अब राजेंद्र सिंह का मुकाबला जेडीयू प्रत्याशी बिहार सरकार में मंत्री जय कुमार सिंह से है जो सीएम नीतीश कुमार के चहेते नेताओं में गिने जाते हैं.
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पटना: कोरोना काल में भी बिहार विधानसभा चुनाव (Bihar Vidhansabha election) इस समय देश का हॉट टॉपिक बना हुआ है. अब इसके कई कारण देखे जा सकते हैं. पहला कि यह कोरोना काल में होने वाला देश का पहला आम चुनाव है. दूसरा- यह बिहार के सिरमौर की लड़ाई का चुनाव है कि आखिर सत्ता के शीर्ष पर नीतीश कुमार (Nitish Kumar) बैठेंगे या तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) या कोई अन्य नया चेहरा, जिसकी संभावनाएं बेहद कम है.
लेकिन राजनीतिक पंडितों के लिहाज से देखें तो यह चुनाव इसलिए सबसे अहम हो जाता है क्योंकि 2014 में एनडीए की सरकार आने के बाद से यह पहला मौका है जब इतने बड़े स्तर पर संघ और बीजेपी के नेताओं में मनमुटाव इतना बढ़ गया है कि अब लगता है जैसे कई चुनावी रणक्षेत्रों में बागी वर्सेज पार्टी फेस के बीच का संघर्ष हो गया है.
बागियों ने बिगाड़ दिए सारे समीकरण
अब जरा पूरी कहानी को शुरू से शुरू करते हैं कि आखिर चुनाव की सुगबुगाहट के साथ और तारीखों के ऐलान के पहले की बीजेपी और अब की बीजपी की तस्वीर इतनी कैसे बदल गई है? चुनाव के सुगबुगाहट के पहले का आलम कुछ ऐसा था कि बीजेपी को बिहार चुनाव के बाद सीट जितने के मामले में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में देखा जा रहा था. अब जबकि पार्टी में हर दिन कोई न कोई कार्यकर्ता बागी होता जा रहा है, ऐसे में खुद पार्टी को और संगठन को दिल्ली दूर नजर आने लगी है.
संगठन को नुकसान हुआ तो BJP चुकाएगी भारी कीमत
बिहार विधानसभा चुनाव में तारीखों के ऐलान के साथ ही जो दलबदल और बागी बनने का सिलसिला महागठबंधन में चल रहा था, वह एनडीए के पाले में शिफ्ट कर गया. पहले एलजेपी के तेवरों ने गठबंधन को परेशान किया तो फिर जेडीयू-बीजेपी के गठबंधन और सीट शेयरिंग समझौते ने रही-सही कसर पूरी कर दी.
संघ के लोगों की शब्दों में कहें तो जेडीयू के साथ गठबंधन में आ कर बीजेपी ने जो सौदा किया है, उसमें संगठन को सबसे बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है. और राजनीतिक इतिहास खंगालें तो मालूम होगा कि जब-जब संगठन को नुकसान उठाना पड़ा है, तब-तब बीजेपी ने उसकी भारी कीमत चुकाई है. फिर चाहे वह अटल बिहार वाजपेयी के इंडिया शाइनिंग के नारे का डूब जाने जैसा हस्र ही क्यों न हुआ हो.
JDU से गठबंधन में BJP ने गंवाई पारंपरिक सीटें
बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी-जेडीयू गठबंधन की वजह से बीजेपी को अपनी कई पारंपरिक सीटों से हाथ धोना पड़ा है. कई ऐसी सीटें भी छोड़नी पड़ी है जिस पर कई दशकों से पार्टी ने अपने पैर जमा रखे थे. संगठन के स्तर पर कई ऐसे शूरवीरों को कुर्बान किया गया है, जिन्होंने कमजोर वक्त में पार्टी को न सिर्फ बैसाखी उपलब्ध कराई बल्कि संगठन के लिए जमीनी स्तर पर अपनी चप्पलें तक घिस डाली.
बिहार के सबसे बड़े बागी नेता- राजेंद्र सिंह
बिहार चुनाव में इस वक्त सबसे बड़े बागी की उपाधि पा चुके बीजेपी नेता राजेंद्र सिंह ने भी आलाकमान की कलई खोलने में जरा भी कोताही नहीं बरती. जैसे ही बीजेपी नेता राजेंद्र सिंह पार्टी से खफा हुए, एलजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जो इस समय जेडीयू के खिलाफ मोर्चेबंदी में लगे हुए हैं, उन्होंने पार्टी का सिंबल देने में देर न लगाई और तुरंत उन्हें दिनारा क्षेत्र से पार्टी का उम्मीदवार बना दिया. अब राजेंद्र सिंह का मुकाबला जेडीयू प्रत्याशी बिहार सरकार में मंत्री जय कुमार सिंह से है जो सीएम नीतीश कुमार के चहेते नेताओं में गिने जाते हैं.
सासाराम विधानसभा जहां ठग लिए गए संगठन के दो रणबांकुरे
वही हाल सासाराम विधानसभा सीट का भी है, जहां से पांच बार विधायक रहे और अपने बालाव्सथा से ही पहले संघ फिर बीजेपी के क्षत्रप रहे ज्वाहर प्रसाद का टिकट काटा गया. कारण ? यह क्षेत्र भी जेडीयू के खाते में चला गया जिसके पीछे सिटिंग एमएलए का फेंका हुआ पासा काम कर गया.
दरअसल, जेडीयू से एनडीए के प्रत्याशी बनाए गए अशोक सिंह, 2015 में आरजेडी के टिकट पर विधानसभा चुनाव जीते थे. लेकिन चुनाव के तारीखों के ऐलान से ठीक पहले विधायकजी माहौल को परख गए और बिना देरी किए जेडीयू के हो लिए, इस शर्त पर कि पार्टी उन्हें सासाराम से ही उम्मीदवार बनाएगी. फिर वही हुआ जिसका डर संघ के नेताओं को सता रहा था. संगठन मंत्री नागेंद्रजी के नेतृत्व के बावजूद यह पांरपरिक सीट न सिर्फ जेडीयू को चली गई बल्कि नोखा के सिटिंग एमएलए को भी ठग लिया गया.
चिराग ने दिया सम्मान
नोखा के विधायक रहे रामेश्वर चौरसिया जो बीजेपी के उन चंद नेताओं में शुमार थे जिसने 2017 के यूपी चुनाव में एक महत्ती भूमिका निभाई थी, उनका टिकट भी काट लिया गया और पार्टी ने उन्हें बागी बनने को मजबूर कर दिया. बिहार बीजेपी चुनाव प्रभारी देवेंद्र फड़णवीस के दिलासे के बावजूद इस नेता का टिकट कटा और इन्होंने आहत हो कर एलजेपी का दामन थाम लिया और सासाराम से ही चुनावी समर में कूद पड़े.
'सुशील मोदी की वजह से कटे कई नेताओं के टिकट'
इन्होंने मीडिया से मुखातिब होते हुए सच से पर्दा भी उठाया और बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी को बीजेपी नेता हो कर जेडीयू के लिए काम करने वाला बताया. उन्होंने कहा कि उनके इशारे पर ही कई संगठन के नेताओं के न सिर्फ टिकट कटे बल्कि उन्हें बागी होने को मजबूर भी होना पड़ा. टिकट बंटवारे में सुशील मोदी के हस्तक्षेप की वजह से संगठन ने कामकाजी और मेहनती कार्यकर्ताओं को कम बल्कि नए नवेले और चहेते नेताओं को सिंबल दे कर चुनावी मैदान में भेज दिया.
बागियों की एक लंबी-चौड़ी लिस्ट
यह लिस्ट बहुत लंबी है. बागी नेताओं की सूची तैयार किए गए तो कम से कम 12-15 नाम सामने आएंगे. राजेंद्र सिंह, रामेश्वर चौरसिया के अलावा उषा विद्यार्थी, बेबी कुमारी, अमनौर से सिटिंग एमएलए शत्रुघ्न सिन्हा उर्फ चोकर बाबा, सीवान विधायक व्यासदेव, जहानाबाद से इंदु कश्यप, मशरख से पूर्व विधायक तारकेश्वर सिंह, मधुबनी के पूर्व विधायक रामदेव महतो जैसे कई नाम हैं जो अब बीजेपी नेता नहीं बीजेपी के बागी नेता कहे जाने लगे हैं. इतना ही नहीं पार्टी आलाकमान ने इन सभी को अनुशासनहीनता के कारणों के साथ पार्टी से निष्कासित कर दिया है.
इतने बड़े स्तर पर पार्टी नेता, खासकर संगठन के नेताओं के बागी हो जाने के बाद केंद्रीय नेतृत्व की अक्षमता पर भी सवाल खड़े किए जाने लगे हैं. संगठन मंत्री नागेंद्र जी की नाराजगी की खबरें भी गुपचुप तरीके से बाहर आने लगी हैं. गोविंदाचार्य जैसे संघ के बड़े नेता भी टिकट बंटवारे और सीट समीकरण के इस फैसले पर कुछ न कर सके.
अब ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या बीजेपी और एनडीए गठबंधन कार्यकर्ताओं को इस बात के लिए मना पाएगी कि उनके बीच के किसी नेता को नहीं बल्कि पार्टी के बनाए गए फेस के लिए वोट मांगें और चुनाव प्रचार में जुट जाएं? सवाल यह भी है कि क्या पार्टी अब भी बिहार में सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर सामने आएगी?