`यहां सिस्टर निवेदिता की समाधि है जिन्होंने अपना सर्वस्व भारत को दे दिया`, कौन थीं मार्गरेट नोबल?
Margaret Noble to Sister Nivedita: सिस्टर निवेदिता सिर्फ एक समाज सुधारक ही नहीं थीं; वे भारत की सच्ची मित्र थीं.
1895 के अक्टूबर के एक ठंडे दिन, मार्गरेट नोबल नामक एक आयरिश टीचर लंदन के एक पार्लर में स्वामी विवेकानंद की बातें ध्यान से सुन रही थी. इस करिश्माई मॉन्क के शब्दों ने उनका जीवन बदल दिया - और उसके माध्यम से, अनगिनत भारतीय महिलाओं का जीवन बदल गया.
स्वामीजी के सशक्तिकरण, आत्मनिर्भरता और राष्ट्रीय गौरव के संदेश ने मार्गरेट को गहराई से प्रभावित किया और यहीं से रामकृष्ण संघ की सिस्टर निवेदिता बनने का उनका मार्ग शुरू हुआ.
अपना जीवन छोड़कर वे भारत के लिए रवाना हो गईं, जहां महिला शिक्षा और सामाजिक सुधारों में उनके योगदान की गूंज आज भी सुनाई देती है.
मार्गरेट नोबल से सिस्टर निवेदिता तक
28 अक्टूबर, 1867 को आयरलैंड के डुंगानोन में जन्मी मार्गरेट का पालन-पोषण आयरिश होम रूल आंदोलन में एक्टिव एक प्रगतिशील परिवार में हुआ. उनके पिता, जो एक पादरी थे, अक्सर उन्हें गरीब समुदायों के दौरे पर ले जाते थे, जिससे उनमें करुणा के बीज बोए गए.
हैलिफ़ैक्स कॉलेज में, उन्होंने म्यूजिक, साइंस और पेस्टालोजी और फ्रोबेल जैसे पायोनियर्स से नए टीचिंग आइडियाज के लिए गहरा प्यार विकसित किया. उनकी एकाग्रता की प्रभावशाली शक्ति ने उन्हें तेजी से प्रगति करने में मदद की.
उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की और 17 साल की छोटी उम्र में एक टीचर के रूप में अपना करियर शुरू किया, अपने विश्वास और उद्देश्य पर सवाल उठाते हुए, और अपने जीवन को पूरी तरह से समर्पित करने के लिए कुछ खोज रही थीं.
लंदन में, 1895 में स्वामी विवेकानंद के भाषणों ने उनके दार्शनिक संदेहों के उत्तर दिए और एक बड़े उद्देश्य के लिए कमिटमेंट जगाया. विवेकानंद, जिन्होंने भारतीय महिलाओं की दुर्दशा को प्रत्यक्ष रूप से देखा था, भारतीय महिलाओं की एजुकेशन और आत्मनिर्भरता के लिए समर्पित किसी व्यक्ति को चाहते थे.
उनका मानना था कि भारत का भविष्य महिलाओं को सशक्त बनाने में निहित है और शिक्षा के माध्यम से वे उन सदियों पुरानी बाधाओं को तोड़ना चाहते थे जो उन्हें पीछे धकेलती थीं.
उनसे मुलाकात के बाद मार्गरेट को लगा कि उसे अपना लक्ष्य मिल गया है: "मेरे पास अपने देश की महिलाओं के लिए योजनाएं हैं, जिनमें, मुझे लगता है, आप बहुत मददगार हो सकती हैं," उन्होंने मार्गरेट से कहा, भारत के पुनरुद्धार में उनकी क्षमता को देखते हुए.
उनकी दूरदृष्टि से प्रेरित होकर, वह औपचारिक रूप से उनके मिशन में शामिल हो गईं और अपना नाम 'निवेदिता' (जिसका अर्थ है "समर्पित व्यक्ति") अपना लिया और 1896 में भारत आ गईं.
स्कूलों की स्थापना और महिलाओं को सशक्त बनाना
1898 में कलकत्ता (अब कोलकाता) पहुंचकर निवेदिता ने अपना प्रारंभिक दिन शहर के जीवंत बौद्धिक और सांस्कृतिक हलकों में बिताया.
वह सर जगदीश चंद्र बोस और लेडी बोस, सर जगदीश की बहन लावण्यप्रभा बोस, सरला घोषाल और टैगोर परिवार से जुड़ीं.
निवेदिता शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में महिलाओं और लड़कियों की स्थिति से स्तब्ध थीं. पारंपरिक प्रतिबंधों और अवसरों की कमी ने कई लोगों को घरेलू भूमिकाओं तक ही सीमित कर दिया था. मिस बोस और लेडी बोस पहले से ही कलकत्ता में स्कूल चला रही थीं, जिनमें प्रतिष्ठित बेथ्यून कॉलेज भी शामिल था.
युवा विधवाओं तथा शहरी और ग्रामीण दोनों इलाकों की लड़कियों को शिक्षित करने के लिए लेडी बोस के अभिनव तरीकों ने निवेदिता को आकर्षित किया, क्योंकि यह भारतीय महिलाओं के उत्थान और शिक्षा के उनके लक्ष्य के अनुरूप था.
अटूट समर्पण की विरासत
सिस्टर निवेदिता का काम शिक्षा और विज्ञान वकालत से लेकर सामाजिक सुधार और राष्ट्रवादी उद्देश्यों तक अलग अलग क्षेत्रों में फैला हुआ था. उन्होंने निजी सुख-सुविधाओं का त्याग किया और उनकी यात्रा चुनौतियों से भरी थीं.
वह जन्म से भारतीय नहीं थीं, फिर भी अपने नाम के अनुरूप उन्होंने भारत की भावना को अटूट निष्ठा के साथ अपनाया.
विवेकानंद के निधन के बाद, उन्हें उनके मिशन को आगे बढ़ाने की गहरी जिम्मेदारी महसूस हुई और रामकृष्ण मिशन में उनके मित्रों के समूह, जिनमें ब्रह्मानंद और शारदानंद शामिल थे, ने उनका समर्थन करना जारी रखा.
जब 13 अक्टूबर, 1911 को सिस्टर निवेदिता का निधन हुआ, तो उन्होंने अपने पीछे करुणा और साहस की एक विरासत छोड़ी जो भारत में एजुकेशन और सामाजिक सुधार के क्षेत्र में कायम है.
आज, दार्जिलिंग में एक साधारण स्मारक पर लिखा है: "यहां सिस्टर निवेदिता की समाधि है जिन्होंने अपना सर्वस्व भारत को दे दिया."
सिस्टर निवेदिता सिर्फ एक समाज सुधारक ही नहीं थीं; वे भारत की सच्ची मित्र थीं, जिन्होंने भारत के लोगों, इसकी संस्कृति और इसकी महिलाओं के लिए अथक प्रयास किए और अपने पीछे एक ऐसी विरासत छोड़ी जो आज भी कायम है.
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