Bihar Special Status: लोकसभा चुनाव 2024 से पहले बिहार में स्पेशल राज्य देने की मांग एक बार फिर से उठ चुकी है. बिहार के तकरीबन सभी दल विशेष राज्य के दर्जे की मांग कर रहे हैं. सत्ताधारी महागठबंधन दलों के नेताओं ने इसके लिए केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो इसके लिए बाकायदा आंदोलन चलाने की अपील की है. वहीं विपक्षी नेता इस मांग का समर्थन जरूर कर रहे हैं, लेकिन नीतीश कुमार और लालू यादव पर सवाल भी खड़ कर रहे हैं. अब सवाल ये है कि आखिर हर लोकसभा चुनाव के पहले विशेष राज्य का दर्जा वाली मांग क्यों शुरू हो जाती है? क्या ये भी एक चुनावी स्टंट हैं? पहले जान लेते हैं कि विशेष राज्य का दर्जा क्या होता है और किसी राज्य को किन परिस्थितियों में ये विशेष राज्य दर्जा हासिल होता है?


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क्या है विशेष राज्य का दर्जा?


बता दें कि भारत के संविधान में विशेष राज्य का दर्जा देने का प्रावधान नहीं है. इसके बाद भी केंद्र सरकार की ओर से समग्र विकास में पिछड़ चुके राज्यों को विशेष श्रेणी में रखा जाता है. केंद्र की ओर से ऐसे राज्यों को विकास के लिए विशेष सहायता राशि दी जाती है. पहली बार साल 1969 में 5वें वित्त आयोग की सिफारिश पर केंद्र सरकार ने असम, नगालैंड और जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया था. वर्तमान में 11 राज्यों को विशेष राज्य की श्रेणी में रखा गया है. इनमें पूर्वोत्तर के सभी राज्य शामिल हैं. पहाड़ी राज्य उत्तराखंड और हिमाचल को भी विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त है. हालांकि, 14वें वित्त आयोग ने उत्तर-पूर्व और पहाड़ी राज्यों को छोड़कर किसी अन्य राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा ना देने की सिफारिश की थी.


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विशेष राज्य के दर्जा से फायदा


विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त राज्यों को केंद्र सरकार से 90 फीसदी अनुदान मिलता है. इसका मतलब केंद्र सरकार से जो फंडिंग की जाती है उसमें 90 फीसदी अनुदान के तौर पर मिलती है और बाकी 10 फीसदी रकम बिना किसी ब्याज के मिलती है. जिन राज्यों को विशेष दर्जा प्राप्त नहीं है उन्हें केवल 30 फीसदी राशि अनुदान के रूप में मिलती है और  70 फीसदी रकम उनपर केंद्र का कर्ज होता है.


बिहार को क्यों चाहिए विशेष राज्य का दर्जा?


अब सवाल ये उठता है कि आखिर बिहार को किस बुनियाद पर विशेष राज्य का दर्जा चाहिए. इस पर सत्ताधारी दल जदयू और राजद का कहना है कि बिहार से झारखंड अलग होने के बाद राज्य का विकास रुक गया. उनकी दलील है कि जब राज्य बंटा तो आबादी का 65 फीसदी हिस्सा बिहार को मिला और मात्र 35 फीसदी हिस्सा झारखंड में गया, लेकिन आय का स्रोत का 67 फीसदी हिस्सा झारखंड में चला गया. 


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महागठबंधन नेताओं का कहना है कि बिहार के हिस्से में जो क्षेत्र आया, उसका बड़ा हिस्सा हर साल बाढ़ से पीड़ित होता है. बाढ़ और सुखाड़ की वजह से कृषि व्यवस्था भी चरमरा गई है. इसी कारण से राज्य में गरीबी दर काफी बढ़ गई है. विकास के बुनियादी ढांचे सड़क, बिजली, सिंचाई, स्कूल, अस्पताल, संचार आदि का वहां नितांत अभाव है.इतना ही नहीं, बिहार की सीमा से नेपाल की अंतरराष्ट्रीय सीमा भी लगती है. 


विकास के पैमाने पर कहां है बिहार?


नीति आयोग ने अपनी रिपोर्ट में विकास के कई पैमानों पर देश में बिहार को सबसे पिछड़ा घोषित किया है. 2019-20 में बिहार की प्रति व्यक्ति औसत आय 50,735 रही है. यह मणिपुर जैसे राज्य से भी काफी कम है. बिहार सरकार की हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य के 94 लाख परिवारों की आय 6 हजार से भी कम है. यह कुल आबादी का 34 प्रतिशत है. प्रदेश में करीब 40 फीसदी परिवार आज भी कच्चे मकानों में रहने को मजबूर हैं. इतना ही नहीं प्रदेश में आज भी करीब 50 फीसदी लोगों के पास मोबाइल फोन नहीं है. बिहार के अधिकांश लोग या तो बेरोजगार हैं या दिहाड़ी मजदूरी कर अपना जीवन-यापन कर रहे हैं. जातीय गणना की रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में सिर्फ 7% आबादी ग्रेजुएट है. 14.71 फीसदी आबादी ही 10वीं पास है. 


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बदहाली का कौन है जिम्मेदार?


बिहार के सत्ताधारी दलों को विशेष राज्य का दर्जा की मांग करते वक्त ये भी देखना चाहिए कि इसकी जरूरत क्यों पड़ी. प्रदेश में करीब 20 साल से नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे हैं. उनसे पहले 15 साल तक लालू यादव ने राज किया. सत्ता में सहयोगी कांग्रेस पार्टी को 39 साल तक बिहार में शासन करने का मौका मिला. इतने लंबे समय तक इन नेताओं ने प्रदेश की बेहतरी के लिए क्या किया, ये एक बड़ा सवाल है? इसी कारण से चिराग पासवान ने कहा है कि जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विशेष राज्य के दर्जे की मांग करते हैं तो उनको इस बात को स्वीकारना होगा कि 19 साल में उनकी नीतियां बिहार की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में नाकाम रही है.