पूर्वजों की मुक्ति का 'मुख्य द्वार' है गया, पढ़ें बुद्ध की नगरी से जुड़ी पौराणिक कहानियां
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पूर्वजों की मुक्ति का 'मुख्य द्वार' है गया, पढ़ें बुद्ध की नगरी से जुड़ी पौराणिक कहानियां

गया में पिंडदान की शुरुआत ब्रह्माजी के वंशजों ने की थी. बह्मा जी के 7 पुत्रों ने सबसे पहले गया की पुण्य भूमि में ही पिंडदान किया था, जो आज भी जारी है.

गया में लोग पितरों को पिंड देते हैं. (प्रतीकात्मक तस्वीर)

राजेश कुमार

बिहार का गया पूर्वजों की मुक्ति का मुख्य द्वार है. हिन्दु वेदशास्त्रों और पुराणों के मुताबिक, गया में काल का नियम नहीं चलता. ये धरती है ज्ञान की, अर्पण की और तर्पण की. यहां आकर लोग अपने पुरखों को याद करते हैं. आज जब परिवार बिखर रहे हैं, रिश्ते टूट रहे हैं, तो इस दौर में गया में हर साल अपने पितरों को याद करने के लिए लाखों श्रद्धालु उमड़ते हैं. वे अपने संतान होने का दायित्व निभाते हैं. कहते हैं मगध की इस पवित्र भूमि पर आए बिना मोक्ष नहीं मिल सकता.

गया शहर बिहार और झारखंड की सीमा पर बसा सूबे का दूसरा सबसे बड़ा शहर है. ये बिहार की राजधानी पटना से करीब सौ किलोमीटर दूर है. गया शहर से 17 किलोमीटर की दूरी पर है बोधगया, जहां भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ती हुई थी. गया आज अंतरराष्ट्रीय तीर्थस्थल के तौर पर प्रसिद्ध है.

प्राचीन काल में मगध सम्राज्य के अधीन इस इलाक़े को कीकट नाम से जानते थे. 7 पर्वतों वाले इस शहर का वैदिक नाम ब्रह्मगया है. पहले यहां 365 वेदियां थी और हर दिन एक वेदी पर पिंडदान होता था. इससे यहां श्राद्ध कर्म करने में पूरा साल लगता था. लेकिन अब केवल 48 वेदी बची है जिससे तर्पण का काम जल्दी हो जाता है.गया सनातन धर्म की सबसे पवित्र नगरी है. हिन्दू धर्मशास्त्र इसे वाराणसी के बराबर दर्जा देते हैं. मान्यताओं के मुताबिक गया में पिंडदान से जन्म-मरण से छुटकारा मिल जाता है. और यही वजह है कि हर साल श्राद्धपक्ष में यहां लाखों श्रद्धालु पिंडदान करने के लिए उमड़ते हैं. गया की चर्चा विष्णु पुराण और वायु पुराण में मोक्ष नगरी के रूप में की गई है. इसे विष्णु का नगर भी कहा जाता है. मान्यता है कि भगवान विष्णु खुद यहां पितृ देवता के रूप में विराजमान हैं, यही वजह है कि गया पितृ तीर्थ है.

इस बार सरकार ने दुनिया भर फैले श्रद्धालुओँ के लिए ऑनलाइन पिंडदान की व्यवस्था की है. सरकार का मकसद एक क्लिक के जरिए पित्तरों को तर्पण की व्यवस्था उपलब्ध कराना है. गया में श्राद्ध पक्ष के मेले को लेकर पुलिस-प्रशासन ने भी पुख्ता तैयारी की है. गया में फल्गु नदी और पुनपुन नदी में पिंड दान करने का प्रावधान है. फल्गु नदी भगवान विष्णु के पसीने से निकली है, इसलिए इसे अंतःसलीला भी कहते हैं. ये लोगों के पाप हरती है और आत्माओं को मुक्ति प्रदान करती है. 

गया में पिंडदान की शुरुआत ब्रह्माजी के वंशजों ने की थी. बह्मा जी के 7 पुत्रों ने सबसे पहले गया की पुण्य भूमि में ही पिंडदान किया था, जो आज भी जारी है. एक बार भगवान श्रीराम, लक्ष्मण और माता सीता पिंडदान करने के लिए गया आए हुए थे. फल्गु नदी के तट पर सीता इंतजार करने लगी और भगवान राम और लक्ष्मण जरूरी सामान लाने के लिए चले गए. इसी दौरान महाराज दशरथ की आत्मा ने सीता से पिंडदान की मांग की. इसके बाद सीता ने गाय, फल्गु नदी, कौआ और केतकी के फूल को साक्षी मानकर रेत का पिंड बनाकर पिंडदान कर दिया. कुछ देर बाद जब राम और लक्ष्मण जरूरी सामान लेकर आए, तो सीता ने कहा कि पिंडदान तो हो चुका है. लेकिन राम जी ने कहा कि बिना सामान पिंडदान कैसे हुआ? इसपर सीता जी ने कहा कि गाय, फल्गु नदी, कौआ, केतकी और बरगद के पेड़ से पूछ लीजिए. जब भगवान श्री राम ने इन सबसे पूछा तो राम जी के गुस्से की कल्पना कर बरगद के अलावा सभी गवाह मुकर गए. इसके बाद सीता ने गाय को श्राप दिया कि पूजनीय होकर भी तुम्हें इधर-उधर भटकना पड़ेगा, फल्गु नदी को श्राप दिया कि पवित्र होकर भी तुम सूख जाओगी, केतकी के फूल को श्राप दिया कि अब तुम्हें पूजा में इस्तेमाल नहीं किया जाएगा. राम-सीता की स्थापित 48 पिंडी आज भी गया में मौजूद है. 

पहले संकल्प सृष्टि थी, इस वजह से जो भी इच्छा की जाती थी या वरदान मिलता था तुरंत पूर्ण होता था. लेकिन अब पिंड सृष्टि है, मतलब पहले पिंड का रूप ही आस्तित्व में आता है इसके बाद निर्माण फलता-फूलता है.

पुराणों में गया की चर्चा दैत्य गयासुर को लेकर होती है. जिसने कठिन तप कर ऐसा वर पाया, जिससे उसके संपर्क में आने भर से लोग पवित्र हो जाते थे. आज भी माना जाता है कि गयासुर की धरती गया में जो लोग आते हैं वो पवित्र हो जाते हैं. पौराणिक कथा के मुताबिक भस्मासुर के वंशज गयासुर ने कठोर तप कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया था. वरदान मिलने के बाद गयासुर का शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो गया. उसे वरदान हासिल था कि जो उसे देखेगा या छूएगा उसे यमलोक के दर्शन नहीं करने पड़ेंगे. इसके बाद यमलोक में लोगों का अकाल पड़ गया. देवताओं ने आपस में सलाह की और ब्रह्माजी ने गयासुर से देवताओं को यज्ञ के लिए पवित्र भूमि देने की अपील की. गयासुर ने सोचा कि उससे ज्यादा पवित्र और कौन है. इसीलिए गयासुर ज़मीन पर लेट गया और अपनी पीठ पर देवताओं से यज्ञ करने की अपील की. गयासुर जब धरती पर लेटा तो उसके शरीर ने 5 कोस का क्षेत्रफल घेर लिया. ये पूरा इलाक़ा गया के नाम से मशहूर हुआ. गयासुर की पीठ पर एक विशाल शिला की स्थापना की गई. जिसके बारे में ये कहा जाता है कि ये प्रेत शिला है.

एक कहानी ये भी प्रचलित है कि गयासुर को भगवान विष्णु ने बुरे कर्म करने वालों को मोक्ष देने से रोकने के लिए पाताल लोक जाने को कहा, इसके लिए भगवान श्रीहरि ने गयासुर की छाती पर पैर रख दिया. इससे गयासुर धरती के भीतर चला गया, आज भी गया सुर के शरीर पर विष्णु पद चिन्ह है, उसी जगह पर विष्णु पद मंदिर है. ये पदचिन्ह 9 प्रतीकों से युक्त है, जिसमें शंख, चक्र और गदा शामिल है. धरती के अंदर समाहित गयासुर ने भगवान विष्णु से अपने लिए आहार की याचना की, तो भगवान ने कहा कि यहां हर दिन कोई ना कोई तुम्हें पित्तरों के तर्पण के लिए भोजन करा जाएगा. फल्गु नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थिति विष्णुपद मंदिर 30 मीटर ऊंचा है जिसमें आठ खंबे हैं. इन खंभों पर चांदी की परत चढ़ाई गई है. मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु के 40 सेंटीमीटर लंबे पांव के निशान हैं. मंदिर का 1787 में इंदौर की महारानी अहिल्या बाई ने नवीकरण करवाया.