प्रेमचंद से मन्नू भंडारी तक: पटकथा भले बदली हो, `निर्मला` की व्यथा जस की तस है!
राधाकृष्ण प्रकाशन ने प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास `निर्मला` पर आधारित एक पटकथा का प्रकाशन किया है, जिसे लिखा है जानीमानी साहित्यकार मन्नू भंडारी ने.
नई दिल्ली: राधाकृष्ण प्रकाशन ने प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास 'निर्मला' पर आधारित एक पटकथा का प्रकाशन किया है, जिसे लिखा है जानीमानी साहित्यकार मन्नू भंडारी ने. जब ये किताब मुझे समीक्षा के लिए दी गई तो मेरे मन में सबसे पहला प्रश्न यह आया कि प्रेमचंद के उपन्यास पर आधारित पटकथा की जरूरत ही क्या है? जबकि प्रेमचंद की भाषा इतनी सरल है और पात्र इतने सहज हैं कि उनके उपन्यास पढ़ते समय ऐसा लगता है जैसे पात्र खुद बारी-बारी अपने डायलॉग बोल रहे हों. इस शंका के साथ मैंने इस पुस्तक की समीक्षा का कार्य अपने हाथों में लिया.
पुस्तक को पढ़ने पर पता चला कि दूरदर्शन ने कुछ साल पहले कई प्रमुख साहित्यिक कृतियों पर टीवी धारावाहिक का निर्माण किया, जिसमें प्रेमचंद की निर्मला भी शामिल है. इस धारावाहिक के लिए पटकथा लिखने का उत्तरदायित्व मन्नू भंडारी को मिला. दूरदर्शन पर ये धारावाहिक बहुत लोकप्रिय हुआ, जिसमें उसकी बेहतरीन पटकथा की प्रमुख भूमिका रही.
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किताब की सार्थकता
टेलीविजन की विधा साहित्य से एकदम अलग है. इसलिए निर्मला पर आधारित धारावाहिक बनाने के लिए उसे आवश्यक परिवर्तनों के साथ पटकथा के रूप लिखना उचित और अपरिहार्य था. हर कोई तो किताबें पढ़ता नहीं. समाज के सभी वर्ग तक किताबों की पहुंच नहीं होती. ऐसे में अगर निर्मला जैसी सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार करने वाली कोई कृति पुस्तकालयों या किताब की दुकानों से निकलकर टीवी के पर्दे पर आ जाए तो इसके माध्यम से उसका संदेश घर-घर पहुंच सकता है. इस अर्थ में प्रेमचंद्र के उपन्यास निर्मला की पटकथा का महत्व है. लेकिन हम उस पटकथा को दोबारा एक किताब का रुप देकर पुस्तकालय में रख दें, इसकी क्या आवश्यकता है? इस पर विचार करने पर पहली बात ध्यान में आती है कि जो लोग निर्मला पर आधारित नाटक प्रस्तुत करना चाहते हैं, उनके लिए ये किताब उपयोगी होगी. पटकथा एक अलग विधा है, जिसकी अपनी विशेषताएं हैं. इस कारण यदि निर्मला अधिक व्यापक पाठक वर्ग तक पहुंचती है, तो ये इस किताब की सार्थकता होगी.
निर्मला के जीवन की त्रासदी
निर्मला के जीवन को समझने के लिए भी इस पटकथा का प्रकाशन बहुत जरूरी था. क्योंकि इसका नयापन हमारी नींद को तोड़ता है. आज मीटू के दौर में जब कामकाजी महिलाओं की स्थिति पर हम चर्चा कर रहे हैं, ये प्रश्न भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि भारतीय महिला के पारिवारिक जीवन में क्या बदलाव आया? प्रेमचंद की निर्मला का प्रकाशन 1927 में हुआ. निर्मला एक 15 साल की सुंदर और सुशील लड़की है. निर्मला की शादी दहेज के कारण नहीं हो पा रही है, और अंत में परिवार वाले तंग आकर उसका विवाह एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति के साथ कर देते हैं, जिसके पिछली पत्नी से तीन बेटे हैं. निर्मला विपरीत परिस्थितियों से जूझती हुई अंत में मर जाती है. इस तरह निर्मला अनमेल विवाह और दहेज प्रथा की दुखांत कहानी है.
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प्रेमचंद कालजयी या हम काल पराजित?
मन्नू भंडारी की निर्मला 2018 में प्रकाशित हुई. उन्होंने निर्मला की कहानी के प्रस्तुतिकरण में कई बदलाव किए हैं. संवाद और भाषा में भी युगानुकूल परिवर्तन हैं. इसमें कई ऐसी बातें हैं जो आज के पाठकों को अपनी ओर खिंचती हैं, जिसमें नयापन एक प्रमुख तत्व है. लेकिन अगर कुछ नहीं बदला है तो वह है निर्मला की त्रासदी. 1927 की निर्मला और 2018 की निर्मला के हालात में कोई अंतर नहीं आया. आज भी दहेज रूपी रावण के हाथों हजारों-लाखों निर्मला रूपी संभावनाएं खत्म हो रही हैं.
हम आज प्रेमचंद्र को कालजयी लेखक कहते हैं, लेकिन सच पूछिए तो प्रेमचंद कालजयी लेखक नहीं, बल्कि हम काल के आगे पराजित समाज हैं. प्रेमचंद के लेखन में जो अन्याय, अत्याचार, दमन, शोषण और पीड़ा है, हमें तो कब का उसे अप्रासंगिक बना देना चाहिए, खत्म कर देना चाहिए. लेकिन करीब एक सदी बीत जाने पर भी अगर उनका लेखन आज भी हमारे समाज का सच बताता है, तो इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है. वास्तव में मन्नू भंडारी की ये किताब हमें इसी दुर्भाग्य की याद दिलाती है. वर्ना हम तो बस प्रेमचंद को ग्लोरीफाई करने में ही मगन रहते. अपने गिरेबान में कभी न देखते.