दयाशंकर मिश्र


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बहरा कौन है! जो किसी बीमारी के कारण सुन नहीं सकते या वह जो सुनते हुए भी कान बंद रखते हैं. जब से हमने टेलीविजन को अपना 'संसार' सौंप दिया, हम उसके दिखाए रास्‍ते पर ही चलते जा रहे हैं. उस पर दिखाई जा रही सामग्री और विज्ञापनों के अनुसार जीवन को संचालित किए जा रहे हैं. हमारे घर का बजट जरूरत के हिसाब से नहीं, बल्कि विज्ञापन के हिसाब से तैयार होता है. विज्ञापन हमारी सोच को सीधे-सीधे प्रभावित करते जा रहे हैं. जब तक विज्ञापन का असर हमारे बजट तक सीमित था, तब तक तो यह समझिए कि पानी गले से नीचे तक था. लेकिन जब विज्ञापन आपके सोच-विचार, समझने और पारिवारिक ताने-बाने पर असर डालने लगे, तो समझिए 'पानी' खतरे के निशान से ऊपर बह रहा है.


विज्ञापनों को बार-बार दिनभर देखते दर्शकों पर उसका असर नहीं होता, तो यह कंपनियां कब की तबाह हो जातीं. इनका असर है, इसीलिए यह अपने प्रोडक्‍ट पर ध्‍यान देने से कहीं ज्यादा विज्ञापन पर खर्च, निवेश करती हैं. हमारे रिश्‍तों पर एक अजीब, विकृत टिप्‍पणी करने वाला एक विज्ञापन इन दिनों खासा चर्चा में है. यह विज्ञापन एक विज्ञापन न होकर एक किस्‍म की विज्ञापनों की सीरीज है.


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जिसमें पहले हिस्‍से में एक खास डियो का इस्‍तेमाल करने पर एक लड़की को किसी अपरिचित युवा की ओर आकर्षित होते हुए दिखाया गया है. इसके बार में तो पहले तमाम बातें हो चुकी हैं. इसलिए इस पर अभी बात करने का अवसर नहीं है.


बात तो इस कड़ी के दूसरे विज्ञापन को लेकर है जो पिछले दिनों जारी किया गया है. जिसमें वही लड़की अब उस लड़के से अपनी मां को मिलवा रही है, लेकिन जैसे ही युवा उसे आंटी कहता है. माताजी एकदम से डियो के मोहपाश में बंधते हुए कहती हैं कि ... 'कॉल मी मीनाक्षी. और कैमरा अधेड़ पिता के विवश चेहरे पर जाकर थम जाता है.


इसके मायने क्‍या हैं. एक डियो रिश्‍तों, परिवार की मर्यादा और संस्‍कार पर भारी है. वह मां और बेटी के लिए एक ही पुरुष जैसे उस संबंध की ओर खतरनाक संकेत भेज रहा है, जो कभी हमारे समाज का हिस्‍सा ही नहीं रहा. यह कौन-सा संबंध है?


वह लोग जो हमेशा संस्कृति की चिंता में दुबले हुए रहते हैं. उनकी नजर अब तक 'कॉल मी मीनाक्षी..' पर कैसे नहीं पड़ी. और अगर नजर गई, फिर भी इस पर बहस का नहीं होना, और भी चिंतित करने वाली बात है. अभी कुछ ही दिन पहले टीवी पर बच्‍चों से जुड़े मनोरोगी सीरियल 'पहरेदार पिया की' पर भी बहस कहीं नहीं पहुंची. ठीक से हुई ही नहीं. क्‍योंकि जनता को एक छोटे बच्‍चे से महिला के प्रेम प्रसंग में कुछ अटपटा नहीं लगा. हम उसमें मनोरंजन खोज रहे थे.


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आखिर हमें खुद को मॉडर्न जो दिखाना है. हमें भूलकर भी ऐसी बात नहीं कहनी कि हमें दकियानूसी न कहदिया जाए. भले ही उसका हमारी जिंदगी पर कैसा भी असर होता रहे. हम एक दायित्‍वविहीन समाज बननेको लालायित हुए जा रहे हैं. अपनी विशेषताओं, अपने रंग को छोड़कर रंगविहीन होने को आतुर हैं.


जब तक हम घर और समाज को अलग-अलग मानकर जीते रहेंगे. तब तक ऐसे संकट आते ही रहेंगे. बहुतसे लोग जो मुक्‍ति वातावरण (सबकुछ दिखाए जाने के) के पैरोकार हैं, भूल जाते हैं कि इस तरह का मनोरंजन तब तक ही सुखदायी है, जब तक वह बाहर है, जैसे ही वह उनके आंगन में प्रवेश करता है... वह सबसे बड़ी पीड़ा में बदल जाता है. यह जो हमारे समाज, घरों में भरोसा घट रहा है. एक-दूसरे के प्रति अविश्‍वास बढ़ रहा है. उसके कुछ सेंटर्स में से टेलीविजन के घटिया कंटेंट की भी खास भूमिका है.


हमारे रिश्‍ते, हमारा आचरण और हमारी सोच सबके एक ही दिशा में आगे बढ़ने से ही जिंदगी में असली सुख और प्रेम है. जब तक ये सभी विभिन्‍न दिशाओं में भटकते रहेंगे, हम संपन्‍न तो हो सकते हैं, लेकिन सुखी नहीं.
हमारी मनोरंजन की भूख और दिमाग का खोखलापन इतना बढ़ गया है कि हर समय हम सनसनी और कुछविचित्र खोजते रहते हैं. भले ही वह लौटकर हमारी जिंदगी को ही तबाह क्‍यों न करने लगे.


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हर रिश्‍ते, संबंध, विचार को बाजार के भरोसे छोड़ना कुछ ऐसा ही है. जैसे किसी छोटे बच्‍चे से अपेक्षा करना कि चौराहे पर अकेला छूट जाने पर वह खुद घर तक पहुंच जाएगा. जबकि हममें से कई लोग अक्‍सर उसी रास्‍ते पर भटकते मिलते हैं.


(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)


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