नई दिल्ली: दिग्गज अभिनेता और फिल्म निर्माता शशि कपूर का सोमवार को निधन हो गया है. तीन सप्ताह से बीमार चल रहे शशि कपूर ने 79 साल की उम्र में आखिरी सांस ली.  शशि कपूर के निधन से एक ऐसा शून्य पैदा हुआ है जिसे शायद कभी नहीं भरा जा सकेगा. वह मुख्यधारा के सिनेमा के नायकों की भीड़ से बिल्कुल अलग खड़े नजर आते हैं. एक ऐसा सच्चा कलाकार जिसने हमेशा कामयाबी पर कला को तरजीह दी. हालांकि जब-जब फूल खिले दीवार, त्रिशूल, कभी-कभी जैसी कामयाब कमर्शियल फिल्मों ने उन्हें शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया लेकिन उनका मन हमेशा कला सिनेमा और थिएटर के करीब रहा. 


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सिनेमा के प्रति उनकी सोच को समझने के लिए सबसे जरूरी वे फिल्में है जो उन्होंने बतौर निर्माता बनाईं. किसी भी कामयाब स्टार की तरह जब शशि कपूर ने अपना प्रोडक्शन हाउस Film Valas शुरू किया तो लोग यही उम्मीद कर रहे थे कि वह बड़ी कमर्शियल फिल्में बनाएंगे. लेकिन सिनेमा को लेकर उनकी समझ अलग थी उनका टारगेट बॉक्स ऑफिस नहीं कुछ और था. शायद वह सिनेमा के एक सच्चे स्टूडेंट की तरह सिनेमा के नए-नए अर्थ खोज रहे थे जिसके लिए कमर्शियल सिनेमा उन्हें रास नहीं आया उन्होंने आर्ट सिनेमा की तरफ रुख किया और हिंदी सिनेमा को मिली कुछ बेहतरीन फिल्में.


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शुरुआत जुनून (1978) से हुई जिसमें उनके अभिनय का एक अलग ही रंग नजर आया लेकिन इस फिल्म के साथ यह तय हो गया कि बतौर निर्माता वह बंधी-बंधाई लीक पर नहीं चलने वाले हैं. रस्किन बॉन्ड के उपन्यास पर अधारित इस फिल्म को श्याम बेनेगल ने निर्देशित किया था और 'जुनून' ने बेस्ट हिंदी फिल्म का नेशनल अवॉर्ड अपने नाम किया था. 1981 में उन्होंने 'कलयुग' को प्रोड्यूस किया. श्याम बेनेगल के निर्देशन में बनी इस फिल्म में बड़े कॉरपोरेट घरानों के बीच की व्यसायिक जंग को दर्शाया गया था. 'कलयुग' ने फिल्मफेयर का बेस्ट फिल्म का अवॉर्ड अपने नाम किया.


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1981 में आई उनकी प्रोडक्शन कंपनी की फिल्म '36 चौरंगी लेन'. अपर्णा सेन द्वारा निर्देशित इस फिल्म ने तीन नेशनल अवॉर्ड अपने नाम किए. इस फिल्म के लिए अपर्णा सेन ने बेस्ट डायरेक्टर, अशोक मेहता, ने बेस्ट सिनेमेटोग्राफी का नेशनल अवॉर्ड जीता.इसके साथ ही 36 चौरंगी लेन ने बेस्ट फीचर फिल्म(अंग्रेजी) का अवार्ड भी हासिल किया. इन फिल्मों के साथ ही उनके प्रोडेक्शन हाउस दो फिल्मे विजेता (1982) और उत्सव (1984) भी आईं दोनों ही क्रिटिक्स की पसंदीदा फिल्में रहीं. उत्सव के बाद शशि कपूर ने लंबे समय तक कोई फिल्म नहीं बनाई. बतौर निर्माता उन्होंने सिर्फ एक मुख्यधारा की फिल्म का निर्माण किया था लेकिन 1991 में आई उनकी यह फिल्म 'अजूबा', बॉक्स ऑफिस पर नहीं टिक पाई. 


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इस बीच 1986 में आई फिल्म 'न्यू दिल्ली टाइम्स' में वह एक पत्रकार के तौर पर हमारे सामने आए. रमेश शर्मा द्वारा निर्देशित इस फिल्म में वह अभिनय की नई ऊंचाई छूते नजर आते हैं. यह स्वभाविक ही था कि उन्होंने न्यू दिल्ली टाइम्स के लिए के लिए बेस्ट एक्टर का नेशनल अवॉर्ड जीता. वह इंटरनेशनल सिनेमा में भी सक्रिय रहे और  Merchant Ivory प्रोडक्शंस की कई फिल्मों में काम किया. इनमें खासतौर पर 'इन कस्टडी/मुहाफिज' को याद करना जरूरी है जिसमें उनका अभिनय यादगार रहा, जिसके लिए उन्हें नेशनल फिल्म अवॉर्ड में स्पेशल ज्यूरी अवॉर्ड से नवाजा गया.


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इन सभी फिल्मों को आज क्लासिक का दर्जा हासिल है जबकि उस दौर में आई कई ब्लॉकबास्टर फिल्में भुला दी गई हैं. यह कला के प्रति शशि कपूर की प्रतिबद्धता ही थी कि उन्होंने अपने पिता की थिएटर कंपनी पृथ्वी थिएटर को फिर से खड़ा कर दिया.


शशि कपूर इस दुनिया को विदा कह चुके हैं लेकिन उनके द्वारा रचा गया सिनेमा आज भी उन फिल्ममेर्क्स को रास्ता दिखा रहा है जो लीक से हटकर संवेदनशील और अर्थपूर्ण फिल्में बनाना चाहते हैं.