Shamshera Review: रणबीर के डबल कमबैक की हवा निकाल दी राइटरों ने, हीरो पर भारी पड़े संजय दत्त
Ranbir Kapoor New Film 2022: चार साल बाद स्क्रीन पर लौटे रणबीर कपूर के लिए शमशेरा अच्छी खबर नहीं है. फिल्म दर्शक के दिल को नहीं छूती. कहानी में कई झोल हैं. शमशेरा और बल्ली के डबल रोल में रणबीर भी जादू नहीं पैदा कर पाते.
YRF 50 Years: अगर आप ‘शुद्ध नए’ के नाम पर ‘शुद्ध पुराना’ देख कर ठगे जाना चाहते हैं, तो 1871 के हिंदुस्तान का शेमशेरा आपके लिए है. पर्दे पर कुछ ही मिनटों में, 1871 में शुरू होने वाली कहानी छलांग मार कर 25 साल आगे 1896 में आ जाती है. लेकिन इस छलांग में उसका दम फूल जाता है. वह औंधे मुंह गिर जाती है. कहानी लिखने वालों से लेकर स्क्रिप्ट लिखने वाले समझ नहीं पाते कि उन्हें अब क्या दिखाना है. 25 साल के बल्ली (रणबीर कपूर) को पता चलता है कि उसका बाप शमशेरा (रणबीर) बहुत बहादुर था. अपनी कौम खमेरन को उसने अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कराने के लिए जान दे दी. फिल्म बताती है कि खमेरन एक बंजारी कौम थी, जिसने मुगलों के खिलाफ राजपूतों का साथ दिया. लेकिन मुगल जीत गए और राजपूतों ने खमेरनों को नीची जाति बता कर हाशिये पर डाल दिया. लेकिन बागी खमेरन, शमशेरा ने हथियार उठा लिए और डाकू बन गया. अमीरों की नाक में दम कर दिया. अमीरों ने अंग्रेजों से गुजारिश की और अंग्रेज इंस्पेक्टर शुद्ध सिंह (संजय दत्त) ने शमशेरा को समझाया कि हथियार डाल दे. अंग्रेज उसे नए इलाके में बसाएंगे. पैसा भी देंगे. वह और उसकी कौम सम्मान और इज्जत का जीवन फिर शुरू कर सकते हैं. लेकिन समझौता मंजूर करने वाले शमशेर और खमेरन कौम को धोखा मिला. शुद्ध सिंह ने उन सबको कजा नाम की जगह पर बने विशाल किले में कैद कर दिया. इसके आगे फिल्म के सारे राइटरों के दिमाग ने नया सोचने का काम बंद कर दिया.
बल्ली और कौवों की कांव-कांव
पूरी फिल्म में आपको पता नहीं चलता कि किले के कैद हजारों बंदियों से शुद्ध सिंह रात-दिन काम क्या करवाता है? बल्ली गुलामों के बीच पैदा हुआ पला-बढ़ा तो आखिर उसने पढ़ना कैसे सीखा. वह अंग्रेजों और शमशेरा के बीच हुआ अंग्रेजी में लिखा समझौता पढ़-समझ लेता है. आप कल्पना कर सकते हैं कि बल्ली किन हालात मे बड़ा हुआ, लेकिन वह नक्शा पढ़ना, आसमान में देख कर दिशा जान लेना, हीरोइन को अपनी अंगुलियों पर नचाना सब कर लेता है. फिल्म में यह भी पता नहीं चलता कि क्यों जब शमशेरा और बल्ली पर मुश्किलें आती है तो ढेर सारी कौवे कांव-कांव करते हुए अचानक कैसे और क्यों आ जाते है. हर बार कौवे आते हैं तो फिर जब बल्ली किले से भाग कर एक नदी किनारे बेहोश पड़ा होता है, तो उसे होश में लाने के लिए कौवे की जगह अचानक एक बाज कैसे आ जाता है? तर्क जैसी कोई चीज फिल्म में नहीं दिखती. अगर आप दिमाग न भी लगाएं तो यहां एंटरटेनमेंट ढूंढना मुश्किल है.
लेखकों ने बिगड़ा खेल
फिल्म में कथा-पटकथा-संवाद के लिए पूरी टीम है. नीलेश मिश्र, खिला बिष्ट, एकता पाठक मल्होत्रा, करण मल्होत्रा और पियूष मिश्रा ने मिलकर यह सारा काम किया है. नतीजा यह कि लेखन के स्तर पर ही फिल्म सबसे कमजोर है. ऐसे में आगे क्या ढंग का बन सकता था. कुछेक जगहों को छोड़ कर करण मल्होत्रा का निर्देशन औसत से भी कम है. कुछ दृश्य अच्छे हैं तो कुछ बचकाने. करण पूरी फिल्म में संतुलन बना पाने में पूरी तरह नाकाम हैं. वीएफएक्स अगर सुविधा है तो बॉलीवुड के निर्देशकों को इसका ढंग से इस्तेमाल करना अभी नहीं आया है. शमशेरा इसका अच्छा उदाहरण है. जहां तक एक्टिंग का मामला है तो रणबीर के लिए यह रोल नहीं था. उन्हें फिलहाल रोमांस और डांस ही करना चाहिए. जितना काम यहां उन्होंने किया, उतना कोई भी कर सकता था. वाणी कपूर के करिअर में एक बार फिर चढ़ाव की कोई संभावना नहीं दिखी. उनके कपड़े डिजाइन और मेक-अप करने वाले भूल गए कि कहानी साल 1900 से भी पुरानी है. संजय दत्त जरूर यहां जमे हैं, लेकिन पूरी फिल्म के टोन में वह अकेले लाउड नहीं, बहुत ज्यादा लाउड हैं. इसलिए बार-बार कहानी के फ्रेम से बाहर चले जाते हैं. खास बात यह भी विलेन के होने पर भी संजय दत्त क्रूर कम और कॉमिक ज्यादा नजर आते हैं. बावजूद इसके मानना होगा कि उनका अभिनय शानदार है और एक वही अकेले हैं, जो यहां असर पैदा करते हैं.
क्या करना चाहिए आदित्य चोपड़ा को
फिल्म का संगीत किसी भी स्तर पर सुनने-देखने वाले को नहीं छूता. कोई गाना, कोई धुन आपको याद नहीं रह पाती. न ही कोरियोग्राफी ऐसी है कि कोई स्टैप आपके ध्यान में अटक जाए. इस साल स्थापना के 50 बरस का जश्न मना रहे यशराज फिल्म्स की समस्या यह है कि उसके पास भरा-पूरा स्टूडियो है, जहां सारा सैट-अप जमा-जमाया है. ऐसे में आदित्य चोपड़ा का डर स्वाभाविक है कि कुछ हिलाया तो सब भरभरा कर गिर न पड़े. लेकिन यशराज का पिछले कुछ वर्षों का ट्रेक रिकॉर्ड बता रहा है कि टीम में अपनी जगह पक्की समझ रहे लोगों की झाड़-पोंछ जरूरी है. आदित्य को अपनी वर्तमान टीम में से बहुतों को विदा करना चाहिए और नए लोगों को जगह देनी चाहिए. वह भी ऐसे नए लोग, जो उनके स्टूडियो में कार से स्ट्रगल करने न आएं. जिनका दिमाग विदेशी सिनेमा के बोझ तले न दबा हो. आदित्य को यह बात मन में दोहरा लेनी चाहिए कि सिनेमा सिर्फ पैसे से नहीं बनता. ऐसा नहीं होता तो ट्रेक रिकॉर्ड और बिगड़ता जाएगा.
उन्नीस रह जाता है हीरो
दर्शकों के लिए सिनेमाघर में जाकर शमशेरा देखना घाटे का सौदा है. टिकट महंगे हैं और फिल्म किसी लिहाज से पैसा वसूल नहीं है. जेब पर भारी पड़ती है. फिल्म का पहला हिस्सा फिर भी कुछ ठीक है, मगर इंटरवेल के बाद फिल्म बहुत खिंची हुई, बिखरी हुई है. लेखकों की टीम और निर्देशक पूरी तरह कनफ्यूज दिखते हैं कि कैसे आगे बढ़ें, क्या करें और कहानी को कैसे क्लाइमेक्स पर ले जाएं. शमशेरा और बल्ली में हीरो वाली बात नहीं है. शमशेरा मारा जाता और उसकी जगह लेने वाला बल्ली शुद्ध सिंह से उन्नीस ही साबित होता है. शमशेरा महीने भर के अंदर ओटीटी पर आ जाएगी. तब भी अगर जिज्ञासावश चाहें तो देख सकते हैं क्योंकि इसमें ऐसा कुछ नहीं है जो आपकी सिनमाई-स्मृति में नया कुछ जोड़ेगा.
निर्देशकः करण मल्होत्रा
सितारेः रणबीर कपूर, संजय दत्त, वाणी कपूर, सौरभ शुक्ला, क्रेग मेक्गिनले
रेटिंग **
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