हिंदू धर्म में जन्म देनेवाली मां के अलावा धर्म-शास्त्रों में गंगा (नदी), गाय (पशु) और तुलसी (पौधा) को मां की संज्ञा दी गई है। अलग-अलग वेदों और हिदू धर्म-शास्त्रों में इस बात की नसीहत दी गई है कि इनका सम्मान आप ठीक वैसा ही करें जैसा कि अपनी जन्मदात्री मां का करते हैं। अब यह एक व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है कि वह इन बातों को किस तरह लेता है और इन बातों को जीवन में यथासंभव अपनाता है या फिर उन्हें दरकिनार कर देता है।


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गंगा नदी पर दी गई उस पौराणिक नसीहत के मायने बड़े हैं। सदियों से गंगा नदी के किनारे देश के कई शहर पुष्पित-पल्लवित हुए है। इस नदी के किनारे कई सभ्यताएं जन्मी है। आज भी देश के गांवों में रहनेवाली आबादी का एक बड़ा हिस्सा गंगा नदी को वॉशरूम के तौर पर इस्तेमाल करता है। गंगा के किनारे रहना, खाना, कपड़े और बर्तन धोना सबकुछ गंगा के किनारे।


शांत, निर्मल,अविरल धारा के बीच बहती जीवनदायिनी गंगा भारत में कई शहरों की जीवनरेखा है। गंगा नदी को भारत की नदियों में सबसे पवित्र माना जाता है। भारतीय पुराणों और साहित्य में अपने सौंदर्य और महत्व के कारण बार-बार आदर के साथ गंगा नदी की महिमा गाई गई है।


दूसरी तरफ गाय की बात करे तो भारत में वैदिक काल से ही गाय का महत्व माना जाता है। हिंदू धर्म में गाय का महत्व देवों के समान बताया गया है। गाय को पूजनीय बताने के साथ संरक्षिका भी कहा गया है। ऋगवेद अपने एक सूक्त में इस बात को कहता है कि गाय यानी गौमाता के शरीर में 33 देवताओं का वास है। गाय को पर्यावरण की संरक्षिका भी कहा गया है। गाय का दूध और उससे बने दुग्ध उत्पादों की हमारे जीवन में कितनी भूमिका है, यह बताने की जरूरत नहीं है।


तुलसी की बात करे तो यह एक औषधिय पौधा है जिसका धार्मिक महत्व भी है। ऊं तुलसीभ्य: नम: इसी मंत्र से तुलसी की पूजा की जाती है। पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक तुलसी पूजन का बहुत महत्व माना गया है। जहां तुलसी का प्रतिदिन दर्शन करना पापनाशक समझा जाता है, वहीं तुलसी पूजन करना मोक्षदायक माना गया है। आयुर्वेद में प्रत्येक रोग में काम आने वाली औषधियों में प्रमुख तुलसी या मकरध्वज है। तुलसी में 27 तरह के खनिज पाए जाते हैं ।


लेकिन यह दुखद और चिंतनीय बात है कि हम अपनी इन पौराणिक, आध्यात्मिक और जीवन की अनमोल धरोहरों को गंदलाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे है। फिलहाल गंगा नदी में लगातार बहते शव इस बात की ताजा मिसाल है।


यूपी के उन्नाव जिले के सफीपुर क्षेत्र में गंगा नदी के परियर घाट पर अचानक शव बहने शुरू हो गए। किनारे पर कुत्ते जब इन मृत शरीरों नोंच-खसोट कर खा रहे थे तब इलाके में हड़कंप मचा। आलम यह है कि वहां उतराते शवों की संख्या 100 के पार कर गई। प्रशासन के मुताबिक यहां लगभग 45 गांव है जो लोग शवों का दाह-संस्कार गंगा मे करते है। यह भी बताया जा रहा है कि यहां अविवाहित लड़कियों के शवों को जलाने के बजाय उन्हें गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है।


जांच के दौरान यह भी पता चला कि कानपुर में बिठूर एक पौराणिक स्थल है इसलिये बहुत से लोग यहां आकर शव बहा देते हैं । यह भी देखा गया है कि करीब के जिले उन्नाव में जो लोग अंतिम संस्कार कर जला देने के बजाये अपने परिजनो के शव यूं ही गंगा में बहा देते हैं । इस दौरान शव बीच रास्ते मे कही फंस जाते है और जब गंगा का बहाव तेज होता है तो बहुत से शव एक साथ बह कर आ जाते है । ऐसी घटनाएं पहले भी हो चुकी है लेकिन प्रशासन इन बातों पर कभी ध्यान नहीं देता है।


इन बातो से यह साफ हो जाता है कि हम अपनी धार्मिक मान्यताओं की आड़ में गंगा या फिर देश में बहनेवाली किसी भी नदी को इस कदर गंदा कर रहे हैं जिससे उसका सांस लेना भी दूभर है। हिंदू धर्म में एक मान्यता के मुताबिक ऐसे मृत व्यक्ति को जिसकी मृत्यु सांप के काटने से हुई होती है उस व्यक्ति का दाह-संस्कार नहीं किया जाता बल्कि उसके शव को गंगा या किसी नदी में बहा दिया जाता है।


साथ ही कुछ जगहों पर अगर अविवाहित लड़कों या लड़कियों की मौत हो जाती है तो उनके शव का भी दाह-संस्कार बगैर जलाए किया जाता है। वहां भी यही प्रक्रिया अपनाई जाती है कि यानी उनके मृत शरीर को किसी नदी में बहा दिया जाता है। मृत शरीर धार्मिक आस्था और रुढ़िवादी सोच की वजह से नदी के पानी में सड़ता रहता है। जब ये शव नदी के किनारे पर आ लगते है तो पशुओं का शिकार बनते हैं। इस तरह से संक्रमण की बड़ी श्रृंखला का जन्म होता है जो नदी किनारे रह रहे लोगों के सेहत के लिए कितना खतरनाक है, इसका अंदाजा आप लगा सकते है।


हिंदू धर्म से जुड़े धर्मग्रंथों में दाह-संस्कार की प्रक्रिया में बचे चंद अवशेषों को प्रवाहित करने की बात जरूर है लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं कहा गया है कि शवों को बिना दाह-संस्कार किए नदी के पानी में प्रवाहित कर दे। लेकिन इसमें हम इस बात को भी नकार नहीं सकते कि देश के गांव और शहर में रहनेवाले ऐसे कई निर्धन परिवार है जिनके पास दाह-संस्कार के वक्त जलाने के लिए इस्तेमाल होनेवाली लकड़ियों को खरीदने के लिए पैसा नहीं होता है। इस वजह से वह अपने परिजनों का संस्कार बगैर लकड़ी के करते है और शव को बिना जलाए नदी के पानी में प्रवाहित करने को विवश होते है।


मैंने दिल्ली और नोएडा जानेवाली डीएनडी पर ये नजारा कई बार देखा है। लोग अपने घर की पूजन सामग्री एक पॉलिथीन में लाते है और बड़े शान से यमुना में प्रवाहित कर चलते बनते है। हिंडन नदी के मुहाने पर भी यह नजारा आम है। आस्था में अंधविश्वास ने इस कदर पैठ बना ली है कि इन्हें यह लगता है कि पूजा-पाठ की सामग्री को किसी नदी में प्रवाहित करना शुभ होता है। इस सामग्री में अगरबत्ती,धूप की राख,कपूर, फूल,कपड़े के साथ वह पॉलिथिन भी होता है जिसके बारे में पर्यावरणविद कहते है कि 1 हजार साल के बाद भी यह सड़ता नहीं है, जस का तस रहता है।


पटना में गंगा के एक घाट पर मैं कुछ साल पहले नहाने गया था। इतनी गंदगी थी की नहाने की हिम्मत नहीं जुटा सका। पास ही में एक नाव वाले ने मेरी व्यथा और झुंझलाहट को शायद पढ़ लिया था। वह नाव से मुझे दूसरी तरफ ले गया। उसने 20 रुपये लिए । लेकिन सिर्फ 20 रुपयों की बदौलत गंगा में नहाने का अद्भुत सुख मिला। यहां मैं बताना चाहता हूं कि मैं जिस ओर आराम से घंटों नहाता रहा उस वह एक ग्रामीण आबादी का हिस्सा था। लेकिन जिस तरफ नहाने का साहस नहीं कर पाया और जो घाट गंदगी के अंबार से बजबजा रहा था वह पटना सिटी का एक घाट है जहां पढ़े लिखे लोग रहते हैं जो अपनी तालीमी लियाकत की बदौलत समाज में एक ओहदा रखते है।


गंगा भारतीय धर्म, दर्शन ,आध्यात्म और संस्कृति की जीवन प्राण धारा है। गंगोत्री से लेकर गंगा सागर तक गंगा से जुड़ा है हमारा स्वास्थ्य,समृद्धि एवं संस्कारों का अविरल और निर्मल प्रवाह। गंगा देश को देश की राष्ट्रीय नदी होने का गौरव हासिल है लेकिन इस पौराणिक और राष्ट्रीय नदी के साथ एक दुर्भाग्य जुड़ा हुआ है जिसके जिम्मेदार हम सब हैं। यह दुर्भाग्य गंगा के गंदलाने को लेकर है, उसके पवित्र स्वरुप के प्रदूषित होने से है।


आखिर कब तक गंगा गंदगी के इस बोझ को ढोते-ढोते बोझिल होती रहेगी? कई शहरों और गांवों की आबादी को पोषित करनेवाली गंगा कब तक प्रदूषण के विशाल भार के नीचे दबती रहेगी? इस सवाल का जवाब हम सबको मिल-जुलकर तलाशना है। अगर गंगा के गंदलाते स्वरूप से हम वाकिफ है तो हमें यह बात भी मालूम है गंगा का प्रदूषण किस प्रकार दूर कर पाना मुमकिन है। सरकारी प्रयासों के साथ इसके लिए जनभागीदारी की भी सख्त जरूरत है। उसके बगैर यह कतई मुमकिन नहीं है।


समस्या और समाधान के इस सेतु के बीच सबसे बड़ी जरुरत पहल करने की है। हम ठोस पहल करेंगे तो परिणाम भी बेहतर मिलेंगे। हमारी गंगा हम सबसे स्वच्छता में भागीदारी करने की बात कह रही है,बाट जोह रही है, इन्हीं कोशिशों के बाद गंगा का पुराणा स्वरुप हमें दोबारा वापस मिल सकेगा और तभी भगीरथी के भगीरथ प्रयास से लाई ये गंगा एक बार फिर से अविरल रुप में निर्मलता से बह सकेगी। एक बात और यह सम्मान सिर्फ गंगा नदी के प्रति ही नहीं बल्कि हर उस नदी के प्रति हो जो कई राज्यों, शहरों , गांवों और कस्बों में बहती है। सम्मान का भाव जगेगा तभी पहल की उम्मीद भी जगेगी। लेकिन सवाल अब भी वहीं कि हम जागेंगे कब?