संचार करेगा. तब तक वोटर इस रोमांच का भरपूर आनंद उठा सकता है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)